होली गीत
उनकी यादें सताने लगे फागुन में।
कोयलिया कुकी डारी पे
लगा मुझे तुम बुला रही हो
बंसी की माधुरी सुरों में सरगम डोर बन झूला रही हो
पुरवईया बहकाने लगे
फागुन में।।
हर सूरत में सूरत तेरी
तन्हाई में तरसाती है
लाजवंती बन रूप सलौना
मन दर्पण पर छा जाती है
रह-रह मुंह चिढ़ाने लगे
फागुन में।।
होली में तुम से ये दूरी
लगता कुछ भी पास नहीं है
अपने होने तक का हमको
थोड़ा भी एहसास नहीं है
जीवन-पथ उलझाने लगे
फागुन में।।
मांग में भरकर फाग सिंदूरी
धरती दुल्हन बनी हुई है
नवयौवन के तन से आंचल
सरक-सरक हरजाई हुई है
मन बैरी अकुलाने लगे
फागुन में।।
@ कवि पारो शैवलिनी, चित्तरंजन (पश्चिम बंगाल)