‘हिन्दी मेरी माँ है I’ – फादर कामिल बुल्के जयंती पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा : देशज भाषाओं के महत्व को स्थापित करने के लिए आजीवन कृतसंकल्प और ‘श्रीराम साहित्य’ के मर्मज्ञ ‘फादर कामिल बु्ल्के’ की आज 111 वी जयंती पर हम उन्हें सादर स्मरण करते हुए सादर नमन करते हैं। भारतीय मिट्टी, जल, वायु, पादप के साथ ही यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, आध्यात्म, दर्शन, सम्पन्नता, भाषा, साहित्य आदि प्राचीनकाल से ही सहृदय विदेशियों को अपनी गरिमा की ओर आकर्षित करते आये हैंI

फलतः अपनी-अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु समयानुसार अनगिनत विदेशियों का हमारी पवित्र भारतभूमि पर आगमन हुआI कुछ ने अपनी क्रूरता से भारतभूमि को आक्रांत किया, तो कुछेक ने अपनी सहृदयतायुक्त मानवताजन्य कार्यों से भारतीयों को प्रभावित किया और कुछेक विदेशी ऐसे सहृदयी भी रहे हैं, जिन्होंने भारतभूमि को अपनी माता के समतुल्य मान कर अपने कर्मों से भारत के कण-कण से अपना अटूट रिश्ता ही जोड़ लिया हैI ऐसे ही ‘बेल्जियम’ की धरती पर जन्मे ‘फादर कामिल बुल्के’ रहे हैं।

जिन्होंने भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य और भाषा से प्रभावित होकर श्रीराम-श्रीकृष्ण की इस पावन धरती पर अपने शीश को झुकाते हुए इसके रजकण को अपने शीश तिलक स्वरूप लगाते हुए इसकी सेवा में अपने आप को सदा के लिए समर्पित कर अपने जीवन को सार्थक बनायाI

फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फ्लैंडस में 1 सितंबर, 1909 को हुआ था, जहाँ ‘फ्लेमिश’ भाषा-भाषी के लोग बसे थे, लेकिन उस दौरान बेल्जियम के शासक वर्ग ‘फ्रेंच’ ही बोलते थेI ऐसे में कामिल बुल्के को अपनी भाषा और संस्कृति की अस्मिता के लिए बहुत लड़ाइयाँ लड़ी पड़ी थी। बाद में ईश्वरीय संकेत के आधार पर कामिल बुल्के 1930 में येसु धर्मसमाज में प्रवेश किए। 1932 में जर्मनी के जेसुईट कॉलेज में दर्शनशास्त्र में एम.ए किये। 1936 में वे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए वर्तमान पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में पहुँचे थे।

कर्सियोंग कॉलेज में उन्होंने ईशशास्त्र का अध्ययन कर पवित्र पुरोहिताभिषेक संस्कार ग्रहण कियाI फिर कुछ ही महीनों के बाद वे वर्तमान झारखंड के गुमला में पाँच वर्षों तक एक विद्यालय में गणित पढ़ाया। जब वे भारत आए थे, तब वे ना तो हिन्दी समझ सकते थे और ना ही बोल सकते थेI भारत पहुँचने पर उन्होंने पाया कि यहाँ के अधिकतम लोग अपनी बोली और भाषा को साधने के बजाय अंग्रेजी बोलने में अधिक गर्व महसूस करते हैंI समाज भी उन्हें अधिक मान-सम्मान देता हैI

अधिकांश भारतीय अपनी ही समृद्ध परंपराओं से अंजान हैं। जबकि कुछ मित्रों और स्वाध्ययन से वे भारतीय संस्कृति, सभ्यता, आध्यात्म, दर्शन, भाषा, साहित्य आदि की दिव्य गरिमा को समझ चुके थेI अतः भारतीय भाषाओं और संस्कृति की अस्मिता की रक्षा हेतु उन्होंने अपनी कमर कस लीI वहीं पर 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग, झारखंड के पंडित बदरीदत्त शास्त्री से उन्होंने संस्कृत हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी और मात्र पाँच वर्षों में ही उन्होंने हिंदी सहित संस्कृत पर भी मजबूत पकड़ बना लीI

वैसे तो फादर कामिले बुल्के भारत में ईसाई धर्म-प्रचार के लिए भेजे गए थेI पर यहाँ भाषाओं ने खासकर हिंदी ने उन्हें ऐसा मोहित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन ही हिंदी की सेवा में लगा दियाI बाद में बुल्‍के ‘रामायण के प्रकांड पंडित’ कहलाए। उन्होंने भगवान राम के विषय में लिखा – ‘राम बाल्मिक कथा के मिथकीय पात्र नहीं हैं, बल्कि वे इतिहास पुरुष हैं, जिनकी व्याप्ति सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है। उन्होंने कई उदाहरणों से साबित किया कि रामकथा अंतर्राष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली है। ‘रामायण’ सिर्फ धार्मिक साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह जीवन जीने के तरीके का एक बेहतरीन दस्तावेज हैI

वैसे भी कामिल बुल्के अंग्रेजी, फ्रेंच समेत कई विदेशी भाषाओं के भी अच्छे जानकार थेI फिर भी भारत की शास्त्रीय भाषा में रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री प्राप्त कीI फिर 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपना शोध प्रबंध हिंदी में ही लिखा, जबकि उस समय तक देश के विश्व विद्यालयों में लोग शोध का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाते थेI इसके लिए विश्व विद्यालय को अपने नियम भी बदलने पड़े थेI

1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए उन्होंने अपना शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय हिंदी में ही लिखा। इस शोध का शीर्षक था ”राम कथा की उत्पत्ति और विकास”। उनके देशहित कार्यों पर गौर कर इसी साल उन्हें सादर भारत की नागरिकता प्रदान की गई थी। इसके बाद से वह स्वयं अपने आप को ‘बिहारी’ कहकर बुलाते थे। उसके बाद रांची आए, उस समय सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष बनाए गए।

फादर कामिल बुल्के “श्रीरामचरितमानस” कृतकार गोस्वामी तुलसीदास के जबरदस्त प्रशंसक थेI अतः तुलसीदास को पढ़ने और समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज सीखीI ईसाई धर्म के बारे में भी उन्होंने हिंदी में कई ग्रंथ रचेI उन्होंने ‘बाइबिल’ का हिन्दी में अनुवाद भी किया थाI वे अक्सर कहा करते थे कि भारतीयों के पास इतनी अच्छी अपनी भाषा हिंदी हैI फिर उन्हें अंग्रेजी पर अभिमान करने की क्या जरूरत है? फादर कामिले बुल्के हिंदी में कई पुस्तकों की रचना की, जो उन्हें साहित्य के क्षेत्र में भी अमरत्व को प्रदान कींI यथा – ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश’, ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि हैंI इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया।

18 अगस्त 1982 में गैंगरीन रोग के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी और वहीं के ‘निकोल्सन कब्रिस्थान’ में उन्हें दफनाया गया थाI बाद में 36 वर्ष बाद उनके पवित्र अवशेष को दिल्ली से 13 मार्च 2018 को लाकर पहले राँची के ‘मनरेसा हॉउस’ में रखा गया और अगले दिन ही 14 मार्च, 2018 को एक भव्य समारोह में उनकी कर्मभूमि ‘संत जेवियर कॉलेज’ (राँची) के सामने बने पुण्य स्थल में स्थापित कर दिया गयाI

फादर कामिले बुल्के के चहरे और सफ़ेद लटकती दाढ़ी से साधू-संतों, मनीषियों और दार्शनिकों की दिव्य आभा व ओज झलकते थे। वे हमेशा दार्शनिकों के समान सफेद चोंगा पहनते थे। सबके साथ मिलनसार और मधुर सम्बन्ध, मंथर चाल, शांत और गम्भीर स्वभाव, धीरे-धीरे मृदु बातचीत उनके स्वभाव की विशेषताएँ थीं, जो आगन्तुक को भी अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती थींI वे वर्तमान में झारखंड की राजधानी राँची के अल्बर्ट चौक के पास में ही स्थित तीन कमरों का ‘मनरेसा हाऊस’ (अब फादर कामिले बुल्के हॉउस) में रहते थे। अध्ययन के प्रति उनका आजीवन गहरा लगाव रहा था। अक्सर वे अपनी पुरानी बेंत की बनी कुर्सी पर बैठकर पठन-पाठन किया करते थे।
फादर कामिले बुल्के आजीवन भारतीयों को भारतीयता का पाठ पढ़ाते रहें।

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