विनय सिंह बैस की कलम से : भगवान विश्वकर्मा

नई दिल्ली। हमारे समय में पढ़ाई का इतना दबाव बच्चों पर नहीं था। विद्यालय जरूर हम नियमित जाते थे लेकिन वहां से घर आने के बाद विद्यालय को लगभग भूल ही जाते थे। कोई रिश्तेदार आ गया तो उसके आगे पीछे लगे रहते। खेती-बाड़ी के कामों में भी बड़ों का सहयोग कर देते। गाय, भैंस दुहने से लेकर उनका चारा-पानी करने के लिए भी हमारे पास समय रहता था। इस सबके बाद भी हमारे पास पर्याप्त समय होता था। घर, मुहल्ले, गांव में कोई पूजा-पाठ होता तो उसमें शामिल हो जाते। इंजन (ट्यूबवेल) खराब हो जाने पर रानीपुर से महाबीर मिस्त्री आते तो हम उनको पाना, रिंच, प्लास पकड़ाते रहते। गांव में कहीं रामायण (रामचरितमानस) का अखंड पाठ होता तो लाउडस्पीकर वाले के साथ ‘हेलो-हेलो माइक टेस्टिंग’ भी कर लेते थे।

सन 1990 की बात है। तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। लालगंज बैसवारा में रायबरेली-कानपुर रोड पर हमारे घर का निर्माण हो रहा था। एक दिन विद्यालय से आया तो राजमिस्त्री स्वर्गीय बहादुर यादव बाबा बड़ी तल्लीनता से पश्चिम की तरफ वाली दीवार में अलमारी बना रहे थे। वह कभी डोरी (सूत) लेकर दीवार की सिधाई नापते, कभी कन्नी से थोड़ी सीमेंट दीवार पर छप्प से चिपका देते और फिर रूसा से उसे समतल और बराबर कर देते।

राजमिस्त्री बहादुर यादव बाबा हमारे पड़ोसी गांव के थे। वह अपने कार्य में जितना निपुण थे उतने ही विनम्र स्वभाव के भी थे। उनसे कुछ भी पूछो तो वह बड़े विस्तार से बताते थे। उनके हाथ चलते रहते और वह भवन निर्माण का “क ख ग” भी हमें सिखाते रहते थे।

उस दिन मैं काफी देर तक उन्हें काम करते हुए देखता रहा। फिर कुछ देर बाद पास में पड़ी एक गंदी सी बोरी के ऊपर बैठ गया। बहादुर बाबा की पीठ मेरी तरफ थी। अलमारी के कोनों को बराबर करने के बाद वह कन्नी से सीमेंट उठाने के लिए पीछे रखे तसले की ओर मुड़े और मुझे बोरी में बैठा देखकर एकदम से भड़क गए।

“तुम वहि बोरिया के ऊपर कइसे बैठि गैव। तुरंते उठि जाव नहीं तो बेजा होइ जाई।” (तुम उस बोरी के ऊपर कैसे बैठ गए। तुरंत उठ जाओ, नहीं तो बुरा हो जाएगा।)

बहादुर बाबा का यह रौद्र रूप मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था। हम सभी बच्चों से वह हमेशा शालीनता से बात करते थे। यहां तक कि पापा से भी पैसे-रुपए का हिसाब करते समय भी शांत ही रहते थे। उनकी डांट सुनकर मैं एकदम से उठ तो गया लेकिन मुझे अपना अपराध समझ नहीं आया। मैं मन ही मन सोचने लगा कि आखिर इस गंदी बोरी में ऐसा क्या था जो बहादुर बाबा ‘भगवान राम’ से सीधे ‘परशुराम’ बन गए??

कुछ देर तो मैं सन्न खड़ा रहा। फिर हिम्मत जुटाकर उनसे पूछ ही लिया- “बाबा इस बोरी में ऐसा क्या है कि आप इतना अधिक क्रोधित हो गए??”

तब तक बहादुर बाबा भी कुछ शांत हो चुके थे। वह अपने उसी पुराने अंदाज में प्यार से बोले- “जइसे तुमई तँई कॉपी-किताबें पवित्र हैं, वैसनै हमईं तईं हमारि औजार पवित्र हैं। तुम जउने बस्ता मां उनका रक्खति हौ, वहिके ऊपर कभो बैठति हौ का?? (जैसे तुम्हारे लिए कॉपी-किताबें पवित्र हैं, वैसे ही मेरे लिए मेरे औजार पवित्र हैं। तुम जिस बैग में किताबें रखते हो, क्या कभी उसके ऊपर तुम बैठते हो?)

मैंने कहा- “नहीं बाबा, कभी नहीं। कभी गलती से पैर लग भी जाए तो पैर छूकर क्षमा मांगता हूं।”

फिर बहादुर बाबा के हाथ पहले की तरह तल्लीनता से दीवार पर चलने लगे और वह मुझे हिंदी में समझाते रहे- “हथौड़ी, कन्नी, रूसा, डोरी आदि हमारी किताबें हैं और यह बोरी हमारा स्कूल बैग है। जैसे विद्यार्थियों की देवी मां सरस्वती हैं, बनियों की की देवी मां लक्ष्मी हैं, शक्ति की आराधना करने वालों की देवी मां काली है, कुंआरों और पहलवानों के आराध्य बजरंगबली हैं; वैसे ही तकनीकी कार्य करने वालों के आराध्य भगवान विश्वकर्मा हैं।

जिस तरह तुम पढ़ाई शुरू करने से पहले मां सरस्वती का आशीर्वाद लेते हो और सरस्वती पूजा के दिन पाठ्य पुस्तकों, लेखनी और देवी सरस्वती की पूजा करते हो; वैसे ही राजमिस्त्री, लुहार, बढ़ई, इंजन-गाड़ी बनाने वाले मिस्त्री, कारखाने में कार्य करने वाले तकनीशियन और इंजीनियर आदि भी अपना कार्य शुरू करने से पहले भगवान विश्वकर्मा का आशीर्वाद लेते हैं और 17 सितंबर यानि विश्वकर्मा दिवस के पावन दिन अपने सभी औजारों और उपकरणों की पूजा करते हैं और भगवान विश्वकर्मा की भी पूरे विधि विधान से आराधना करते हैं।”

बहादुर बाबा जैसे भगवान विश्वकर्मा के तमाम सच्चे शिष्यों और संपूर्ण सृष्टि के निर्माता माने जाने वाले स्वयं भगवान विश्वकर्मा को ‘विश्वकर्मा दिवस’ के पावन पर्व पर सादर नमन।

Vinay Singh
विनय सिंह बैस, लेखक

(विनय सिंह बैस)
भगवान विश्वकर्मा के एक अदने से शिष्य

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