विनय सिंह बैस की कलम से : लोक गायिका शारदा सिन्हा

नई दिल्ली। बैसवारा में छठ नहीं मनाई जाती, भोजपुरी और मैथिली भी नहीं बोली जाती। इसलिए भोजपुरी और मैथिली की प्रख्यात लोकगायिका स्वर्गीय शारदा सिन्हा को मैंने बहुत देर से जाना। उनकी जादुई आवाज मैंने पहली बार 90 के दशक में फ़िल्म “मैंने प्यार किया” के गाने- “कहे तोसे सजना ओ तोहरी सजनिया” में सुनी।

वैसे तो इस फ़िल्म का कथानक, गीत, संगीत, नवोदित नायक-नायिका, बाला सुब्रमण्यम की मर्दानगी भरी नायक पर बिल्कुल फिट बैठती आवाज, सभी कुछ ताज़े हवा के झोंके से आये और दर्शकों को अपने आगोश में लेते चले गए, सम्मोहित करते गए। फ़िल्म सुपर-डुपर हिट साबित हुई थी।

मैं उस समय किशोर था, नव युवा था। मैं भी इस फ़िल्म से, इसके सम्मोहन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। विशेषकर इस फ़िल्म के गाने- “कहे तोसे सजना, ओ तोहरी सजनिया” ने तो मेरे ऊपर जादू सा कर रखा था।

इस गीत को स्वर देने वाली शारदा सिन्हा जी की गैर पारंपरिक आवाज जब संगीत के धुनों के बाद उभरती है तो बॉलीवुड म्यूजिक के मेलोडी के बने बनाए खाके से इतर श्रोताओं के कानों में एक ऐसा सोंधा स्वाद छोड़ जाती है जिसमें भदेसपन अपने चरम पर होता है।

बॉलीवुड की सिरमौर गायिका लता जी की आवाज में अद्वितीय सुरीलापन था, आशा जी की आवाज़ में शरारत भरी शोखी थी किंतु शारदा सिन्हा जी की आवाज़ इन दोनों से अलग धरती पर पड़ी बारिश की पहली बूंद से उठी सुवास की तरह श्रोताओं के मन मष्तिष्क पर स्थायी प्रभाव छोड़ जाती है।

शारदा जी की आवाज आम फिल्मी गायिकाओं से बिल्कुल अलग थी, लीक से हटकर थी। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश उन्हें दशकों से सुनते आ रहे थे। वह उस समय भी भोजपुरी और मैथिली बोलियों की नामी लोक गायिका थी। कहते हैं कि महापर्व छठ शारदा सिन्हा के गीतों के बिना पूरा हो ही नहीं सकता। एक लोकगायिका की लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या हो सकता है।

लेकिन बैसवारा का होने के कारण मैं उनकी इस प्रतिभा से पूरी तरह अपरिचित था। मैंने इस गीत में पहली बार उनकी विलक्षण आवाज सुनी थी। उनके स्वर में विशिष्टता थी, देसीपन था। उनकी आवाज उस समय की ख्याति प्राप्त बॉलीवुड गायिकाओं की तरह रेट्रो, मेलोडी और क्लासिकल, सेमी क्लासिकल के दायरे से परे एक देसी खुरदुरेपन सी थी जिसका पके शहतूत सा खट्टा- मीठा स्वाद धीरे धीरे मगर देर तक कानों में घुलता रहता है। उनकी आवाज में अपनापन था मानो कि हमारे घर गांव के किसी शादी-ब्याह में अपनी ही कोई चाची, मौसी, भाभी गा रही हों।

यह गीत इसलिए भी अधिक कर्णप्रिय बन पड़ा है क्योंकि संगीतकार राम-लक्ष्मण ने गीत और गायिका के अनुरूप धुनों में भी देसीपन ही रखा। ढोलक जैसे देसी वाद्य का प्रमुखता से उपयोग करके उन्होंने इस गीत की आत्मा में लोक का संगीत, देसीपन का भाव भर दिया।

इस शाहकार गीत के बोल भी उतने ही अर्थपूर्ण हैं जितना कि स्वर और संगीत। गीत के बोलो में नायिका को नायक की फिकर है- ‘पल पल लिए जाऊं तोहरी बलैयां’,
निःस्वार्थ प्रेम है- ‘मोहे लागे प्यारे सभी रंग तिहारे’,
पूर्ण समर्पण है- ‘मांग का तोहे सिंदूर मानूँ, तू ही चूड़ियां मेरी, तू ही कलइयां’,
मासूमियत है- ‘मैं जग की कोई रीत न जानूं’
और लज्जा भी है-‘लाज निगोड़ी मेरी रोके है पैंया।’

पुरबी भाषा की मिठास, शारदा सिन्हा की अनूठी आवाज, देव कोहली के सार्थक गीत, ढोलक के शानदार संयोजन से सजा राम-लक्ष्मण का संगीत और इस फ़िल्म के माध्यम से पदार्पण कर रही भाग्यश्री के अनदेखे, अनछुए सौंदर्य और भावपूर्ण अभिनय ने इस गीत को श्रोताओं के दिलोदिमाग में हमेशा के लिए स्थापित कर दिया है, इसे कालजयी बना दिया है। ऐसा मणिकांचन संयोग वर्षों में एक बार घटित होता है।

इस एक पवित्र, निष्कलुष पुरबी गीत को पूरे भाव और तल्लीनता से सुनने पर आजकल के सैकड़ों अश्लील लोक गीतों को अनायास सुनने का पाप धुल जाता है।

करोड़ों लोगों के पाप धुलने वाली, भोजपुरी और मैथिली लोक गीतों की स्वर कोकिला, छठ पर्व का पर्याय बन चुकी ‘मां’ शारदा सिन्हा को छठ मैया ने कल छठ के दिन ही अपने पास बुला लिया है।
‘मां’ का शरीर जरूर चला गया है लेकिन इस धरा पर जब तक बिटिया बिहाई जाती रहेंगी, पिया परदेश जाते रहेंगे, ननदी नटखटापन करती रहेगी और महापर्व छठ मनाया जाता रहेगा, तब तक ‘मां’ याद आती रहेंगी। उनकी पवित्र, खांटी देसी आवाज फिजाओं में गूंजती रहेगी।

(विनय सिंह बैस)
‘मां’ के मानस पुत्र

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