विनय सिंह बैस की कलम से : बैसवारा का जेठुआन!!

विनय सिंह बैस, रायबरेली। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘देवउठनी एकादशी’ या ‘हरि प्रबोधिनी एकादशी’ कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि चार माह तक भगवान विष्णु योग निद्रा में रहते हैं। सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार इन चार महीनों में कोई मांगलिक कार्य नहीं होता है। देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु योग निद्रा से बाहर निकलकर सृष्टि के पालनहार का दायित्व पुनः संभालते हैं और इस दिन से मंगल कार्य आरंभ हो जाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है। मान्यता है कि इस एकादशी के व्रत से हजारों अश्वमेघ और सैकड़ों राजसूय यज्ञों के बराबर फल प्राप्त होता है। व्रत करने वाली स्त्री को वीर, पराक्रमी पुत्र की प्राप्ति होती है। यह व्रत पापनाशक, पुण्य वर्धक और ज्ञानियों के लिए मुक्तिदायक माना जाता है।

देवउठनी एकादशी के दिन कई जगह तुलसी विवाह आयोजित किया जाता है। इस दिन तुलसी की के पौधे की भगवान विष्णु के प्रतीक शालिग्राम से विवाह कराया जाता है। महाराष्ट्र में तुलसी विवाह पूरे चार दिन चलता है और किसी छोटे बच्चे को भगवान विष्णु का प्रतीक मानकर उसका तुलसी के पौधे से विधिवत विवाह कराया जाता है। इसके पश्चात घर-परिवार, इष्ट मित्रों, नजदीकी रिश्तेदारों आदि के लिए भोज का भी प्रबंध भी होता है। हमारे क्षेत्र में भी तुलसी विवाह होता है लेकिन यह कार्तिक मास की पूर्णमासी को होता है।

बैसवारा क्षेत्र में इस पवित्र एकादशी को ‘जेठानी एकादशी’ या ‘जेठुआन’ कहते हैं। इस दिन महिलाएं सुबह-सुबह मुंह अंधेरे बिना किसी से बात किए घर के प्रत्येक कमरे, दहलीज, आंगन में सूप पीटते हुए कहती हैं- “दलिद्दर जाव, ईश्वर आव” (दरिद्र जाओ, ईश्वर आओ)।

फिर महिलाएं सूप को घर के बाहर किसी स्थान पर रख देती हैं। अगर सूप टूटा हुआ या बेकार होता है तो उसे वहीं से बाहर फेंक दिया जाता है। अगर यह प्रयोग करने लायक या नया होता है तो उसे बाद में धुलकर घर में वापस ले आते हैं।

इस दिन बच्चे तिल्ली की पंजी (तिल निकालने के बाद तिल का सूखा हुआ पौधा) का बंबू बनाकर या साइकिल का टायर जलाकर दौड़ लगाते हैं और जोर से चिल्लाते हैं :- “अलाय बलाय तलाय। फलाने के घर जाए।”

बैसवारे में इस दिन गन्ने की पूजा का भी विधान है। ऐसा माना जाता है कि गन्ने की पूजा करने से घर-परिवार में गुड़ की तरह मिठास बनी रहती है। पूर्वजों का ऐसा मानना था कि जेठुआन से पहले ऊँख (गन्ना) खेत से नहीं काटना चाहिए क्योंकि उस समय तक ऊँख कच्ची होती है, उसमें मिठास नहीं होती है। मुझे याद है कि जेठुआन के दिन बचपन में बाबा एक थाली में गुड़, घी, अगिआर (कंडे की आग) और एक चांदी की पायल लेकर गन्ने के खेत तक जाते थे। वहां पर एक कोने में गुड़, घी और आग से गन्ने की पूजा करते थे। फिर चांदी की पायल गन्ने पर छुआते थे और गन्ने की अच्छी फसल के लिए ईश्वर से कामना करते थे।

पूजा संपन्न होने के बाद वह घर भर के लिए काफी गन्ने खेत से लाते थे। मोहल्ले के जिन घरों में गन्ने की खेती नहीं होती थी, उन घरों के लिए दो गन्ने अलग से लाया करते थे। हम बच्चे लोग घर पर बाबा का इंतजार करते रहते थे। वह जैसे ही आते, हम गन्ने पर टूट पड़ते। बाबा सबसे पहले गन्ने का अगौरा (आगे का पत्ती वाला भाग) तोड़कर घर की छत या छपरा पर फेंक देते। फिर गन्ना हमें मिल जाता और हम उसे पूरा खत्म होने तक खूब चाव से चूसते। बाद में चिफुरा (गन्ने के छिलके) को नाक के पास लाकर खूब जोर से सूंघते। इसकी गंध तो मनमोहक थी ही, साथ ही ऐसी मान्यता थी कि चिफुरा सूंघने से जुकाम दूर भाग जाता है। इस तरह जेठुवान पर्व में महिलाओं, बच्चों और बुजुर्ग सभी की भागीदारी हुआ करती थी।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

बहुत समय पहले हमारे परिवार के किसी सदस्य की जेठुवान के दिन मृत्यु हो गई थी। इसलिए यह त्योहार हमारे घर में खंडित हो गया था। तब से महिलाओं द्वारा सूप पीटने वाला कार्यक्रम नहीं होता था। खंडित त्यौहार पुनः मनाए जाने के लिए उसी दिन घर में किसी लड़के या गाय के बछड़े का जन्म लेना जरूरी होता है। (यहां लिंग भेदभाव है, लड़की या बछिया पैदा होने से त्यौहार खंडित ही रहता है)।

मेरा जन्म कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष दशमी को शाम चार बजे हुआ था। अम्मा एक बार मुझसे कहने लगी कि अगर तुम एकादशी को पैदा होते तो यह त्यौहार हमारे घर मे पुनः मनाया जाने लगता।
मैं बस इतना ही कह पाया- “अम्मा, इस जीवन में जन्म से लेकर अब तक मेरी टाइमिंग कई जगह गलत रही है। लेकिन जिस परिवार, जिस जाति, धर्म और देश में मेरा जन्म हुआ, उसकी टाइमिंग से मैं बेहद संतुष्ट हूं। मैं अपने को अत्यंत सौभाग्यशाली समझता हूं।”

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