आशा विनय सिंह बैस की कलम से : धान की खेती की यादें

रायबरेली। जेठ के महीने में ही इंजन (ट्यूबबेल) के पास वाली डेबरी (छोटे खेत) में इंजन से पानी भर दिया गया है। तीन-चार दिन बाद ओंठि हो गई है यानि खेत अब जोतने योग्य हो गया है। आज बड़े वाले बैल की गोई (जोड़ी) से खेत की जुताई हो रही है। खेत के कोनों को फरुहा (फ़ावड़ा) से गोंड़ (खुदाई) दिया गया है। सरावनि (लकड़ी का मोटा पटरा) से खेत को बराबर कर दिया गया है। खेत की जितनी खरपतवार, घास-दूब है उसे निकाल लिया गया है। अब खेत में पानी भर दिया गया है। पानी भरे हुए खेत में दो-तीन बार अमिला (जुताई और पटाई) दे दिया गया है। अब खेत की मिट्टी बिल्कुल मुलायम हो गई है। खेत धान बोने के लिए बिल्कुल तैयार है।

आज आषाढ़ का पहला दिन है। भाई बाबा ने दो-तीन दिन पहले से घर में फूल रहे धान को खेत में ले आए हैं। धान बोने से पहले पूरे खेत के पानी को खूब गंदा कर दिया गया है ताकि जब धान बो दिए जाएं तो इस गंदे पानी की परत धान के बीज के ऊपर चढ़ जाए और पक्षियों को ऊपर से धान न दिखे और वह इसे चुग न सके। अब बाबा धान को एक बड़ी टोकरी में लेकर पहले खेत को झुक कर प्रणाम करते हैं, भगवान का नाम लेते हैं और फिर धान को दाहिने हाथ से पूरे खेत में बिथराते चले जा रहे हैं। धान की बुआई हो रही है।

खेत का पानी गंदा करने के बावजूद शुरुआत के 1 हफ्ते पक्षियों से धान की निगरानी करनी ही पड़ती है। यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि नीलगाय, गाय या भैंस खेत में पानी पीने के लिए या गर्मी से राहत पाने के लिए घुस न जाएं। नहीं तो उनके खुर के निशान जहां पड़ जाएंगे उस स्थान पर बेंड़ न उगेगी।

आज धान बोए हुए पूरा एक हफ्ता हो गया है। धान से छोटी-छोटी हरी मुलायम कोंपले बाहर निकलने लगी हैं। अब पक्षियों का डर नहीं रहा, बस जानवरों का ध्यान रखना है। आज पूरे 25 दिन हो गए हैं। अब बेंड़ पूरी तरह रोपने के लिए तैयार है।

भाई बाबा पासिन टोला, गुड़ियन का पुरवा, अहिरन का पुरवा में 15 मजूरों (मजदूरों) की गिनती कल और परसों के लिए कर आए हैं। आज सुबह से घर के लोग, सुंदर बाबा, हिरऊ बाबा सरावनि में बैठकर बेंड़ उखाड़ने लगे हैं। बेंड़ के एक-एक पौधे को जड़ से उखाड़ कर मूठी (मुट्ठी) भर जाने पर उसकी जोरई (जूरी) बनाकर पीछे रखते जा रहे हैं।

जैसे-जैसे बेंड़ उखड़ती जा रही है, खेत खाली होता जा रहा है और सरावनि आगे बढ़ती जा रही है। अब एक झौआ से अधिक बेंड़ की जूरी तैयार हो गई है। उसे लेकर चाचा धान रोपने के लिए तैयार बड़े वाले खेत ‘बीजर’ में पहुंच गए हैं। एक छोटे छीटा (टोकरी) में बेंड़ लेकर मैं भी उनके पीछे-पीछे पहुंच गया हूं। चाचा बेंड़ को पूरे खेत में कुछ कुछ फासले पर फैलाते जा रहे हैं ताकि मजूरों को बेंड़ लगाते समय इधर उधर न भागना पड़े।

अब बेंड़ लगाने वाली मजूरों की टोली आ चुकी है। सभी महिलाएं हैं। हंसी मजाक करती महिलाएं अपनी धोती को घुटनो तक समेट कर पानी भरे खेत में प्रवेश कर चुकी हैं। राम का नाम लेकर उन्होंने बेंड़ की जूरी खोली और अब एक-एक धान का पौधा सधे हाथों से बराबर दूरी पर रोपना शुरू कर दिया है। मैं महिलाओं के पीछे-पीछे उन्हें बेंड़ देते जा रहा हूँ। जहां बेंड़ ज्यादा हो जाती या बच जाती, वहां से हटाते जा रहा हूँ और जहां कम होती वहां पर बेंड़ रखते जा रहा हूँ।

अब महिलाओं ने सावन का गीत सामूहिक स्वर में गाना शुरू कर दिया है-
“चला सखी रोपि आई खेतवन में धान, बरसि जाई पानी रे हारी..”,
एक महिला गीत की पहली पंक्ति गाती है और बाकी महिलाएं उसके पीछे दुहराती जा रही हैं। उनके गीतों में देसी पन है, स्वरलय भी कभी गड़बड़ हो जाता है लेकिन भाव बिल्कुल शुद्ध, सात्विक हैं। भगवान इंद्र भी शायद ही उनकी इस निर्दोष जन हितकारी मांग को ठुकरा पाएं। बीच-बीच में वे एक दूसरे से चुहलबाजी भी करती जा रही हैं।

अरे यह क्या? मैंने जोर से बेंड़ उठा कर महिलाओं के पीछे फेंक दी। पानी का छिट्टा दो महिलाओं पर गिरा, वे मुझे घूरने लगी। चाचा ने मुझे जोर से डांटा। बेंड़ ऐसे दूर से नहीं फेंकनी है, वहां पास जाकर रखना होता है। इनके कपड़े गीले हो गए तो यह लोग दिनभर इन्हीं गीले कपड़ों में कैसे काम करेंगी? यह उनका रोज का काम है। बीमार हो जाएंगी। खैर महिलाओं ने ज्यादा बुरा नहीं माना। बच्चा समझकर मुझे माफ कर दिया और फिर से अपने काम में जुट गई हैं।

अब दोपहर होने को है। बाबा खुद घर की तरफ जा रहे हैं और मुझे अपने साथ ले गए हैं। वहां गेंहू और चना उबालकर और उसमें थोड़ा लोन (नमक) डालकर बनाई हुई घुघरी अजिया ने बनाकर पहले से तैयार रखी हुई है। उसके साथ हरी धनिया, हरी मिर्च को मिलाकर सिलवट (सिलबट्टे) में पीसा हुआ नमक भी तैयार है।

अब बाबा एक बड़ी डलिया में कपड़े के ऊपर घुघुरी डालकर, डलिया को पूरा भर दिए हैं और फिर उसी कपड़े से घुघुरी को पूरा ढककर खेत की ओर चल पड़े हैं। उनके वहां पहुंचते ही महिलाएं हाथ-पैर धोकर मेंड़ पर बैठ गई हैं। बाबा उन्हें अपनी अजूरे (दोनों हाथों) से भर-भर कर घुघुरी देते जा रहे हैं। महिलाएं अपने आंचल में इसे लेती जा रही हैं। दोबारा मांगने पर भी बाबा मना नहीं करते, हंस-हंसकर देते जा रहे हैं।

हाथ से नमक देने और लेने से लड़ाई होती है, मनमुटाव होता है इसलिए महिलाएं कागज में या किसी साफ पत्ते में चम्मच से नमक ले रही हैं। अरे यह क्या मैंने रूपा को हाथ से नमक दे दिया, अब उसे चुटकी काटनी पड़ेगी। नहीं तो लड़ाई हो जाएगी। दुनिया में बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन होंगे। लेकिन बदरी (बादल) वाले मौसम में आषाढ़ के महीने में खूब तेज भूख लगने पर खेत की मेड़ पर बैठकर घुघुरी खाने का जो स्वाद है वह अकल्पनीय है,अद्भुत, दैवीय है।

अब बाबा ने कुछ देर के लिए इंजन चला दिया है। सब महिलाएं इंजन की हौदी से ताज़ा पानी पीकर पुनः बेंड़ रोपने लगी है। उनका गाना भी बदस्तूर जारी है –
“हरी हरी काशी रे, हरी हरी जवा के खेत।
हरी हरी पगड़ी रे बांधे बीरन भैया,
चले हैं बहिनिया के देस।
केकरे दुआरे घन बँसवारी,
केकरे दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो।
बाबा दुआरे घन बंसवारी,
सैंया दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो।”……

अब सूरज ढलने को है। खेत भी थोड़ा ही बचा हुआ है। बाबा खेत में आ गए हैं। संयोग देखिए कि शाम होने से पहले ही पूरे खेत में बेंड़ लग गई है। अब महिलाएं हाथ-पैर धोकर बाबा को घेर कर खड़ी हो गई हैं। बाबा उन्हें 7-7 रुपए देते जा रहे हैं। रूपा की अम्मा, उसकी बहन और वह खुद भी आई है इसलिए रूपा की अम्मा को पूरे 21/- रुपये मिले हैं, सबसे ज्यादा।

सबका हिसाब करने के बाद बाबा ने याद दिला दिया है कि कल भी सब लोगों को आना है, बलदुआ खेत में बेड़ लगाने के लिए। थकी-हारी लेकिन संतुष्ट महिलाएं अपने घर जा रही हैं। रूपा भी मुझे कनखियों से एक बार और देखकर अपनी अम्मा के साथ घर जा रही है, कल फिर से आने के लिए।

(आशा विनय सिंह बैस)
गांव-बरी, जहां पहले सिर्फ धान पैदा होता था।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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