आशा विनय सिंह बैस की कलम से : सावन के महीने में बहू-बेटियों के मायके आने की परंपरा

रायबरेली। सावन के महीने में बहू-बेटियों के मायके आने की सदियों पुरानी परंपरा रही है। परंपरा यह भी रही है कि बहन-बेटियों का अपने आप या ससुराल पक्ष के किसी सदस्य के साथ मायके आना ठीक नहीं समझा जाता है। अमूमन कोई मायके वाला ही विदा कराने जाता है। बहनों को विदा कराने के लिए अक्सर उनके भाई और बुआ को विदा कराने के लिए भाई या भतीजे जाते रहे हैं।

पिता/चाचा सामान्यतः बेटियों को विदा कराने नहीं जाते क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जिसके पैर पूज लिए, फिर उसके घर में पानी भी नहीं पीना चाहिए। किसी परिस्थिति में अगर पिता या चाचा को बिटिया को विदा कराने जाना ही पड़े तो वह बिटिया के गांव के किसी अन्य रिश्तेदार या उस गांव में ब्याही गई गांव-जवार की किसी अन्य लड़की के यहां भोजन कर लेते थे। इस तरह परंपरा का निर्वाह भी हो जाता था और पिता चाचा को भूखे पेट सोना भी नहीं पड़ता था।

समस्या तब हुई जब हमारे ससुर जो कि दिखित राजपूत हैं, उन्होंने हम बैसों के यहां अपनी बिटिया की शादी कर दी। दिखित राजपूत मुख्यतः बांदा, फतेहपुर जिले में पाए जाते। इनका निकास वहीं से है। पुरानी hierarchy के अनुसार यह लोग अपने को बैसों से काफी बड़ा ठाकुर मानते हैं। किवदंती यह है कि कभी किसी दिखित लड़की की किसी बैस नवयुवक ने आताताइयों से रक्षा की थी। तब से दिखिताना (गदागंज के आसपास का क्षेत्र) के दिखित बैसों के यहां शादी करने लगे।

मेरे पूरे परिवार बल्कि मेरे पूरे गांव में, मैं पहला व्यक्ति हूं जिसकी शादी दिखित राजपूतों के यहां हुई है। मेरी शादी के कुछ सालों बाद तक मेरी श्रीमती जी को विदा कराने उनके भाई वगैरह ही आते रहे। एक बार ऐसा संयोग हुआ कि मेरे ससुर जी विदा कराने तो नहीं लेकिन अपनी बेटी से मिलने हमारे घर यानि लालगंज बैसवारा मुंबई से आए थे। अब वह ठहरे पुराने परंपरावादी आदमी इसलिए बेटी के घर पानी तो किसी तरह पी लिया लेकिन इस बात पर अड़ गए कि भोजन तो नहीं करूंगा। अब उनके साथ समस्या यह थी कि आस- पास उनके गांव कि कोई दिखित लड़की भी नहीं थी जिसके घर में वह भोजन कर लें। उनकी बहन का घर काफी दूर था।

दूसरा विकल्प यह था कि होटल/ढाबे से खाना मंगा लिया जाए। इस बात पर चर्चा हो ही रही थी कि इस गंभीर समस्या का समाधान कैसे किया जाए। तब तक मैं पहुंच गया और ससुर जी से पूरे सम्मान से कहा कि यह बहुत अच्छी बात है कि मुंबई जैसे अल्ट्रा मॉडर्न सिटी में रहते हुए भी आप परंपरा को मानते हैं। फिर आप इस बात को भी मानिए कि होटल/ढाबे का बासी भोजन करने के बजाए आप घर में ही भोजन करो और उसका भुगतान कर दो। आप यह मान लीजिए कि आपने होटल में खाना खाया है। इस बात पर सहमति बन गई।

सुबह जब ससुर जी जाने लगे तो श्रीमती जी से पूछने लगे कि भोजन के लिए कितना पैसा देना ठीक रहेगा। श्रीमती जी बोली ₹100 दे दीजिए। मैं बगल में ही खड़ा था और तपाक से बोल पड़ा- “बोर्डिंग, लॉजिंग दोनों का चार्ज पड़ेगा। गांधी जी वाले नोट (500 रुपये) से कम में भला कैसे बात बनेगी।”

ससुर जी श्रीमती जी को देख कर मुस्कुराते हुए बोले-“बिटिया तुम तो कहती थी कि ‘इनको’ पैसे का कोई लालच नहीं है।”

श्रीमती जी बोली- “मैं तो अब भी कहती हूँ कि ‘इन्हें’ पैसों का कोई लालच नहीं है। लेकिन ‘दिखितों’ को देखते ही इनके अंदर का ‘बैस’ जाग उठता है।”

(आशा विनय सिंह बैस)
जिनकी शादी दिखितों के यहां हुई है

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