
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । खुशी की उम्र चार दिन की होती है, नकली खुशी की चार घण्टे की भी नहीं। जल्द ही मुखौटा उतर जाता है। यह एक लगभग झूठी बात है कि खुश रहना एक निर्णय है और इसी तरह यह बात भी कि खुशी ढूँढी जा सकती है। दरअस्ल, खुशी स्थिति है, प्रक्रिया नहीं। मगर खुशी एक बार छिन जाए तो यह गाम को जरूर एक प्रक्रिया बना सकती है, प्रक्रिया भी ऐसी अन्तहीन प्रक्रिया, जो अन्त में कुछ निर्मित नहीं करती।
खुद को व्यस्त रखना खुश रहने का एक तरीका बताया जाता है, मगर व्यस्तता, खुशी नहीं। ज्यादा से ज्यादा यह दुःख की अनुपस्थिति है, मगर खुशी नहीं। व्यस्तता, दुःखों से पलायन का एक रास्ता है। दुःखों की अनुपस्थिति खुशी की प्रत्याभूति नहीं है।
‘हँसी-खुशी’, शब्दयुग्म अक्सर प्रयोग में लाया जाता है, मगर दोनों में पर्याप्त अंतर है। आप, हँस तब भी सकते हैं जब आप खुश न हों। आप किसी को बहलाने के लिए हँस सकते हैं, झुठलाने के लिए हँस सकते हैं, चिढ़ाने के लिए हँस सकते हैं, अस्ल में हँसी आने पर भी हँस सकते हैं। पर इस सबका खुशी से कोई सीधा ताल्लुक नहीं। बल्कि, आपके हँस चुकने के बाद, मूल खुशी की रिक्तता दुगुनी तीव्रता के साथ आपको ग़मगीन बना देती है। और, फिर मुमकिन है कि रोते रोते आप एक बार फिर से हँस पड़ें। मगर ये खुशी नहीं है। ‘हँसी’ और ‘खुशी’ दोनों की यात्राएँ एकदम विपरीत भी हो सकती हैं।
“दूसरों की खुशी में खुश होना”, ये बात भी एक भ्रम है। दूसरों की खुशी में खुश नहीं हुआ जाता बल्कि अपने ग़म के विरेचन की तलाश की जाती है। औरों की खुशी आपको चिढ़ दे सकती है, तसल्ली दे सकती है, शैथिल्य दे सकती है, उम्मीद दे सकती है, मगर खुशी नहीं दे सकती।
‘खुशी की रिक्तता’, ‘ग़म के भराव’ से ज्यादा दुःखदायी होती है। ग़म के साथ, उदासी के साथ जीना फिर भी स्वीकार किया जा सकता है, मगर खुशी के बगैर जीना इंसान कभी स्वीकार नहीं कर पाता। उस खुशी का ख़ालीपन किसी भी चीज़ से खुद को भरने की अनुमति नहीं देता, किसी दूसरी ख़ुशी से भी नहीं। यह रिक्तता सुईं की तरह चुभती रहती है, कभी खंजर की तरह गड़ती रहती है।
खुशी की उम्र चार दिन की होती है, पर खुशी की रिक्तता की उम्र बहुत लम्बी हो सकती है।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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