वर्ल्ड टॉयलेट डे’ के प्रणेता- डॉ. बिंदेश्वर पाठक

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने ‘स्वच्छता ही ईश्वरीय आराधना है।’- महात्मा गाँधी जी के इस महान उक्ति को यथार्थ स्वरूप प्रदान किया है। ‘सुलभ शौचालय संस्थान’ के जनक और उसी से संबंधित अनगिनत राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित बिहार के लाल डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने। ‘सुलभ इंटरनेशनल’ के द्वारा मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों और सफाई-कर्मियों जैसे उपेक्षित जनों की शिक्षा के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्रों में एक विश्वस्तरीय क्रांति की पहल करने वाले महान व्यक्तित्व डॉ. बिन्देश्वर पाठक ही थे। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि जब देश हर्षोल्लास के साथ अपना ७७वाँ स्वतंत्रता दिवस (२०२३) मना रहा था, उसी समय ८० वर्षीय स्वच्छता और मानवता के पुजारी डॉ. बिन्देश्वर पाठक इस संसार को हमेशा के लिए विदा कहकर परलोक गमन किए।

स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित डॉ. बिन्देश्वर पाठक का जन्म बिहार प्रान्त के वैशाली जिला के रामपुर बघेल नामक ग्राम के एक पारंपरिक ब्रह्मण परिवार में २ अप्रेल १९४३ में हुआ था। उनके पिता आयुर्वेदाचार्य और दादा ज्योतिषाचार्य थे। प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम की ही पाठशाला से पूर्ण कर उच्च शिक्षा के लिए पटना चले गए और वहीं से उन्होने १९६४ में समाज शास्त्र में स्नातक की परीक्षा पास की। १९८० में उन्होने पटना से ही स्नातकोत्तर तथा १९८५ में पटना विश्वविद्यालय से बिहार में कम लागत की सफाई-प्रणाली के माध्यम से सफाई-कर्मियों की मुक्ति (लिबरेशन ऑफ स्कैवेन्जर्स थ्रू लो कास्ट सेनिटेशन इन बिहार) विषयक शोध-प्रबंध पर अपना ‘पीएचडी’ कर ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि अर्जित की।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और पले-बढ़े होने पर भी अपने परिजनों और रिश्तेदारों की इच्छा के विरूद्ध अपनी तरुणाई १९६८ से ही भंगी के ‘मानव अपशिष्ट निपटान’ जैसे सभ्य समाज द्वारा उपेक्षित कार्य और लोगों की उपेक्षा से उत्पन्न उनकी पीड़ा को महसूस किया। फिर कालेज के विद्यार्थी की अवस्था में ही महात्मा गाँधी जी के हरिजन सेवा और स्वच्छता कार्य से प्रभावित होकर ही उन्होंने ‘भंगी मुक्ति और स्वच्छता के लिए सर्वसुलभ संसाधन’ जैसे विषय को अपने अध्ययन के विषय के रूप में चुना और इस दिशा में गहन शोध भी किया। फिर उन्होंने छुआछूत और मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ कार्य करने की ठानी।

पर्यावरण स्वच्छता और मानवीय स्वच्छता महात्मा गाँधी जी का सबसे प्रिय विषय था। वे अक्सर अपने भाषणों में कहा करते थे कि ‘स्वच्छता ईश्वरीय भक्ति के बाद और भोजन के पूर्व की आवश्यकता है।’ स्वच्छता के बारे में गाँधी जी के विचार स्पष्ट थे। ‘किसी को भी केवल अपनी आजीविका कमाने के लिए दूसरों के मल को साफ नहीं करना चाहिए और न ही उसे ढोना चाहिए। बल्कि मानव अपशिष्ट निपटान प्रणाली की कोई अचूक वैज्ञानिक पद्धति होनी चाहिए। जो लोग स्वच्छता के काम में लगे हैं, उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार न किया जाए। उन्हें समाज में मान-सम्मान मिलना चाहिए।’

सन् १९६७ में ही बिन्देश्वर पाठक ‘बिहार गाँधी जन्म शताब्दी समारोह समिति’ में एक प्रचारक के रूप में अपना सार्वजनिक कार्य-जीवन प्रारंभ किए। समिति के जनरल सेक्रेटरी सरयू प्रसाद ने डॉ. बिंदेश्वर पाठक को मानवाधिकारों और छुआछूत पर काम करने के लिए बिहार के बेतिया जिले में भेजा। बाद में इसी कार्य में रूचि लेते हुए उन्होंने मानवधिकार और छुआछूत निवारण कार्य को ही वास्तविक स्वरूप देने के लिए बिहार सरकार के मंत्री शत्रुघ्न शरण सिंह के सुझाव पर भंगी की दशा और दिशा को सुधारने के उद्देश्य से ही मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों और शिक्षा आदि के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्रों में विराट कार्य करने हेतु १९७० में एक सामाजिक सेवा संगठन ‘सुलभ इंटरनेशनल’ जैसी संस्था की स्थापना कर भारतीय इतिहास में ‘भिंगी मुक्ति और स्वच्छता’ संबंधित एक अद्भुत आंदोलन का शुभारंभ किया। जिसके कारण उन्हें घर-परिवार से लेकर अपने रिश्तेदारों तक का व्यापक विरोध का भी सामना करना पड़ा था।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक का ‘सुलभ शौचालय संस्थान’ अभियान बिहार के पटना से शुरू होकर बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि से होते हुए बहुत कम समय में ही पूरे देश भर में पहुँच गया। सन् १९८० में यह ‘सुलभ शौचालय संस्थान’ अपने विश्वस्तरीय व्यापक स्वरूप को प्राप्त कर ‘सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन’ के रूप में परिणत हो गया। फिर तो उनका यह अभियान न सिर्फ भारत में, बल्कि विदेशों में पहुँच गया। जब ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा इसे विशेष दर्जा प्रदान किया गया, तब यह अंतरराष्ट्रीय गौरव को प्राप्त कर विश्व भर की एक प्रमुख आवश्यकता बनकर अपनी विशेष ख्याति को प्राप्त किया।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने सुलभ शौचालयों के द्वारा बिना दुर्गंध वाली बायोगैस के प्रयोग की भी खोज की। इस सुलभ तकनीकि का प्रयोग भारत सहित अनेक विकाशसील देशों में भी होता है। उन्होंने सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में प्रयोग को भी प्रोत्साहित किया। उनके मानवतावादी सामाजिक और स्वच्छता संबंधित कार्यों को देखकर इसके प्रति समर्पित सामाजिक कार्यकर्तागण स्वयं ही उन्मुख हुए और फिर बाद में समयानुसार इनकी संख्या निरंतर बढ़ती ही गई। अब तो इस संस्था के पास ५०,००० से भी अधिक योग्य कार्यकर्ता हैं।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने स्वच्छता आंदोलन को तकनीकी सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से १९८४ में ‘सुलभ इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल रिसर्च एंड ट्रेनिंग’ (एसआईआईटीआरएटी) की स्थापना की। ‘एसआईटीआरएटी’ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की एक शानदार कार्य-दल है, जो अपने साथ कई नई और टिकाऊ प्रौद्योगिकियों के माध्यम से पर्यावरण और सामाजिक स्वच्छता के कार्य को संपादित कर रही है।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक जी ने अत्यंत ही कम लागत वाली पर्यावरण अनुकूल स्वच्छता के अलावा, जैव-ऊर्जा, जैव-उर्वरक, तरल और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, गरीबी उन्मूलन, एकीकृत ग्रामीण विकास आदि के क्षेत्रों में अपना अद्भुत योगदान दिया है । वह अपने आप में एक विराट सामाजिक वैज्ञानिक, एक इंजीनियर, एक प्रशासक और एक संस्था-निर्माता थे। परंतु उन्होंने अपनी इन सभी विशेषताओं का उपयोग दलित वर्गों को समृद्ध और सशक्त बनाने के लिए ही किया है।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक जी पारंपरिक रूप से अछूत कहे जाने वाले लाखों सफाई कर्मियों (मानव मल की सफ़ाई करने और ढोने वाले) के मानवाधिकारों और सम्मान की रक्षा हेतु एक राष्ट्रीय धर्मयुद्ध के प्रणेता रहे थे। एक ओर तो उन्होंने उन अछूत कहे जाने वालों सफाई कर्मियों को सामाजिक न्याय और सम्मान प्रदान करवाया, तो दूसरी ओर उन्होंने करोड़ों-अरबों भारतीय सहित विश्व आबादी को मानव अपशिष्ट का बेहतर निपटान प्रणाली प्रदान कर उन्हें स्वच्छ और सुरक्षित वातावरण भी प्रदान किया है। वास्तव में वह एक नई संस्कृति के अग्रदूत हैं, जो गरीबों को गले लगाती है और श्रम की गरिमा की प्रशंसा भी करती है । उन्होंने अबतक लाखों लोगों को मैला ढोने की कुप्रथा से बाहर ला चुके हैं । प्रतीत होता है कि उनका जन्म ही असहायों की मदद के लिए हुआ था ।

भारत सरकार ने डॉ. बिन्देश्वर पाठक को १९९१ में ‘पद्म भूषण पुरस्कार’ से सम्मानित किया। पोप जॉन पॉल द्वितीय ने १९९२ में उनको पर्यावरण के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस पुरस्कार’ से सम्मानित करते हुए उनकी सराहना की, ‘आप गरीबों की मदद कर रहे हैं।’ उनके मानवताजन्य तथा पर्यावरण संबंधित कार्य को सम्मानित करते हुए समयानुसार उन्हें अनगिनत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें ‘प्रियदर्शिनी पुरस्कार’, ‘एनर्जी ग्लोब पुरस्कार’, ‘इंदिरा गाँधी पुरस्कार’, ‘स्टाकहोम वाटर पुरस्कार’, ‘अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा संगठन’ (आईआरईओ) का ‘अक्षय उर्जा पुरस्कार’, ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ आदि का विशेष उल्लेखनीय है।

डॉ. बिन्देश्वर पाठक दिल्ली स्थित ‘सुलभ इंटरनेशनल कार्यालय’ में देश का ७७ वाँ ‘स्वतंत्रता दिवस’ (२०२३) समारोह में शामिल हुए और उन्होंने कार्यालय में तिरंगा का ध्वजारोहण कर उसे गर्वपूर्वक सलामी भी दी। फिर उसके कुछ समय बाद ही वह किसी कटे हुए पेड़ की भाँति अचानक से गिर पड़े। उन्हें तत्काल इलाज के लिए दिल्ली के ‘AIIMS’ में ले जाया गया, जहाँ दोपहर १.४२ बजे चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया । चिकित्सको ने उनकी मौत के लिए ‘कार्डियक अरेस्ट’ को ही कारण बताया।

आज डॉ. बिंदेश्वर पाठक द्वारा स्थापित ‘सुलभ शौचालय संस्थान’ के माध्यम से प्रतिदिन करीब दो करोड़ लोग स्वच्छ शौच और स्नान करते हैं। आज देश में १०,००० से अधिक सार्वजनिक शौचालय, १६ लाख से अधिक घरों में शौचालय, ३३,००० से अधिक स्कूलों में शौचालय, २५०० से अधिक मलिन बस्तियों में शौचालय, २०० से अधिक बॉयोगैस प्लांट, १२ से अधिक आदर्श गाँव बना चुकी है। इसके अतिरिक्त १० हजार से अधिक लोगों को मैला ढोने की कु-प्रथा से बाहर ला चुकी है। गाँधी जी के बाद भारत में किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में डॉ. बिन्देश्वर पाठक ही वह व्यक्ति रहे हैं, जिन्होंने स्वच्छता और अछूतों के वास्तविक उत्थान को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य बनाया। उसके अनुरूप स्वच्छता आंदोलन और छुआछूत की विरोधिता को मूर्त आयाम देते हुए उन्होंने सफाई कर्मियों के प्रति भेदभाव के खिलाफ अपनी सैद्धांतिक लड़ाई को विश्वस्तरीय बनाया। वर्ष १९८८ में मैला ढोने वाले कुछ लोगों को वह राजस्थान के उदयपुर के नाथद्वारा मंदिर ले गए और वहाँ पर उनसे पूजा-पाठ कराया। हालांकि लोगों ने विरोध किया, लेकिन डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने पुजारियों को समझाए और पूजा संपन्न हुई। यह एक ऐतिहासिक कदम था, जिसको देशभर में सराहा गया। इसी तरह वर्ष २०१२ में उन्होंने वृंदावन की विधवाओं के लिए सुलभ शौचालय बनवाया। उन्हें पढ़ना-लिखना सीखाने के अलावा मोमबत्ती आदि बनाने की ट्रेनिंग दी। उन्हें 2000 रुपए प्रतिमाह देना भी शुरू किया।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

डॉ. बिन्देश्वर पाठक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व थे। वह एक प्रबल समाज सुधारक और समाज सेवक के अतिरिक्त एक उच्चकोटि के लेखक और वक्ता भी थे। स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधित देश-विदेश भर में अनगिनत कार्यशालाओं और सम्मेलनों में उन्होंने भाग लिया और अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। उससे संबंधित उन्होंने विद्वतापूर्ण अपना व्याख्यान दिया था। उन्होंने कई उत्कृष्ट पुस्तकों की भी रचना किए हैं, जिसमें ‘स्वच्छता का दर्शन’ और ‘रोड टू फ्रीडम’ बहुप्रशंसित पुस्तकें हैं। इसके अलावा, देश-विदेश के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए वह विचारोत्तेजक लेख भी लिखते रहे थे। अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘सुलभ इंडिया’ का वह संपादन भी किया करते थे।

‘किसी को भी शौच के लिए बाहर नहीं जाना चाहिए और भारत के हर घर में शौचालय होना चाहिए’ – डॉ. बिन्देश्वर पाठक का यह दृढ़ संकल्प ही आज मुख्य रूप से ‘सुलभ स्वच्छता आंदोलन’ के रूप में जाना जाता है। डॉ. बिंदेश्वर पाठक के प्रयासों के कारण ही ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने १९ नवंबर २०१३ को ‘वर्ल्ड टॉयलेट डे’ के रूप में मान्यता दी है।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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