।।प्रेम के धरातल पर स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व।।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । प्रेमी का जीवनकाल जिस दौरान वह प्रेम की बगिया में हिरन की तरह डग भर रहा होता है केवल प्रेमास्पद के हृदय-दान पर निर्भर करता है। प्रेमास्पद के उन्मुक्त समर्पण, अकुण्ठ अनुराग और कोमल स्नेहिल स्पर्श से प्रेमी का जीवन मचलते समुद्र और खिलखिलाते उपवन की भाँति चमकता तरंगायित होता हर समय मौज व आलोड़न बहार से भरा होता है।
प्रेमी का अपना गुरूर, जमाने को ललकारता उसका पुरुषार्थ व बाँकी अदा, लहराता यौवन तथा जिजीविषा की अछोर चाहत सब कुछ प्रेमास्पद की ममता, उदारता व उपकार पर निर्भर करती है।
प्रेमी या प्रेमास्पद दोनों का अपना अकेला कुछ नहीं होता। खासकर प्रेमी का गुरुत्व और लहरदार व्यक्तित्व बिना प्रेमास्पद के प्रशस्त आत्मदान के सम्भव नहीं..
इस कृतज्ञता और असीम उपकार को प्रेमी मन तब तक नहीं समझता जब तक उसका हृदय पुरुषत्व के छिछले धरातल को पार न कर ले… छिछले, सतही व भोथरे धरातल के कठोर खोल को तोड़ते ही प्रेम का जो स्वर्गीय प्रपात या पावन झरना बहते दिखता है वह मूलतः नारी का पवित्र हृदय है। समस्त पुरुषत्व उसी झरने में निमज्जित होकर निष्कलुष हो पाता है।
प्रेम अन्ततोगत्वा और कुछ है ही नहीं — प्रकृति की विवशता है जिसके चलते पुरुष एक स्त्री का साथी बनता है वरना प्रकृति का समस्त माधुर्य, औदार्य, औदात्य बोध व हृदय की विशालता तथा सेवा, समर्पण, ममत्व….सब कुछ नारीत्व के हिस्से है — इसलिए प्रेम पुरुष का नहीं नारी का अनन्य क्षेत्र है।
पुरुष का संसार और परिवेश कुरूपता और बर्बरता की संग्राम भूमि है, स्त्री की असीम करुणा और अगाध प्रेम ही नारीत्व की पावन भूमि को सृजित करते हुए इस कलुषित संसार की आध्यात्मिक विपन्नता व निपट अधूरेपन को दूर करते चलते हैं।
पुरुष ने अभी नारी के इस अवदान को ठीक से नहीं समझा है। प्रसाद जी ने समझा था — श्रद्धा के माध्यम से कामायनी में इसे बड़ी सूक्ष्मता व विस्तार के साथ उन्होंने कहने की कोशिश की।
बहुत ढंग से अगर पुरुष आत्ममंथन, आत्मविस्तार, आत्म-विकास करे तो स्त्री के प्रति असीम कृतज्ञता से भर उठेगा! मैं खुद जब-जब अन्नमय, प्राणमय तथा क्षुद्र मनोमय कोश के धरातल पर टहलता हूँ, स्त्री के गौरव बोध व व्यक्तित्व की महत्ता को देख नहीं पाता लेकिन जब जब मेरी चेतना उर्ध्वमुखी हुई — मुझमें एक नारीत्व प्रतिष्ठित हुई !
उसने मेरे हृदय के जकड़न व मलिनता, रुद्ध कोष को ओस की बूंद की तरह गला दिया.. तब तब मेरा व्यक्तित्वान्तरण हुआ.. शेष सामान्य स्थितियों में मुझमें औसत संसारी पुरुषत्व का सीमित रूप, अहं-बोध ही हावी रहा।
ये स्त्री ही है,जो पुरुष के भीतर के स्त्री से उसका परिचय करवाती है — प्रेम-तत्व से भिज्ञ कराती है उन्हें — उसे दर्शनीय बनाती है — पुरुष का पुरुषोचित ‘घमंड’ भी स्त्री ही देती है उसे। पुरुष किसी भी मुगालते में रहें पर ये तो तय है कि..उनका परिमार्जन स्त्री के हाथों ही लिखा है विधाता ने।
स्त्रीत्व के मायने.. पुरुषत्व के मायने.. दोनों भूल गए।
खैर मुख्य तो स्त्रीत्व है।
उसमें आत्मगौरव, स्वत्व बोध, आत्ममर्यादा, स्वाभिमान, कर्तव्य बोध, त्याग, उत्सर्ग और हृदय की विशालता, ममत्व, औदार्य…सब उच्चतर गुण रहे हैं लेकिन धीरे धीरे देहवाद, बाजार विज्ञापन, सेक्स ऑब्जेक्ट ने उच्छृंखलता, उन्मुक्तता, स्वातन्त्र्य बोध के धोखादेह सरलता के भीतर उसके दीप्तमय व्यक्तित्व का अपहरण कर लिया!
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com