“माया के नगरिया में लागल बा बजरिया, ए सुहागिन सुन हो”
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। इस ‘भोजपुरी पूरबी’ गीत को गा रही थी कलकत्ता की मशहूर तवायफ़ सोनाबाई। गीत पूर्ण होते ही सभी श्रोतागण उसकी गायकी की प्रशंसा करते और ताली बजाते हुए उस रंगमहल से एक-एक कर प्रस्थान कर गए, पर एक आगंतुक प्रशंसक अभी भी वहीं बैठा ही रहा। जब सोनाबाई उससे कारण पूछी, तब उसने कहा, – “आपका आलाप गजब का है। आवाज में कशिश भी है। लेकिन स्वर में आरोह-अवरोह की कमी थी।” सोनाबाई के लिए उसकी गायकी संबंधित कोई भी विरोधात्मक टिप्पणी सुनने का यह प्रथम अवसर ही रहा था। वह अचरज में पड़ गई। तब वह आगंतुक प्रशंसक एक तानपूरा उठा लाया और उस गीत को अपने अंदाज में गाया।
उसकी गायकी में आलाप भी था, आवाज में कशिश भी थी और साथ में आरोह-अवरोह भी थे। सोनाबाई मंत्रमुग्ध-सी हो गई। वह चकित भाव से उस अजनबी से पूछी, – “आप कौन है?” तब उस आगंतुक ने शांत स्वर में उत्तर दिया, – “यह गीत महेंदर मिशिर का लिखा हुआ है और वह महेंदर मिशिर मैं ही हूँ।” तत्क्षण सोनाबाई उनके पैरों पर गिर गई। महेंदर मिशिर बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोक गीत के सम्मानित बेताज बादशाह थे। उनके द्वारा रचित ‘पूरबी’ गीत-संगीत वहाँ-वहाँ पहुँची, जहाँ-जहाँ भोजपुरी भाषा और संस्कृति के लोग पहुँचे हैं। उनके पद-बंध ऐसे हैं, जिसमें अपनापन है, जो दिल को छूते हैं, जो चित को शीतल और शांत करते हैं।
लगभग तीन सौ वर्ष पहले उत्तर परदेश के लगुनाही धर्मपुरा से एक ब्राह्मण परिवार बिहार के छपरा जिला के जलालपुर प्रखण्ड के कांही-मिश्रवलिया में आ बस था। बाद में इसी परिवार में शिवशंकर मिशिर हुए, जो छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय के वसूली क्षेत्र के एक छोटे से जमींदार के रूप में उभरे थे। इन्हीं के आँगन में बहुत प्रतीक्षा के उपरांत किसी शिवभक्त साधु के आशीर्वाद से ‘पत्थर पर दूब उगला’ की भाँति 16 मार्च, 1886 को एक शिशु का जन्म हुआ था। उसी साधु की इच्छानुसार उस शिशु का नाम ‘महेंद्र’ रखा गया। तत्कालीन जमींदार हलिवन्त सहाय की इस ब्राह्मण परिवार पर बड़ी कृपा थी। एक स्थान पर महेंदर मिशिर ने अपना परिचय देते हुए लिखा है –
‘मउजे मिश्रवलिया जहाँ विप्रन के ठाट्ट बसे,
सुन्दर सोहावन जहाँ बहुते मालिकान है।’
गाँव के ही विद्वान पंडित नान्हू मिश्र के बरामदे में संस्कृत का पाठशाला लगता था। उसी घरेलू पाठशाला में बालक महेंदर मिशिर की शिक्षा आरंभ हुई थी। पंडित जी छात्रों को संस्कृत के ‘अभिज्ञान शकुंतलम्’, ‘रघुवंशम्’ और ‘ऋतुसंहारम्’ आदि का प्रबोध कराया करते थे। उसी क्रम में बालक महेंदर का परिचय भक्ति, श्रृंगार और प्रकृति-वर्णन की परम्परा से कुछ हो गया, जो उनके भीतर कवित्व के भाव को प्रस्फुटित कर दी थी।
गाँव के बीच ही हनुमान जी का मंदिर था, जिसके प्रांगण में हमेशा रामायण मंडली द्वारा गायन-वादन होता ही रहता था और उसके पास ही अखाड़े में पहलवानों की कुश्तियाँ होती रहती थीं। दोनों मानवीय क्रिया-कलाप महेंदर मिशिर के मन को अपनी ओर लगातार खींचती रही और शिक्षा के अखाड़े से उन्हें क्रमशः दूर कर दी। उन्होंने भी कुश्ती के अखाड़े में कई पहलवानों को धूल चटाई थी। वह बचपन से ही पहलवानी, घुड़सवारी, गीत, संगीत में प्रवीण थे। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के कारण उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा-सुना, सब के सब उनकी जिह्वा पर अक्षरतः वर्तमान रहते थे। अतः लोग उन्हें ‘सरस्वती वरदपुत्र’ कहा करते थे। उनके सम्पूर्ण लेखन में आये यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक तथा विधिवत् पौराणिक प्रसंग आदि उनकी कुशाग्र बुद्धि का ही परिचायक है।
जिस समय महेंदर मिशिर के पिता शिवशंकर मिशिर की मृत्यु हुई, उस समय बाबु हलिवंत सहाय की स्थिति बहुत ही खराब हो चली थी। एक तो जीवन-संगिनी न थी, विधुर थे। दूसरे में पट्टीदार लोगों से संपति पर हक़ के लिए मुक़दमा चल रहा था। ऐसे में महेंदर मिशिर उनके अन्तरंग मित्र, शुभचिंतक और सलाहकार बन चुके थे। बाबू हलिवंत सहाय ने उन्हें अपनी पूरी सम्पति का ट्रस्टी बना दिया था।
महेंदर मिशिर ने बाबू हलिवंत सहाय के सूने जीवन को हरा-भरा बनाने के लिए ही मुजफ्फरपुर की एक प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी की बेटी ढेलाबाई को अपहरण कर ले आए। काफी फजीहत और मान-मनौती के बाद हलिवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपनी पत्नी का सम्मानित पद प्रदान किया था। पर कुछ ही दिनों के बाद ही वे दुनिया से कुच कर ढेलाबाई को वैधव्य रूप प्रदान कर गए। अब उनके पट्टीदारों ने ढेलाबाई को उनकी पत्नी मानने से साफ इनकार करते हुए उसे उनकी सारी संपति से बेदखल कर भागा देना चाहा। तब महेंदर मिशिर ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ढेलाबाई की बहुत मदद की।
लेकिन बाद में बिन वारिस स्वर्गीय बाबू हलिवन्त सहाय की सारी संपति सरकार द्वारा जब्त कर ली गई। ऐसे में उन्होंने अपनी छोटी-सी जमींदारी की आय से ही ढेलाबाई की हर संभव मदद की। उधर ऐसे ही समय पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम की तीव्र बयार चलने लगी थी। जमींदारी-प्रथा ध्वस्त हो रही थी। महेंदर मिशिर की जमींदारी भी जाती ही रही। अब तक उनकी पत्नी रूपरेखा देवी से उन्हें पुत्र रत्न हिकायत मिश्र प्राप्त हो चुका था। उन्हें प्रतीत हुआ कि अर्थाभाव में वे न तो अपने परिवार के प्रति और न ही ढेलाबाई के प्रति अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह कर सकते हैं।
कलकता उस समय राष्ट्र की सभी औद्योगिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का मूल केन्द्र बना हुआ था। भोजपुरी क्षेत्र के हजारों लोग जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ता जाया करते थे। 1915-16 में महेंदर मिशिर भी कलकता गमन किए। देशवाली बिहारी समाज के बीच स्वरचित गीतों का सुमधुर गायन कर अपना विशेष स्थान बना चुके थे।
“आधी-आधी रतिया के पिहिके पपिहरा से बैरनिया भइली ना,
मोरा अँखिया के रे निनिया से बैरनिया भइली ना।
पिया कलकतिया घरे भेजे नहीं पतिया, से सवतिया भइली ना।”
ऐसे में ही एक दिन कलकत्ता के धर्मतल्ला मैदान में उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस का राष्ट्र-प्रेम जनक उत्तेजक भाषण सुना। अब तो उनके मन में भी राष्ट्र-सेवा की ललक बढ़ने लगी। संयोगवश एक दिन एक अमीर अंग्रेज साहब महेंदर मिशिर को ‘देशवाली’ समाज में गाते देखा। उनकी पहलवानी कद-काठी को देख कर और उनसे बातें करके वह बहुत प्रभावित हुआ। अंग्रेज साहब ने उनसे कहा, – “हम लंदन जा रहे हैं। हमारे पास नोट छापने की एक मशीन है, वह तुम अपने पास रख लो और मुझसे दो-चार दिन आकार काम सीख लो।”
महेंदर मिशिर नोट छापने वाली मशीन लेकर मिश्रवलिया लौट आये और गुप्त रूप से नोट छापना शुरू कर दिया। दरवाजे पर रिश्तेदार, सगे-संबंधी, पहलवान, साधु-संत, महात्मा, गरीब, जरुरतमन्द आदि की जमावट पहले की भांति पुनः होने लगी। दिन-रात गीत-गवनई की महफ़िल सजने लगी। वे स्वयं भी छपरा, मुजफ्फरपुर, पटना, कलकत्ता, बनारस, ग्वालियर और झाँसी तक के गायकों के पास जाकर गाते और संगत किया करते थे। अब तो लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की साधना एक साथ होने लगी थी।
“हे पिंजरे के मैना भजन कर राम के।
हार माँस के देह बनल बा आज रहे काल्ह हइए ना।
घोड़ा हाथी माल खजाना संगवा तोरा जइहें ना।
भजन कर राम के।”
पर इसके साथ ही महेंदर मिशिर जी गुप्त रूप से क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद होने वालों के परिवारों को खुले हाथों से मदद करने लगे थे। उन्होंने नकली नोट तो छापा, पर अपने सुख-स्वार्थ के लिए कम, बल्कि ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था को धाराशायी करने के लिए अधिक। गाँधी जी सरीखे नेताओं के आह्वान पर आयोजित होने वाले धरना, जुलूस, पिकेटिंग आदि कार्यक्रमों में भाग लेने वाले सत्याग्रहियों के भोजन आदि का संपूर्ण व्यय महेंदर मिशिर जी ही करने लगे थे।
निरंतर बढ़ती जाली नोटों से चिंतित अंग्रेजी सरकार के आदेश पर छपरा थाने के इन्स्पेक्टर जटाधारी प्रसाद वेश बदलकर ‘गोपीचनवा’ बनकर महेंदर मिशिर के घर नौकर बनकर खुफिया जाँच करने लगा। उसी के रिपोर्ट पर 6 अप्रैल सन् 1924 ई. की आधी रात में दानापुर की पुलिस ने छापा मारा। महेंदर मिशिर पकड़े गए। पहले तो सात, परंतु बाद में तीन साल के लिए उन्हें बक्सर जेल में भेज दिया गया। जेल जाते समय ‘गोपीचनवा’ के प्रति उनके कंठ से पंक्तियाँ दर्द बनकर व्यक्त हुई थी –
“पाकल-पाकल पनवा खियवले गोपिचनवा, पिरितिया लगाके भेजवले जेलखनवा।”
प्रति उत्तर में ‘गोपीचनवा’ उर्फ इंस्पेक्टर जटाधारी प्रसाद उनके पाँव पकड़ लिया और आँखों में आँसू भरकर कहा, – “बाबा! हम अपनी ड्यूटी से मजबूर थे। हमें इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि आपने देश के लिए बहुत कुछ किया है और देश के लिए ही आप जेल जा रहें हैं।”
परंतु किसी कलाकार के लिए जेल या मेल क्या? महेंदर मिशिर जहाँ रहें, उसे ही महफ़िल बना दिए। जेल में भी वे गीत, संगीत, कविता, कहानी आदि की रसधार बहाते हुए उसके संत्रास मय वातावरण को जिंदादिल बना दिया करते थे। जेल में ही रहते हुए उन्होंने भोजपुरी का गौरव-ग्रंथ “अपूर्व रामायण” लिख डाला।
“राम लखन मोरा बन के गमन कइलें हमरा के तजी कहाँ गइलें हो लाल।
जब सुधी आवे राम साँवली सुरतिया से हिये बीच मारेला कटरिया हो लाल।”
जेल से छुटकर महेंदर मिशिर जी नौटंकी शैली में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से भजन-कीर्तन तथा रामकथा व कृष्णकथा सुनाने लगे। उनके लिए कोई भी वाद्य यंत्र अछूता न था। उनके हाथों के स्पर्श से वे सभी सरगम की लहरिया उत्पन्न करने लगते थे। उनके गीत, कविता और संगीत-साधना श्रृंगार एवं प्रेम से भरा हुआ है, जिसमें सर्वत्र ही मानव नियति की चिंता दिखाई पड़ती है। “पूरबी के जनक” महेंदर मिशिर 70 वर्ष की आयु में छपरा के शिवमंदिर में 26 अक्टूबर 1956 की सुबह अपनी आखरी साँस ली और उनका तन हमेशा के लिए ही शांत हो गया।
महेंदर मिशिर का रचना काल 1910-1935 ई० तक रहा। जिसमें उन्होंने सैकड़ों गीतों, कविताओं और गजलों सहित कहानियों की रचना की है। जिनमें महेन्द्र मंजरी, महेन्द्र विनोद, महेन्द्र चन्द्रिका, महेन्द्र मंगल, अपूर्व रामायण, महेंद्र प्रभाकर, महेंद्र दिवाकर, भगवत दशम स्कंध, भीष्म प्रतिज्ञा आदि विशेष चर्चित हैं। उनका “अपूर्व रामायण” सातों कांडों, में तो भोजपुरी भाषा का ‘पहिलका महाकाव्य’ है। उनके बहुतों प्रणीत गीत-कविता उनके कुछ गायक मित्र ले गए, अनेक रचनाएँ उचित रख-रखाव के अभाव में काल-कलवित भी हो गईं।
महेंदर मिशिर जी ने आम जानता की रूचि और संस्कार को परिष्कृत करने हेतु ही नवीन गायकों को सिखाया कि भजनों, आध्यात्मिक प्रसंगों तथा कीर्तन आदि द्वारा समाज का उद्धार करना भी राष्ट्रभक्ति का ही एक रूप है। इनके मौलिक एवं कल्पित प्रसंगों तथा गीतों की धुन की नींव पर ही ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ भिखारी ठाकुर के भी लोक नाटकों की शानदार ईमारत खड़ी हुई है। अपनी रचनाओं से उन्होंने भोजपुरी भाषा, साहित्य और समाज की जो सेवा की वह अपूर्व है। उनकी कविता और गीत भोजपुरी अंचल के लोगों के कंठहार बन गए हैं।
“अंगुरी में डँसले बिया नगीनियाँ मोर बलमुआँ हो,
सुतल रहनी ऊँची रे अटार।
पटना सहरिया से बैदा बोलादऽ मोर बलमुआँ हो,
बैदा दरदिया हरले जाय।”
भोजपुरी साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान महेश्वराचार्य जी ने महेंदर मिशिर के बारे में कहा है, – “जे महेंदर न रहितें, त भिखारी ना पनपतें। उनकर एक-एक कड़ी ले के भिखारी भोजपुरी संगीत रूपक के सृजन कईले बाडन। महेंदर मिशिर भिखारी ठाकुर के रचना-गुरु, शैली-गुरु बाडन। लखनऊ से लेके रंगून तक महेंदर मिशिर भोजपुरी के रस माधुरी छीट देले रहलन, उर्वर बना देले रहलन, जवना पर भिखारी ठाकुर पनप गईलन हाँ।”
महेंदर मिशिर जी को भोजपुरी भाषी लोग “पुरबी का जनक” मानते हैं। उनके पुरबी गीतों का समय-समय पर कई गायकों ने नकल करने की कोशिश की, पर असल के सामने नकल कहाँ टिक पाते हैं? उनके गीत और कविता तो दिल को छू कर, चित को शीतल कर शांति प्रदान करते हैं।
“चलत-चलत मोरा पईया पिरइले, ए ननदिया मोरी रे,
तबहूँ ना मिलेला उदेश, ए ननदिया मोरी रे।
अपने न अइलें पिया भेजलें ना सनेसवा, ए ननदिया मोरी रे।
भेज देले डोलिया कहार, ए ननदिया मोरी रे।”
“पुरबी के जनक” महेंदर मिशिर जयंती, 16 मार्च, 2023
श्रीराम पुकार शर्मा
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