कुछ कहना है खामोश हैं सभी

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

यूं तो महफ़िल सजी है कितनी रौनक नज़र आती है मगर हर कोई मिलता है तो इक नज़र देख कर पास से गुज़र जाता है। इक सन्नाटा सा छाया हुआ है कोई सरसराहट भी नहीं किसी के कदमों की आहट तक सुनाई नहीं देती है। शायद कोई अनहोनी घटना घटी हो या कोई बड़ा जादूगर आया और सबको अपने जादू से सम्मोहित कर चला गया पत्थर बना कर जो चलते फिरते हैं किसी जादू के खिलौने की तरह। जादूगर फिर वापस आएगा और सबको मुक्त करवा देगा मदहोशी से अपनी छड़ी से। ठीक होने के बाद सभी को कुछ भी याद नहीं रहता कितने साल से हम किसी की कठपुतली बने हुए हैं।

              ऐसा लगता है देश के नागरिक अहिल्या की तरह किसी श्राप से शिला बन गए हैं और किसी राम के आने तक निर्जीव संवेदना रहित होकर रहना नियति है। कोई राम नहीं आएगा कोई और अपने जादू से फिर से जीवन भर दे अगर नसीब अच्छा है। लोग फिर सम्मोहन का शिकार हो जाते हैं , जादूगर अपनी जादूगिरी दिखलाते हैं। लोग पीते हैं लड़खड़ाते हैं दिल की दुनिया के ग़म भुलाते हैं। एक हम हैं जो तेरी महफ़िल में प्यासे आते हैं प्यासे जाते हैं। तुम बताओ तुम्हारी दुनिया है क्यों खुदा कोई खुद ही बनाते हैं सब इसी बात से परेशां हैं रहबर क्यों कारवां लुटवाते हैं। आप पंडित नहीं मौलवी भी नहीं आप सरकार हैं आते जाते हैं काम की बात कभी नहीं करते जाने क्या राज़ है छुपाते हैं।
आपने बात जो बताई है सुन रखी है और सुनाई है मेरा है आप जो समझते हैं सच कहें चीज़ वो पराई है। आज कुछ और बात करते हैं कभी कोई और बात कहते थे , हर किसी को यही कठिनाई है क्या क्या बात क्यों बनाई है। आपको तालियां ही भाती हैं सवाल सुनते ही तिलमिलाते हैं खुद को समझ बैठे हैं नहीं जो धोखा देते हैं मुस्कुराते हैं। आपको सभी को जगाना था आप तो खुद ही किसी गहरी नींद में हैं और सपनों के आकाश में उड़ते फिर रहे हैं । आप भी हैं और हम भी मुसाफ़िर हैं भौर हुई , चाय पीते पिलाते हैं। राजधर्म किस तरह निभाते हैं लोग भैंस के सामने बीन बजाते हैं। रावण महाराज भी आजकल रामकथा गाकर सुनाते हैं।

यही आजकल का निज़ाम है असली सवाल पर चर्चा नहीं करते हैं। बेसिर पैर की बातें बनाते हैं सुनाते हैं। आप इंसान हैं या कोई इश्तिहार हैं क्या क्या गज़ब ढाते हैं। सच कहें आप बड़े झूठे हैं फिर भी हमको बहुत लुभाते हैं। आपको देखते ही रहते हैं लोग क्या अंदाज़ है क्या खूबसूरत अदा है सभी हैरान रह जाते हैं। हमने माना सबसे बड़े जादूगर हैं आप सभी को दिखाई देता वही जो दिखाते हैं। करिश्मा है अजब लोग जानते हैं ये जादू धोखा है फिर भी धोखा खाने चले आते हैं। कितने जादू टोने कितने मंत्र आपने दिए हैं काम कोई वक़्त पर नहीं आते हैं। लूटते हैं सभी लुटते हैं और मसीहाई यही है समझा जाते हैं। अपने खूब बनाया बहाना  है कोई नहीं आपका ठिकाना है फिर मिलेंगे अभी चलते हैं मज़बूरी है नहीं बहाना है शाम ढल गई घर भी जाना है।
आपके बिन नहीं दिल लगता क्या करें ज़ालिम बहुत ज़माना है , आशिक़ी है कहते हैं  जिगर मुरादाबादी इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। आशिक़ महबूबा चांद तारों खूबसूरत नज़ारों की बातें करते हैं उनको वास्तविकता को छोड़ ख्यालों की दुनिया अच्छी लगती है। उनके पास तर्क की कोई बात नहीं होती बस चाहत ने अंधा बना रखा होता है। सत्ता का भी यही हाल है सत्ताधारी को हक़ीक़त देखना पसंद नहीं होता है चाटुकार सच नहीं देखने देते झूठा गुणगान करते हैं और अपने महिमामंडन से इंसान खुद को मसीहा समझने लगता है।

देश और राज्य की सरकारों के नैतिक पतन की कोई सीमा नहीं है जब आजकल लोग आपदा से पीड़ित हैं इनको अपने खज़ाने भरने की पड़ी है। मैंने कहीं पढ़ा कि जब किसी देश के माहमारी आपदा होती है तब शासक को अपने खज़ाने भरने की नहीं खज़ाने को बांटने की बात करनी होती है। शायद आपको लगेगा कि ये कैसे मुमकिन है तो खोजना आपके धर्म की किसी किताब में शासक का यही धर्म बताया है। इक जानकर से बात की तो उन्होंने इस को ज़रूरी भी और उचित के साथ संभव भी है बताया। उनके पास समझाने को आसान ढंग था, देश के बीस प्रतिशत रईस लोग अगर अपनी जमापूंजी का पांचवा नहीं दसवां भाग भी गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को दान नहीं उनका अधिकार समझ कर सौंप देते हैं तो उनकी हालत एक साल से दो तीन साल में सुधर कर मध्यम वर्ग जैसी हो जाएगी।

लेकिन यही अमीर अपने पास जमा पूंजी को घटने से चिंतित होते हैं मगर देश की सरकार उनको अनुचित सहयोग देने की जगह उन्हें आदेश दे सकती है कि आप ऐसा करेंगे तो आपको अगले साल दो तीन आयकर नहीं भरना पड़ेगा। सरकार को कुछ भी देना नहीं है केवल लेना नहीं और जिनसे लेना उनको वही गरीबों को देने का निर्णय लागू करवाना है। मध्यम वर्ग को कोई अनुदान नहीं देने की ज़रूरत मगर बदहाली में उनसे तमाम तरह के कर वसूलना छोड़ सकते हैं विपदा खत्म होने तक। यकीन करें बड़े छोटे आसान कदम उठाकर देश की तीन चौथाई जनता की हालत सुधार सकते हैं।

मगर सरकार कभी ऐसा नहीं करती है क्योंकि पहली बात तो उनकी अवधारणा अर्थव्यवस्था की उल्टी है जो सबको बराबरी पर लाना नहीं चाहती अमीर को अमीर गरीब को और गरीब बनाने का काम करती है। दूसरी सबसे अनुचित बात सरकार सत्ताधारी नेताओं अधिकारी लोगों का खुद पर रहीसाना ढंग से जीने को कितनी तरह की सुविधाओं को वीवीआईपी लोगों के लिए उपलब्ध करवाने का लूट और आमनवीय तौर तरीका बना लिया गया है जिसको छोड़ना नहीं चाहते।

अगर इनमें थोड़ी भी मानवीय संवेदना रत्ती भर भी मानव धर्म का भाव बाकी है तो इनको खुद देश के औसत नागरिक की आय के बराबर वेतन लेकर देश और समाज की वास्तविक सेवा करने का आदर्श दिखाना चाहिए। और इस के लिए उनके पास कोई कमी नहीं हो सकती है इतना सब है देश के संसाधन और विरासत में मिले तमाम अन्य साधन।

शायद आज इक नीति- कथा की बात करना भी अनुचित नहीं होगा। जिनको धर्म ईश्वर और अच्छाई बुराई के फल आदि पर भरोसा है उनको सोचना होगा इस कथा के अनुसार शासक का अधिक लोभ लालच ही कारण होता है देश में कुदरत के नराज़ होने का।

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