प्रणय अशेष
कभी बाग की हरियाली में
कभी श्वेत अंबर डाली में
छिपा हुआ वो राग तुम्ही हो
जीवन का अनुराग तुम्ही हो!
कभी पर्वत के उदयाचल में,
कभी वादियों के आंचल में,
छिपा हुआ संगीत तुम्ही हो ;
जीवन का नवनीत तुम्ही हो।
तुम्ही हो पावन, तुम्ही हो सुरभि,
तुम्ही हो प्रेम का सुंदर दर्पण ,
तुम्ही हो जगत संसार तुम्ही हो;
मेरे जीवन का सार तुम्ही हो।
तुम्ही प्रेम हो, तुम्ही सकल हो,
तुम्ही प्रेम का अरुणाचल हो,
तुम्ही हो फैली हुई सरोवर
जिसका है निश्चित कोई प्रियंवर,
जिससे मेरा अनुताप जुड़ा है!
तुम्हारा सौभाग्य जुड़ा है!
अब जाओ प्रिये, सकुचाओ नहीं!
कुछ पग चल कर थम जाओ नहीं!
इस जीवन की बाधा को टाल,
तुम चलो धार पकड़े विशाल!
ये जीवन की परिधि है क्या?
ये प्रेम की अवधि है क्या?
हम प्रेम करेंगे अनंतकाल,
यदि चाहेंगे लोकपाल!
हम फिर से धरा पर आयेंगे!
इस कविता को दोहरायेंगें!
वो नवजीवन सफल होगा;
मन मुक्त होगा, भाग्य अविचल होगा।
दुर्गेश बाजपेई