डीपी सिंह की कुण्डलिया

*कुण्डलिया*

होते हैं हर वर्ग में, तुष्ट और कुछ रुष्ट।
ईश्वर भी क्या कर सके, सबको ही सन्तुष्ट?
सबको ही सन्तुष्ट, न कर पाए नारायण।
नर की क्या औकात, चरण का है जो रज-कण।।
कुढ़ना ही है काम, रात-दिन जगते-सोते।
कर्महीन कुछ लोग, इसी लायक ही होते।

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