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।।एक घोटाला किरणों का।।
ऐ धूप! हे चाँदनी!
न लाओ अपने पार्थिव कलह,
मेरे दिव्य न्याय कक्ष में।
खिल सको तो खिलो,
चमक सको तो चमको।
वरना, सौर-सम्पदा के वारिस,
ग्रह-उपग्रह मेरे और भी हैं।
तुम कहती हो- ”चुरा लेती है ताप,
ये पराबैगनी परत, मेरे धरती छूने तक!
और ये घटायें तो अक्सर,
मुझे कंगाल ही कर देती हैं!”
चाँदनी रोती है- ”निराहार ही रह जाती हूँ हर बार,
अमावस आने पर।
और ये घटायें तो अक्सर,
मेरा भी निकलना मुहाल कर देती हैं”
फिर दोनों मिलकर कहती हो…
”सौ फीसदी तरंगे, आलोक-उष्मा की,
भूमि तक मात्र सोलह ही पहुँचती हैं।
कुछ तो घोटाला है, किरणों के आबंटन में।”
अब मैं कुछ दिखाऊँ तुमको?
“देखो! अन्य साथी पिण्डों को।
कहीं अग्नि-ताप! कहीं हिमशीतल!
कहीं धूल-कण! कहीं विषैला दल-दल!
न वायुमंडल! न कोई बादल!
बर्फ नहीं, न नदियाँ कल-कल!
बस! धूप ही धूप! चाँद ही चाँद!
पर क्यूँ नहीं वे ग्रह आबाद?
नहीं फैली जहाँ परावैगनी परत…
क्या है पनपा वहाँ जीव जगत?
करेगी क्या तुम्हारी विकीरण-ऊर्जा?
जो न छाये घटा, न हो वर्षा !!
तुम सब हो तपस्या! तुम ही तपस्वी!
सब के संगम से है अद्वितीय पृथ्वी !!
सबकी समृद्धि, है सुनियोजित, मेरे संसाधन में.!
फिर न दोहराना…
“कुछ तो घोटाला है, किरणों के आबंटन में”
खिल सको तो खिलो.
चमक सको तो चमको..
वरना सौर-सम्पदा के वारिस..!
ग्रह-उपग्रह मेरे-
और भी हैं।
आयाम : (जीवन-दर्शन)
रचना :श्री गोपाल मिश्र
(Copyright reserved)
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