“काँच ही बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकति जाए… बहँगी लचकति जाए… “
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । सनातन हिंदुओं द्वारा पूजित सभी देवी-देवताओं में एकमात्र ‘सूर्यदेव’ ही मूर्त स्वरूप में हमें प्रतिदिन दर्शन देते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि के समस्त चराचरों के जीवन का मूल आधार भी ‘सूर्यदेव’ ही हैं। सूर्य परिवार अर्थात ‘सूर्यदेव’, उनकी दोनों शक्ति-स्वरूपा पत्नी ‘प्रत्युषा’ और ‘उषा’ तथा सूर्यदेव की बहन ‘छठी मईया’ के प्रति सादर उपासना का ही महापर्व ‘छठ पूजा’ है। ‘छठ’, ‘षष्ठी’ शब्द का ही अपभ्रंश है। मूलत: ‘षष्ठी’ तिथि को सूर्यदेव को समर्पित होने वाले महापर्व को ही ‘छठ’ कहा गया है। सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें चंद्रमा-सतह से परावर्तित होकर पृथ्वी के वायुमंडल के विभिन्न स्तरों में प्रवेश करती हुई पुनः परावर्तित होकर पृथ्वी पर सूर्यास्त तथा सूर्योदय बेला में आवश्यकता से कुछ अधिक सघन होकर पहुँचती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना विशेषकर कार्तिक तथा चैत्र माह के शुक्लपक्ष की ‘षष्ठी’ तिथि के आस-पास होती है। इन दोनों स्थितियों के अनुकूल ही वर्ष भर में दो बार ‘षष्ठी पूजा’ या ‘छठ पूजा’ या ‘सूर्य षष्ठी पूजा’ की परंपरा रही है। चैत्र माह में, जिसे ‘चैती छठ’ कहा जाता है और फिर कार्तिक माह में, जिसे ‘कार्तिक छठ’ कहा जाता है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार ‘छठ मईया’ को ब्रह्मा की ‘मानस पुत्री’ कहा जाता है, जिनकी पूजा संतान सुख के लिए नवरात्रि में ‘षष्ठी’ तिथि को की जाती है। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘छठ मईया’ को सूर्य देव की बहन भी माना जाता है।
इस प्रकार ‘छठ’ महापर्व भगवान ‘सूर्यदेव’, उनकी पत्नी ‘उषा’ और ‘प्रत्यूषा’, उनकी बहन ‘छठी मईया’, प्रकृति आदि के प्रति ही विशेष रूप से समर्पित आराधना है। ‘छठी माता’ और भगवान सूर्य के संयुक्त स्वरूप की पूजन ‘छठ पर्व’ के रूप में वैदिक काल से ही परंपरागत रूप से अनवरत आज तक चलते आ रहा है। जो पूर्णतः प्रकृति-अनुकूल और परस्पर सहयोग का त्यौहार है। इसमें छठ व्रती (जिन्हें ‘परवैतिन’ भी कहा जाता है) और प्रकृति के बीच कोई मूर्ति या कोई पुरोहित का कोई स्थान नहीं होता है। छठ व्रती (परवैतिन) ही पुजारी और पुरोहित हुआ करते हैं।
इस पर्व के माध्यम से छठ व्रती समस्त चराचरों के जीवन रक्षक साक्षात मूर्त सूर्यदेव सहित जीवन रक्षक अन्य प्राकृतिक अवयवों की उपासना करते हैं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए पारिवारिक और सामाजिक सुख, समृद्धि, सौभाग्य आदि की कामना करते हैं। ‘छठ पूजा’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस से निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तन, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद (ठेकुआ) और सुमधुर लोकगीतों का ही महत्व है। ये सभी परस्पर मिलकर लोक जीवन को भरपूर अपनी मिठास प्रदान करते हैं। इस पर्व हेतु विभिन्न उपकरणों, सामानों, फल-फूलों, कपड़े, सलिला जलाशय आदि का चयन जैसे प्रारम्भिक कार्य से लेकर पूर्णता, अर्थात प्रसाद वितरण और ग्रहण (खाने) तक सर्वत्र ही पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
‘छठ पूजा’ संबंधित विशेष प्रक्रिया अधोलिखित है।
‘नहाय-खाय’ : ‘छठ पर्व’ का पहला दिन, अर्थात शुक्लपक्ष चतुर्थी को ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन घर-द्वार की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। छठ व्रती (परवैतिन) गंगा नदी या नजदीक की नदियों अथवा पवित्र जलाशय में जाकर स्नान करते हैं। लौटते समय वे सभी अपने साथ ‘गंगाजल’ लेकर आते हैं, जिसका उपयोग वे मिट्टी से बने चूल्हे में आम की लकड़ी से मिट्टी या कांसे के वर्तन में कद्दू की सब्जी, मुंग-चना दाल, चावल आदि के भोजन बनाने में करते हैं। छठ व्रती (परवैतिन) इस दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। सबसे पहले छठ व्रती, उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते हैं।
‘खरना और लोहंडा’ : ‘छठ पर्व’ के दूसरे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष पंचमी को ‘खरना’ या ‘लोहंडा’कहा जाता है। इस दिन छठ व्रती (परवैतिन) पूरे दिन का निर्जला उपवास रख कर शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस से बने ‘खीर’ तथा गेहूँ के आटे की रोटियाँ बनाते हैं। घर के एकांत में उस ‘खीर’ तथा रोटी को सबसे पहले सूर्यदेव को नैवैद्य ‘अग्रासन’ के रूप में देते हैं । फिर स्वयं ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात घर के सदस्य और आगत जन खीर-रोटी को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। इसके बाद अगले लगभग 36 घंटों के लिए छठ व्रती निर्जला उपवास रखते हैं।
‘संध्या अर्घ्य’ : ‘छठ पर्व’ के तीसरे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष षष्ठी को ‘प्रत्यूषा’ की उपासना स्वरूप ‘संध्या अर्ध्य’ का दिन माना जाता है। इस दिन पूरी पवित्रता का पालन करते हुए छठी व्रती (परवैतिन) गेहूँ के आटे, गुड आदि से प्रसिद्ध प्रसाद ‘ठेकुआ’ तथा ‘कचवनिया’ या ‘कसार’ (चावल के लड्डू) बनाते हैं। इस कार्य में तथा पूजा की तैयारी में घर के अन्य सदस्य भी पवित्रता का ध्यान रखते हुए साथ देते हैं। फिर पूजन सामग्री से ‘दउरा’ को सजा कर घर का पुरुष सादर अपने माथे पर धारण किए पवित्र सलिला या जलाशय के ‘छठ घाट’ पर ले जाता है।
उनके साथ ही छठ व्रती (परवैतिन) और महिलाएँ ‘छठ का गीत’ गाते हुए जाते हैं। सूर्यास्त से कुछ पूर्व ही छठ व्रती (परवैतिन) कमर भर पानी में उतर कर पूजन सामग्री से सजे ‘दउरा’ को अपने हाथों पर धारण किए ‘प्रत्यूषा-सूर्य’ का ध्यान करते हैं और फिर डूबते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं। तत्पश्चात ‘छठ का गीत’ गाते हुए अपने सारे सामान के साथ घर वापस आ जाते है। ‘दउरा’ के सभी पूजन-सामग्री को बदल जाता है, अर्थात ‘दउरा’ को पुनः सारे नए सामानों से सजाय जाता है, आगामी कल के प्रातः कालीन ‘उषा-सूर्य’ की उपासना के लिए।
‘उषा अर्घ्य’ : ‘छठ पर्व’ के चौथे दिन, अर्थात शुक्लपक्ष सप्तमी की भोर बेला में ही पुनः नए सामानों से सजे ‘दउरा’ को माथे पर धारण किए लोग छठ व्रतियों के साथ ‘छठ घाट’ पर पहुँचते हैं। चतुर्दिक ‘सुरुज देव’ और ‘छठी मईया’ के गीत गुंजित होते रहते हैं। इस समय भी छठ व्रती (परवैतिन) कमर भर पानी में उतर कर नए पूजन-सामग्री से सजे ‘दउरा’ को अपने हाथों पर धारण किए ‘उषा-सूर्य’ का ध्यान करते हैं और फिर उदित सूर्यदेव को अर्घ्य देकर ‘छठ व्रत’ की पूर्णाहुति करते हैं। घाट पर उपस्थित बड़ों का आशीर्वाद लेकर और छोटों को आशीर्वाद देते हुए सभी को ‘छठ प्रसाद’ प्रदान करते हैं।
भारत में सूर्योपासना का इतिहास ऋगवेद काल से रहा है। फिर विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि से होता हुआ मध्य काल में आते-आते ‘छठ सूर्योपासना’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो आज तक अनवरत चलते आ रहा है। कहा जाता है कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसी तरह महाभारत काल में सूर्य के परम भक्त सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। पांडवों की पत्नी महारानी द्रौपदी ने भी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्यदेव की उपासना किया करती थीं।
भारत में अनेक सूर्य मन्दिर हैं, पर छठ पूजा के लिए बिहार प्रान्त के कुछ प्रसिद्ध सूर्य मंदिर – बड़ार्क (बड़गांव, नालंदा), देवार्क (देव, औरंगाबाद), उलार्क (उलार, पालीगंज, पटना), पुण्यार्क (पंडारक, बाढ़), ओंगार्क (अंगोरी), बेलार्क (बेलाउर, भोजपुर), सूर्य मंदिर (गया) झारखंड प्रान्त में बुंडू, (राँची) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। वैसे भी छठ पूजा के लिए मन्दिर की अपेक्षा किसी सलिला या जलाशय की ही आवश्यकता होती है।
छठ पर्व की प्रमुख तिथियाँ :–
नहाय-खाय : 28 अक्टूबर, 2022 शुक्रवार
खरना : 29 अक्टूबर, 2022 शनिवार
संध्या अर्ध्य : 30 अक्टूबर, 2021 रविवार
प्रातः अर्ध्य : 31 अक्टूबर, 2022 सोमवार
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
पश्चिम बंगाल
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com