श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। कहते हैं प्रतिभा किसी पहचान की मोहताज नहीं होती है और न ही मंजिल तक पहुँचने से उसे कोई रोक ही सकता है। जी हाँ, कुछ ऐसी ही बात को सिद्ध कर दिखाये थे, बिहार की मिट्टी के लाल महान गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह ने, जिन्होंने आर्थिक दृष्टि से एक साधारण घर-परिवार में जन्म लेकर अपनी लगन और बुद्धि-बल के आधार पर विज्ञान के क्षेत्र में विश्व स्तर पर अपनी प्रतिभा को स्थापित कर अपने देश का नाम रोशन किया था। पटना के ‘कुल्हरिया कॉम्प्लेक्स’ के एक कमरे में एक वृद्ध को अपने हाथ में पेंसिल लेकर यूँ ही कभी अखबार पर, कभी कॉपी में, कभी दीवार पर, कभी घर की रेलिंग पर कुछ न कुछ लिखते हुए और कुछ न कुछ बुदबुदाते हुए कमरे में चक्कर काटते देख कर किसी भी सचेतन आगंतुक का ध्यान कौतूहलवश अनायास उस ओर खींच जाना स्वाभाविक ही था। सचेतन आगंतुक का आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहता, जब वह जान पाता कि यह मनोविदलता (Schizophrenia) नामक रोग से ग्रसित कुछ असंतुलित-सा दिखने वाला वृद्ध व्यक्तित्व कभी प्रदेश भर में ‘वैज्ञानिक जी’ के नाम से मशहूर था, कभी विश्व के महान वैज्ञानिक न्यूटन के ‘सापेक्ष गति के सिद्धांत’ को चुनौती दिया था। जिसका दिमाग और गणना 31 कंप्युटर से भी पहले और सठिक निकला था। उस महान व्यक्तित्व की प्रतिभा को सम्मान देते हुए पटना विश्वविद्यालय ने अपना नियम तक बदल दिया था। वह विशेष व्यक्तित्व थे, महान भारतीय गणितज्ञ और बिहार प्रांत के लाल डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह, जो अपने आप में एक किंवदंती बन चुके हैं।
पर जैसा कि हमारे नेताओं, विशेषकर बिहार के नेताओं सहित हम लोगों का स्वभाव रहा है, कि ‘हम जीवन का तिरस्कार और मरण का ही सम्मान करते हैं’- इसी के अनुकूल जब तक महान गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह जीवित रहें, तब तक वह सरकारी सही चिकित्सा और सहायता की दृष्टि से उपेक्षित ही रहें। यह बात अलग है कि आज हम उनका गुणगान करते नहीं थकते हैं। उन्हें अपना गौरव बताते हैं। हो सकता है, भविष्य में उनके नाम पर सरकारी-गैर सरकारी कई ‘जयंतियाँ’ मनाई जाएंगी। उनके स्मरण में सरकारी तौर पर सड़क, चौराहें, विद्यालय, महाविद्यालय, शिक्षण संस्थान, विश्वविद्यालय, प्रेक्षागृह आदि का भी निर्माण भी हो। पर यह भी सत्य है कि हमारी सरकारें, प्रशासन तथा बुद्धिजीवी वर्ग की संस्थाएँ अपने उस ‘नायाब हीरे’ को सहेज कर रखने में पूर्ण-रूपेन नाकाम ही रहे हैं।
डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म 2 अप्रैल 1942 में बिहार के तत्कालीन भोजपुर जिले के बसंतपुर नामक गाँव में आर्थिक दृष्टि से एक साधारण घर-परिवार में हुआ था। इनके पिता लाल बहादुर सिंह पुलिस विभाग में एक कांस्टेबल के रूप में कार्यरत थे और इनकी माता लाहसो देवी एक साधारण गृहिणी महिला थीं। बचपन से ही वशिष्ठ नारायण सिंह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। सन 1962 ईo में उन्होंने प्रसिद्ध ‘नेतरहाट विद्यालय’ से मैट्रिक की परीक्षा में तत्कालीन संयुक्त बिहार प्रांत में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए थे। उच्च शिक्षा हेतु वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के ‘पटना साइंस कॉलेज’ में भर्ती हुए। वहाँ पर गलत पढ़ाने पर वह एक अध्यापक को अक्सर टोक दिया करते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल तक वह बात पहुँची। प्रिंसिपल साहब ने वशिष्ठ नारायण सिंह की बौद्धिकता की परीक्षा लेने की अलग से व्यवस्था की, जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ कर विशेष अंक प्राप्त किये थे। वहाँ के गणित के प्रोफेसर टी. नारायण, उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने वशिष्ठ नारायण सिंह में B.Sc टॉप करने की अद्भुत क्षमता की थाह पा ली थी। फिर उन्होंने डॉ. एन.एस. नागेंद्रनाथ (वैज्ञानिक सी. वी. रमण के सहयोगी रह चुके) की सहायता से तत्कालीन बिहार प्रांत के राज्यपाल से वशिष्ठ नारायण सिंह को B.Sc फाइनल की परीक्षा में बैठाने का विशेष अनुरोध किया, जो उस समय B.Sc पार्ट -1 के छात्र थे। उनके लिए पटना विश्वविद्यालय को अपने कानून में विशेष बदलाव करना पड़ा और उन्हें B.Sc. आनर्स के तीन वर्षीय पाठ्यक्रम की परीक्षा में बैठने की अनुमति मिल गई। इस परीक्षा में भी उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर सभी को चकित कर दिया।
जब वशिष्ठ नारायण सिंह पटना साइंस कॉलेज में ही पढ़ते थे, तब ही उन्होंने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत (Theory of Relativity) को चुनौती भी दी थी। उस समय उनकी विलक्षण शैक्षणिक प्रतिभा को हजारों मील दूर स्थित ‘कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय’ के प्रोफेसर जॉन कैली ने पहचाना और 1965 में वे पटना आए। वशिष्ठ नारायण से मिलने के बाद वे उनसे बहुत ही प्रभावित हुए। फिर वे उन्हें अपने साथ अमेरिका ले गए। 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से गणित में ‘पीएचडी’ की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में ‘एसोसिएट प्रोफेसर’ बन गए। 1969 में ही ‘द पीस आफ स्पेस थ्योरी’ तथा ‘चक्रीय सदिश समिष्ट सिद्धांत’ (Cyclic Vector Macro Theory) विषय पर उनके शोध पत्रों ने उन्हें विज्ञान की दुनिया में उन्हें प्रसिद्ध कर दिया। फिर ‘बर्कले यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया’ ने उन्हें ‘जीनियसों का जीनियस’ कह कर सम्मानित किया। इसी दौरान अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित विश्व का नायाब संस्था ‘नासा’ में भी डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को काम करने का मौका मिला। कहा जाता है कि 1969 में जब ‘नासा’ का ‘अपोलो मिशन’ लॉन्च हुआ था, जिसमें पहली बार इंसान को चाँद पर भेजा गया था। उस मिशन के कार्य दल में वह भी शामिल थे। इस मिशन के दौरान कुछ देर के लिए ‘नासा’ केंद्र के सभी 31 कंप्यूटर एक साथ अचानक बंद हो गए थे। उस वक्त डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह ने मानवीय गणक कर हिसाब निकाला था। बाद में जब बंद कंप्यूटर चालू हुए तो उनका और कंप्यूटर का कैलकुलेशन बिल्कुल एक समान ही था। जिसे देख कर उस मिशन में उपस्थित सभी उच्च श्रेणी के वैज्ञानिकों ने इनकी विलक्षणता का लोहा माना था।
‘नासा’ में काम करने के दौरान ही डॉ. विशिष्ठ नारायण सिंह की प्रतिभा को देख कर अमेरिका ने डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को स्थायी तौर पर वहाँ रहने और सभी सुविधाएँ देने की पेशकश भी की थी, पर उन्हें तो विदेश में भी अक्सर अपने देश की मिट्टी की याद सताती रही। वहाँ उनका मन नहीं लगा और 1971 स्वदेश लौट आए। वह अपने साथ पुस्तकों से परिपूर्ण दस बक्से भी साथ लाए थे। भारत में उन्होंने समयानुकूल ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ कानपुर, ‘टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च’ मुम्बई तथा ‘भारतीय सांख्यकीय संस्थान’ कोलकाता में भी काम किया। बाद में वे ‘भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय’ मधुपुरा, में एक अतिथि प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए थे।
इस दौरान सन् 1973 में डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के घर वालों ने इनकी शादी वंदना रानी सिंह से करावा दी। परंतु उनमें पढ़ने और कुछ गुनने की आतुरता इस कदर थी कि जिस दिन उनका विवाह होना तय था, उस दिन भी पढ़ाई के कारण उनकी बारात बहुत देर से ही निकली थी। कहा जाता है कि विवाह के बाद ही धीरे-धीरे उनके व्यवहार में कुछ असामान्यता दिखने लगी थी। इसी के आस-पास ‘आई.एस.आई.’ कोलकाता, में सेवाकाल के दौरान अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी बहुत ही परेशान रहा करते थे, क्योंकि वहाँ के कई वरिष्ठ प्रोफ़ेसर्स उनके शोध-विषय को अपने नाम से छपवा लिया करते थे और यह बात उनको बहुत परेशान किया करती थी। अक्सर वह छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाया करते, अपने आप को कमरे में अकेले बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहते, रात-रात भर जागते रहते, किसी से कोई बातचीत भी न किया करते थे।
ऐसी ही मानसिक विकलता की स्थिति में सन् 1974 में उन्हें पहला दिल का दौरा भी पड़ा था। घर वालों ने उनका इलाज कांके, रांची के मानसिक आरोग्यशाला के माध्यम से करावाते रहा। इसके बाद से ही तो उनकी जिंदगी क्रमशः दर्दनाक होती ही चली गई। उनके असामान्य व्यवहार से उनकी पत्नी वंदना रानी सिंह बहुत ही परेशान रहा करती थी। कुछ वर्षों तक तो वह सब कुछ सहन की, पर बाद में 1976 में वह उनसे अपना वैवाहिक संबंध विच्छेद कर ली। शायद यह डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के लिए एक बड़ा सदमा-सा रहा था।
सन् 1987 में वशिष्ठ नारायण जी कांके, राँची के मानसिक आरोग्यशाला से कुछ ठीक होकर अपने गाँव बसंतपुर लौट आए। सरकार द्वारा उनके इलाज के लिए दी जाने वाली वित्तीय मदद ऊँट के मुँह में जीरा साबित होती रही थी। फलतः उनका उचित और क्रमगत इलाज नहीं हो सका। उनको पुनः अगस्त 1989 को रांची में इलाज कराकर चिकित्सकों के परामर्श पर उनके भाई अयोध्या नारायण सिंह उन्हें बंगलुरू ले जा रहे थे कि रास्ते में ही खंडवा स्टेशन पर वशिष्ठ नारायण सिंह उतर गए और फिर भीड़ में ही न जाने कहीं खो गए। एक लंबी अवधि तक कोई भी सरकार गुम हुए डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की सुध तक न ली। करीब 5 साल तक वह गुमनाम ही अज्ञात जगहों पर अज्ञात अवस्था में रहें। फिर अचानक एक दिन उनके गाँव के लोगों ने उन्हें छपरा में विक्षिप्त अवस्था में देखे। इसके बाद बिहार राज्य सरकार ने उन्हें ‘राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान’ बंगलुरू इलाज के लिए भेजा दिया। जहाँ मार्च 1993 से जून 1997 तक उनका इलाज चला।
फिर अपने गाँव बसंतपुर में ही आकर रह रहे थे। स्थिति ठीक नहीं होने पर पुनः उन्हें 4 सितम्बर 2002 को ‘मानव व्यवहार एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान’ (Institute of Human Behaviour and Allied Sciences, IHBAS) नई दिल्ली, में भर्ती कराया गया। करीब एक साल दो महीने उनका वहाँ पर भी इलाज चला। इस अवस्था में भी उनकी पठन-पाठन संबंधित क्रिया-कलाप न रुकी। अक्सर किसी छोटे बच्चे की तरह ही उनके लिए भी तीन-चार दिन में एक मोटी कॉपी और कई पेंसिलों की आवश्यकता पड़ती ही रहती थी । कॉपी से लेकर, दीवार, बिछावन, लोहे के रेलिंग आदि पर वह कुछ न कुछ लिखते ही रहते थे। शायद विज्ञान संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें रही हो, लेकिन, साधारण जन की समझ के परे ही हुआ करती थी। ऐसी स्थिति में भी वह अक्सर ‘श्रीरामचरितमानस’ का भी सस्वर पाठ किया करते थे। उनकी मानसिक स्थिति और घर की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रख कर कई संस्थाओं ने डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को गोद लेने की पेशकश की थी। लेकिन उनकी माता जी को यह स्वीकार न था। फिर 14 नवम्बर 2019 को डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की तबीयत ज्यादा खराब होने के कारण ‘पटना मेडिकल कॉलेज व अस्पताल’ में ले जाया गया, जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
इस तरह आर्यभट्ट और रामानुजम की वैज्ञानिक परंपरा को विस्तारित कर पाने वाले एक महान गणितज्ञ का बड़ा ही दर्दनाक मौन अंत हो गया। वशिष्ठ नारायण सिंह जी चले गए। हमारी मिट्टी का वह सितारा जिसने कभी अपनी प्रतिभा का डंका पूरे विश्व में पीटा था। वह गणितज्ञ, जो यदि बिहार की जगह अमेरिका में होते, तो ऐसा होता कि उनके होने का मिसाल ही बन गया होता…। वास्तविक तथ्य तो यह है कि उस नायब अनमोल हीरे को हम सभी बुद्धिजीवियों ने ‘घूरे के ढेर’ में जानबूझ कर कहीं खो दिया। उस महान गणितज्ञ के अंतिम समय में भी किताब, कॉपी और पेंसिल ही उनके सबसे करीब ही रहे थे। बिहार सरकार ने डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के पार्थिव शरीर की राजकीय सम्मान सहित अंत्येष्टि करवाई और केन्द्र सरकार ने उन्हें 2020 में मरणोपरांत उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
मैं अपने इस विशेष लेख के माध्यम से बिहार सहित भारत के अप्रतिम लाल को अश्रूपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पण करता हूँ तथा उन तमाम लोगों को, जिन्होंने अपने को अनाम और गुमनाम रखते हुए, डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की सेवा-सुश्रुषा संबंधित प्रबंध किए थे, उन सबको हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन और नमन करता हूं।
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