भागीरथी यात्रा (कहानी) : श्री राम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा

पैसठ वर्षीय मुलेसर चाचा अपने घर के बाहर मिट्टी के बने चबूतरे पर बैठे किसी विशेष सोच में विमग्न थे। निराश मन से कभी सुखी धरती को और कभी क्रमशः बढ़ते अंधकारयुक्त गगन मंडल को देख रहे थे, जिसमें अब तक कई टिमटिमाते सितारें जुगनू सदृश दिखाई देने लगे थे, जो धरती पर पसरी अंधकार को दूर करने के लिए सामूहिक प्रयत्न कर रहे थे, पर वे भी सम्मिलित भाव से लाख कोशिश करके भी सफल नहीं हो पा रहे थे। कुछ ही दूर पर मुलेसर चाचा के द्वार पर रखी ढिबरी की डगमगाती लौ ही कुछ हद तक अंधकार को जबरन कुछ दूर करने में सफल हो रही थीI

“मुलेसर चा! अबकियो बार पानी के बिना खेतवा सब परीते रह गेलई हो। कुछ समझे में न आवइत हई, जे का कइल जाय।” गमछा लिये हाथ को माथे पर रखे शिबसंकर ने बड़ा ही चिंतित स्वर में कहा।
“ए शिबसंकर! तू न देखलअ I ई साल कइसे लहलहाइत समूचा खेत पानी के बिना निसप्रान होके धरती पर लोट गेलई हो। जइसे कि पानी के बिना मछरियन तड़प-तड़प के मर जा हई।” – चिंताग्रस्त अपने झुके हुए सिर को अपने दोनों जुड़े हुए हाथों से सहलाते हुए जीतन महतो ने कहा।

“का कहिव बाबू , इहे खेत में हम सब एतना फसर पैदा कर लेव हली कि परिवारजन, हित-कुटुम और जग-जजमान सबके पुरती हो जा हलई हो। अब तो बाल-बच्चा और परिवार के पेट पाले में भी आफत हो गेलइ हो।“- मुलेसर चाचा की अनुभवी आँखों में इस समय आसमान में बढ़ती अंधियारी के समान ही दुःख के भाव भी गहरे होते जा रहे थे। उनकी अन्वेषी आँखें कहीं दूर-आसमान में खोई हुई अनजान भविष्य को देखने की कोशिश करती जान पड़ीं।

‘अन्खुरी’ गाँव में ज्यादा लोग गरीब खेतिहर ही हैं। किसी के पास भी तीन-चार बीघे खेती की जमीन से अधिक नहीं है। इन्हीं में वे लोग सालों भर बाल-बच्चा सहित पूरे परिवार और हल-बैल के साथ लगे रहते हैं, तब जा कर बड़ी मुश्किल से वर्ष भर का खर्चा निकल पाता है। भला हो सरकारी ‘मनरेगा’ का, जो कि बैठकी में इन्हें कुछ नगद का जुगाड़ हो जाता है। लेकिन वह भी ग्राम पंचायत सदस्य को बिन नेग चढ़ाये संभव नहीं हो पाता है। इस साल मुखिया कोटा से गाँव की गलियों का पक्कीकरण हुआ, उसमें भी कुछ काम मिल जाने के कारण गाँववालों को कुछ नगद प्राप्त हो गया। नहीं तो ‘रामनवमी’ में पुआ और टेकुआ भी नसीब न होता।

“हम तो पिछले साल से तोहनी से कहित आवइत हीव कि जब तक “परछाव’ गाँव के नहर से पानी न अतव, तब तक खेत में बिहन तक न होतव। पर हमर बूढ़ बात तोहनी के ठीक थोड़े ही लगतव। सब कुछ तोहनी खातिर कोई कर के देतव, तब न तोहनी के जीवन चलतव। तो बइठल रहअ हाथ पर हाथ धर के। अब तो हर साले खेत में मरऊनि पड़ते ही रहतव।“ – मुलेसर चाचा की अनुभवी बातों में कुछ सलाह और कुछ प्रताड़ना दोनों के स्वर मिश्रित थे। चाचा की बातें शायद उन लोगों के मन में विशेष परिश्रम हेतु कुछ भाव जागृत कर देवे।

“लेकिन मुलेसर चाचा! ई तो सरकार के काम हई न, कि हमनी के?” – मुलेसर चाचा के सामने बैठा बिरजू महतो का बेटा गोरखा ने कहा, जो कुछ दिन पहले जिला शहर में सरकारी सड़क बनाने में एक ठीकेदार के पास रह कर कुछ पैसा कमा आया था। “हाँ बाबू , तू ठीके कहलअ। सरकारे तोरा खाना भी बना के खिया जतव। जीवन भर इहे सपना तू देखित रहिह। दू पइसा के जे गर्मी हो गेल हव न, उ तो एको महिना न रहतव बाबू।

अरे, कउनो समसया के सही अउर बराबर उपाय करे के चाहीं, न तो एक दिन बाल-बचा सहित तोहनी सबके सब भूखे मरब जाके। केतना दिन बाहर के काम के भरोसे रहब सब। उ तो हवा के एगो झोंका हव, कभी-कभार भगवान भरोसे आ गेलव और तोहनी के मिल गेलव। इहे चलते हम तोहनी सब से कब से कहइत आविट हिव कि ‘परछाव’ के नहर से पानी लावे के कोई सही उपाय करअ।” – मुलेसर चाचा अपने अनुभव के बल पर निर्णायक और आदेशात्मक स्वर में बोले।
“का होलव, सपता भर पहले तू तो गेल हल न, मुखियवा के पास, मुखियवा तोरा का कहलव। गरिया के भगा देलव की न?” – गोरखा भी कुछ उतेजित होकर बोला।

“तो अपन बाल-बचा अउर परिवार के उ मुखियवे के भरोसे छोड़ दअ सब, ओहनी सब के मरे दअ I इतना तो तोहनी से न होइथव कि खेत में कइसहूँ पानी लावे के कोई बराबर उपाय करल जाय।” – मुलेसर चाचा को कुछ उतेजित हो जाना स्वाभाविक ही था I आज वह लाचारी में भले ही बूढ़े हो गए हों, पर मन से वे अभी भी जवान ही हैं I एक समय था जब वह अपने साथ पड़ोस के खेत को भी देखते ही देखते जोत दिया करते थे। अभी भी खेती के काम में जवान शिबसंकर और गोरखा इनकी बराबरी नहीं कर पाते हैं।

“अरे चाचा! ‘परछावा’ का दू डेग पर हई? यहाँ से दू कोस पर हई। उहाँ से पानी लावेला कोई खेल हई का? कउन अपन काम-धाम छोड़ के दू कोस नहर से पानी लावे लागी करहा काटइत रहतव।“- यह कथन शिबसंकर का था। कभी किसी काम में उसका मन न लगता है। यही कारण है कि बाप का छोड़ा हुआ चार बीघा खेत अब डेढ़ बीघा पर आ सिमटा है।

“केऊ के तो आगे बढ़ही पड़तव, अब तोहनिये सोच ल। हमरा से तो खेत के ई रूप देखल न जाइत हे। खेत में पानी के बिना फसल न होतई, अउर फसल के बिना हमनी के बाल-बचा भूखे मरतथी जाके, ईतो हम न देख सकबव।” – मुलेसर चाचा मन ही मन कुछ कठोर योजना बना रहे थे, जो उन सब के समझ के परे ही था। भला अपनी आँखों के सामने ही अपने गाँव के लोगों को भूखे से तड़पते-मरते कैसे देख सकते थे।

“चलअ उठअ, बहुत हो गेलव मीटिंग-सिटिंग। तोरा खियावे लागी रात भर कोई बइ्ठल रहतव का? और कोई काम-धाम न हई का? बुझाइत हई कि गाँव भर के दुःख तोरे माथे पर रखल हव। तोहनियों जाई जाके अपन-अपन घर।” – यह मुलेसर चाचा का बड़ा बेटा गोबरधन था। खेती के काम में उसका भी मन नहीं लगता था। इसीलिए वह पास के क़स्बा-बाजार में जाकर लकड़ी की एक दुकान में काम किया करता था। जो सबेरे जाता, तो फिर रात गए ही लौटता था। घर का अधिकांश खर्च उसी की कमाई पर निर्भर था। मुलेसर चाचा न चाहते हुए भी उठे और अपने द्वार की ओर चले। फिर एक-एक करके अन्य लोग भी अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान किये।

रात्रि में खा-पीकर मुलेसर चाचा अपनी एक टूटी हुई खटिया पर लेटे तो अवश्य, पर उनको चैन कहाँ था? आज उनका मन उनके आधीन न था I खेतों तक पानी कैसे पहुँचे, यही बात उन्हें सोने नहीं दे रही थी। उनकी आँखें तो खुली एकटक फूस के बने छप्पर एक बड़े से छेद से आकाश में टिमटिमाते एक तारे पर टिकी हुई थीं, पर उनका ध्यान तो बार-बार खेतों में पसरी सुखी फसलों पर जाकर केन्द्रित हो जाता था। मन की बोझ पलकों को गिरने ही नहीं देती थी। ऐसे ही अर्ध रात्रि बीत गई। दूर से सियार के ‘हुआ’-‘हुआ’ बोलने की और उसी के राग में गली के कुत्तों के चिल्लाने की सम्मिलित आवाज रात्रि की गम्भीरता को भयानक बना रही थीं I

चाचा ने किसी से सुना था कि रात में कुत्तों का रोना अपशकुन होता है। तो क्या यह किसी आगत अपशकुन की ओर ईशारा कर रहा है? हृदय किसी अनहोनी घटना की कल्पना कर जोर से धड़क उठा। दो वर्ष पहले भी इसी तरह अर्ध रात्रि में अचानक कुत्ते रोने लगे थे और अगले ही दिन दुपहरिया में ऐसा भूकम्प आया कि गाँव के मिट्टी-खप्पड़े से बने अधिकांश घर ढह गए थे। बेचू भगत, फेंकन पसवान, गनउरी कहार और बुलकी भउजी के मृत शरीर सांझ तक मलबे में से निकले गए थे। सोहला और बिकाऊ भाई के मवेशी भी तो उसी में दफ़न हो गए थे।

गम्भीर काली रात्नि की सन्नाटे में गाँव वाले तो निश्चित सो रहे थे I लेकिन मुलेसर चाचा की कम्पित जीभ धीरे से बुदबुदाया, – “हे भगवान अब तोरे भरोसा हे।” और इस काली अंधियारी रात्रि में मुलेसर चाचा ने सबके हितार्थ मन ही मन एक अति कठोर संकल्प धारण किया, – “चाहे कुछो हो जाये, पर गाँव के खेत-खलिहान तक पानी जरुर ले आएम हम। अगला साल से गाँव के केकरो खेत के फसल पानी बिना न मरे देम हम।“ – हृढ़ संकल्प की तेज धार ने मन की सारी दुविधाओं को एक-एक कर कहीं बहा ले गई I मन चिंता के बन्धनों से मुक्त हो गया I चिंतारहित आँखें लग गईं।

अब मुलेसर चाचा का शांत मन स्वप्न-लोक में विचरन करने लगा। मुलेसर चाचा अपने आप को लम्बे घने बालों से युक्त ‘भागीरथ ‘ के रूप में देखते हैं और माता गंगा उनके सम्मुख साक्षात खड़ी हैं। वह चाचा से कहती हैं, – “चल बेटा! मुझे कहाँ चलना है? तू आगे-आगे चल, मैं तेरे पीछे-पीछे चलूँगी।“ – और मुलेसर चाचा आगे-आगे चल पड़े। उनके पीछे-पीछे माँ गंगा अपने कोमल हाथों में सोने के लोटे में जल लिये चल पड़ी। कभी-कभी मुलेसर चाचा पीछे मुड़ कर माँ गंगा को देख लेते हैं। माँ गंगा भरोसा देती है, – “तू आगे-आगे चल। मैं धरती की प्यास बुझाए बिना अब न लौटूँगी।“- मुलेसर चाचा विजयी हँसी से हँस पड़े।

“पगला गेल ह का? सुतल-सुतल हँसइत ह। उठअ, गाय-बैल के सानी-उनी पड़तई कि न।“- गोबरधन के इस कथन को सुनकर मुलेसर चाचा स्वप्र-लोक से नर-लोक में लौट आये। मन बड़ा ही प्रसन्न और संतुष्ट था। गंगा मईया का आशीर्वाद और आदेश प्राप्त हो चूका था। मन का सारा बोझ ही उतर गया था। उस परम आनंद के रहस्य को गोबरधन न जान पाया I गोबरधन खा-पीकर काम पर जा चूका था। मुलेसर चाचा स्नान कर राम-ध्यान किये और जो कुछ भोजन मिला, उसे माँ अन्नपूर्णा का प्रसाद समझ कर ग्रहण किये। हाथ में एक कुदाल लेकर चल पड़े।

मुलेसरी चाची को सात-आठ साल पहले ही पीलिया अपने साथ लेकर चला गया था। बहु धनवंतिया अक्सर भीतर ही रहती थी। छोटा बेटा परसा को अभी घरेलू काम-काज से कोई मतलब था ही नहीं। राह में ही बनिया टोला के रामटहल साव के किराने की छोटी-सी दुकान से थोड़ा बतासा साथ ले लिये और जा पहुँचे गाँव की दुसियानी पर।

मुलेसर चाचा सरकारी गैरमजरूआ जमीन पर बड़ी भक्ति-भाव से गोबर से लिपाई की और बतासा रख कर धूपबत्ती जलाये। धरती माता को प्रसन्न कर जगत कल्याण से प्रेरित इस सुखी धरती की प्यास बुझाने के लिए मुलेसर चाचा ने ‘अर्जुन-बाण’ स्वरूप कुदाल से कठोर धरती पर “ठक” शब्द से पहला वार करते हुए महा अनुष्ठान हेतु शंखनाद किया। पास के पीपल-पेड़ की पत्तियाँ कर-तल द्वारा हर्ष ध्वनि कर उनका अभिवादन कीं। फिर तो “ठक” शब्द की अनगिनत पुनरावृति होने लगी I संकेत मिल रहे थे कि अब यह कुदाल अपनी मंजिल प्राप्ति के पूर्व न रुकेगा।

सचमुच, फिर तो चाचा का वह कुदाल रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था। कुदाल तभी रूकता, जब ढेर सारी मिट्टी काट चूका होता और चाचा उसे बाहर किनारे में करने लगते। चाचा की इन बूढ़ी हड्डियों में न जाने कहाँ से असीम ताकत छुपी हुई थी। इतिहास गवाह है, ऐसी ही बूढ़ी हड्डियों ने समय-समय पर समाज और देश को बहुत सहारा दिया है। सांयकाल तक मुलेसर चाचा लगभग तीन फीट चौड़ी, तीन फीट गहरी और बीस फीट तक लम्बी करहा काट चुके थे। गाँव के ही एक-दो युवक चाचा के इस कार्य को देखें जरूर, पर एक व्यंग्यात्मक हँसी के साथ आगे बढ़ गए। पसीने से लथपथ थके-हारे बैल के सामान मुलेसर चाचा घर पहुँचे।

“तोरा का पडल हव, अकेले मरे लागी? एगो तोरे खेत में मुयानी पड़ल हई कि गाँव के दूसरे के खेत में भी मुयानी पड़ल हुई। चलल हथन अपन जान देवे। बीमार-उमार पड़ गेल तो फिर करइत रहिह गाँव भर के सेवा।“- गोबरधन को घर पहुँचते ही खबर लग गई थी कि मुलेसर चाचा दिन भर अकेले करहा काटने में जुटे रहे हैं। “बाबू , अगर हम बीमार-उमार हो जायेम, तो तू हमरा इलाज-उलाज न करइह। गाँव के कउनो लोग साथ देतन या न देतन, पर हम तो अब सबके खेत में पानी लाइए के ही दम लेबव।”- मुलेसर चाचा ने अपना हृढ़ निश्चय सुनाया।

“जा, तोरा जे बुझाइत हव उ करअ। तोरा से बोलला भी डांड़े हे।“- क्रोध व्यक्त करता हुआ गोबरधन घर में प्रवेश किया। उसका कहना भी कोई निरर्थक नहीं था। वह बराबर से देखते आया है कि उसके गाँव वाले बड़े ही स्वार्थी हैं। जब उसको अपने खेत की जोताई करनी थी, तब उसने गाँव के कई लोगों से मदद की गुहार की, पर हर कोई कुछ न कुछ बहाना बना के टाल दिया। यही कारण है कि उसका खेत सबसे पीछे जोताया और बोआया। गाँव वालों का तो सिद्धांत ही है ‘दाम लगे तो टिका भर, मुफ्त मिले तो लिलार भर।’ ऐसे लोगों के लिए अपना खून-पसीना बहाना मुर्खता नहीं तो और क्या है? पर मुलेसर चाचा को अपने फायदे या नुकसान की परवाह ही कहाँ थी? वे तो गाँव भर की इज्जत और जीवन को बचाना ही अपना सबसे धर्म और कर्तव्य मानते आये हैं। स्वार्थ उन्हें लेशमात्र भी छू न पाया है।

अब तो मुलेसर चाचा का दैनिक कार्यक्रम ही करहा को काटना बन गया है। शुरुआत में गाँव वाले उनको एक सनकी के सिवाय और कुछ न मानते थे। इसी तरह गाँव के लोग मुलेसर चाचा पर व्यंग्यात्मक हँसी भी हँसते और उनके कार्य को भी नजरंदाज किया करते थे। अधिकांश धर्म और समाज सुधारक से लेकर बड़े वैज्ञानिक तक, सबको लोगों ने पहले सनकी ही माना। बाद में ही उनकी स्तुति गाई गई है। देखते-देखते मुलेसर चाचा महिना भर में लगभग आध कोस भर करहा अकेले काट डाले। अब जाकर गाँव के कुछ लोग उनके कार्य की बड़ाई भी करने लगे। हर अच्छे कार्य-व्यवहार को अपनी सत्यता की अग्नि परीक्षा देनी ही पड़ती है। तदनुरूप मुलेसर चाचा को भी प्राकृतिक तथा कृत्रिम दोनों परीक्षा देनी पड़ी।

गर्मी के दिन थे। ऊपर से सूरज महाराज निरंतर अग्नि बरसा रहे थे और नीचे धरती भी तप्त तावा बनी हुई थी। इन दोनों के बीच मुलेसर चाचा निरंतर सींझ रहे थे। शाम को घर लौटे, तो उनका शरीर तेज बुखार के साथ तप रहा था। शरीर टूटने लगा था। क्षण-क्षण में बेहोशी छा रही थी। बार-बार मुँह सूखने लगा था। अनुभवी बूढ़ा शेर समझ गया कि ‘लू’ ने उन्हें पछाड़ दिया है। गाँव में आग की तरह खबर फ़ैल गई कि मरघटिया के पिपरा पर रहने वाला ‘गुलेर बा’ का भूत मुलेसर चाचा को पछाड़ दिया है। किसी ने देवी-स्थान की मिट्टी माथे पर लपेटने की सलाह दी, तो किसी ने नीम की सुखी पत्तियों सहित लाल मिर्च जला कर नियुच्छा करने की और किसी ने पास के गाँव के भुर्तानिया मौलवी को बुलाकर फूँक मरवाने की सलाह दी। पर चाचा अपनी स्थिति से भली-भांति परिचित थे।

इन दकियानूसी बातों पर उन्हें जरा भी विश्वास न था। उन्होंने अपनी बहु धनवन्तिया को आम का पाना बनाने और साथ में प्याज के साथ कुछ मिश्री और जीरा को पिस कर पानी के साथ देने को कहा। उनकी बहु अपने ससुर में अपने स्वर्गीय पिता की छबि देखती थी। वह बड़ी फुर्ती से इन सामानों को एकत्रित कर जैसा कहा, वैसा ही बना लायी। पहले उनके पूरे शरीर को कुएँ के ठंढे पानी में गमछे को भींगा-भींगा कर कई बार पोंछी, फिर आम का पाना और बाकी चीजें साँझ से देर रात तक तीन-चार बार दी। धनवंतिया की सेवा सफल हुई।

रात में ही बुखार उतरता मालूम हुआ। गोबरधन तो उनसे पहले से ही चिढ़ा हुआ था, पर कुछ सोच-समझकर अपनी पत्नी को उनकी सेवा-भाव करने से न रोका। धनवंतिया की सेवा-भाव के समक्ष बेचारा बुखार भी समझ गया कि उसका यहाँ रुकना सम्भव नहीं है। अतः पराजित होकर मुलेसर चाचा के शरीर को दो दिनों के बाद ही छोड़ दिया। अगले दिन से फिर चाचा अपने नियत कर्म पर। लेकिन अब गाँव के कुछ समझदार लोग स्वयं आगे बढ़कर मुलेसर चाचा का साथ देने लगे। फिर तो लगभग महीने भर बाद ही कार्य अपने लक्ष्य तक जा पहुँचा। पर यह क्या? लक्ष्य तक पहुँच कर भी लक्ष्य अभी दूर! ‘परछाव’ गाँव के कुछ लोग नहर पर आ डटें।

“तोर इ करहा कोनो कीमत पर इ नहर से न जुटतव।“- परछाव गाँव का एक ग्रामीण ने ताल ठोकते हुए प्रबलता से कहा। उसके समर्थन में उस गाँवके कई अन्य लोग भी दम भरने लगें। “तब तोहनी का चाहित ह कि हमनी के खेत पानी के बिना हर साल मरते रहे। हमनी के बाल-बचा अन्न खातिर तरसते रहे और भूखे मरते रहे।“- क्रोध को शान्ति से विजय की कामना से मुलेसर चाचा ने विनय और आग्रह के स्वर कहा।
“उ सब हमनी कुछो न जानी। बस तोर करहा में इ नाहर के पानी न जतव।”- उस गाँव के एक अन्य ग्रामीण ने भी चेताया। बात बढ़ती जा रही थी। दोनों गाँव के लोगों के बीच तनाव बढ़ने लगा था। मुलेसर चाचा समझ गए कि तनाव से समस्या का कोई समाधान न होगा। अतः अगले दिन पंचायत और मुखिया द्वारा फैसले पर कार्य निर्णय छोड़ कर अपने सहयोगियों के साथ वापस गाँव लौटे आये।

अगले दिन बहुत सबेरे ही मुलेसर चाचा दूसरे गाँव में बसे मुखिया और पंचायत के विभिन्न सदस्यों के पास दिन भर चक्कर लगाते रहें, पर दुर्भाग्य से किसी से मुलाकात न हुई । दिन भर घर लौटने की भी फुर्सत ही न मिली। आज कहीं उन्हें भोजन तक नसीब न हुआ। केवल दया भाव से प्राप्त पानी पर ही भीषण गर्म दिन काट गये। सूर्यास्त के बाद निराश मन से गाँव की ओर लौटने लगे। कितना भी शरीर तो आखिर बूढ़ा ही था। अब वह खाली पेट साथ न दे रहा था। पाँव भी डगमगाने लगे। सही खुराक मिले तो मर्द कभी बूढ़ा नहीं होता है। किसी तरह गाँव की दुसयानी पर अपने काटे हुए करहा तक पहुँच गए। अब शरीर में गस्ती (बेहोशी) छाने लगी। वहीं करहा में ओठंग कर बैठ रहें। पता नहीं, कब उन्हें मूर्छा आ गई।

इधर बेचारी बहू धनवंतिया को चैन कहाँ? सबेरे से ही बिन खाय-पीये जो गए हैं। अब तक न लौटे। कहीं कुछ हो तो नहीं गया। अनायास बेचारी स्वयं को अपराध बोध महसूस करने लगी। “ए जी! सुनइत ह I थोड़ा जा के देखते हल। बहुत रात हो गेलई। सबेरे से जे गेल हथी, अब तक न लौटल हथी I खनो भी न खैले हथी।“- धनवंतिया बड़ी खुशामद भाव से अपने हठी पति गोबरधन से बोली । “हमरा अभी परेसान मत कर। दिन भर गोला में काम करइत-करइत हमर अपने जान जाइत हे। रातो में आराम न। जाय दे, उनकर जहाँ मन करे। हमरा सुते दे।“- इधर पिता की जिद से वह भी उनसे काफी चिढ़ा ही रहता था। पहले तो अक्सर रोक-टोक किया करता था, पर अब वह बिल्कुल ही चुपी साथ लिया था। यही तो है बेटे और बहु में अंतर। फिर भी अक्सर बहु ही दोषी मानी जाती है।

“हे भगवान अइसनो बेटा होव हथी, कि बाप कहाँ मरइत होतथी, अउर बेटा घर में सुतइत हथी। ठिके हव तू सुतअ, हम उनका खोजे जाइत हिव।“- धनवंतिया बेचारी अपने देवर परसा को उठायी और ससुर को खोजने घर से निकली पड़ी। पर गाँव भर चक्कर लगा ली। लेकिन उसे अपने पिता तुल्य ससुर न मिलें। थक-हार कर घर लौट आयी। परसा भी खेत-बधार तक देख आया, पर वह न मिलें। सभी ने सोचा दूसरे गाँव में किसी के पास रुक गए होंगे। अक्सर ऐसा होता भी था। ससुर के लिए चिन्तित बेचारी बहु धनवंतिया उस रात खाना तक न खाई।

इसे संयोग कहे या देव कृपा। उसी दिन शाम के समय एक गाय मतवालेवश मुलेसर चाचा द्वारा काटे गए करहा से सम्बद्ध नहर की मिट्टी को अपने सींगों से उखाड़ते-उखाड़ते कमजोर कर दी। नीचे की मिट्टी पानी के कारण मुलायम थी ही, उसमें से पानी की एक पतली श्रोत फूट गई और अपने साथ दोनों गाँव के सारे मतभेदों को बहा ले चली। अगले दिन प्रभात बेला में ही गाँव भर में शोर मच गई कि मुलेसर चाचा गाँव की दुसियानी पर अपने बनाये करहा में मरे पड़े हैं।

गोबरधन को तो काटो तो खून नहीं। यह क्या अनर्थ गया? अब वह गाँव वालों को अपना मुँह कैसे दिखलायेगा? बची खुची इज्जत को बचाने के लिए वह जैसे था, वैसे ही दौड़ पड़ा। धनवंतिया तो परसा के साथ पहले ही जा चुकी थी। मुलेसर चाचा का निष्प्राण-सा शरीर उनके द्वारा काटे हुए करहा में पड़ा हुआ था। गाँव के कई लोग उन्हें घेरे हुए खड़े थे। आज लोगों में उनके प्रति वास्तविक सहानुभूति और प्रेम था।

“अरे अभी इनकर साँस चलइत हुई। चलअ जल्दी से इनका असपताल में ले चलअ।“- गाँव के ही बिलसवा के अनुभवी बाप रमेसर कुर्मी मुलेसर चाचा के शरीर को हिला डुला कर उनकी छाती पर कान रख कर किसी अनुभवी बैद्य के समान बड़ी फुर्ती से कहे। गोबरधन सहित कुछ लोग मुलेसर चाचा को उठाने लगे। लेकिन चाचा के शरीर में तभी कुछ हरकत हुई और फिर उन्होंने धीरे से हाथ उठाकर उठाने से मना किया।

“अब हमरा कहीं मत ले जा। यही हमर अंतिम पडाव हेI हमर गंगा मइया आवइत हथन। हमरा कहीं न ले जा।“- निर्बल लड़खड़ाती जबान से किसी तरह खंडित दबी आवाज निकली। “बाबूजी! तोरा कुछो न होतव। चल असपताल चलअ।”- उनके सिर को अपनी बायीं बाँह और दाहिनी हाथ से उनकी छाती को सहलाते हुए गोबरधनवा की बोली भी भावुकता और अपराधबोधता के कारण बहुत लड़खड़ाने लगी थी। “न बाबू! हम अब अपन बिसराम असथल पर पहुँच गेल हिव। हमरा गंगा मइया के सवागत करे द। गंगा मइया आवइत हथन I”-

चाचा की लड़खड़ाती जबान अब कुछ अटक-अटक जा रही थी। सभी की आँखे डबडबा गयी थीं।
तभी करहा में खड़े कुछ लोगों ने अपने पैरों में शीतल जल का स्पर्श और सिहरन महसूस किया। वे कुछ समझ पाते कि करहा में पानी की एक पतली धारा आकर मुलेसर चाचा के बदन को धीरे-धीरे भींगाने लगी।  “जय हो गंगा मइया! जय हो! हमर जनम सफल हो गेल। अब हमर गाँव में कभी अकाल न पडत I अब गाँव के कोई बाल-बच्चा भूखे न मरत I जय हो गंगा मइया! …. जय हो!“- बूढ़े शरीर में बची-खुची सारी शक्तियाँ एक साथ एकत्रित होकर अभिव्यक्त हुईं I

ये उनकी अंतिम भावाभिव्यक्ति थीं, जो क्रमशः क्षीण होती हुईं, फिर अब एकदम के लिए शांत हो गईं। मुलेसर चाचा के चहरे पर परम संतुष्टि और अपूर्व प्रसन्नता की लकीरें स्पष्ट झलक रही थीं। पास के पीपल वृक्ष पर अचानक पक्षियों की चहचहाने की आवाजें तीव्र हो गईं। उधर पूरब में स्वर्णदेव प्रकट हुए और अपनी लालिमा युक्त दिव्य किरण रुपी हाथों से मुलेसर चाचा के शरीर को स्पर्श किये और एक अमूल्य दिव्य आत्मा को अपने स्नेहिल कर में लिये जग को प्रकाशित करने आगे बढ़ गए।

(‘कैनाल मैन’ के नाम से विख्यात बिहार के गया जिले के बाँके बाजार प्रखंड के निवासी कर्मयोगी लौंगी भुइयाँ को समर्पित)

1 thoughts on “भागीरथी यात्रा (कहानी) : श्री राम पुकार शर्मा

  1. Ram Pukar Sharma says:

    यह पूर्णतः पश्चिमी मगही भाषा में लिखित एक आंचलिक कहानी है, जो ग्रामीण संस्कृति सहित मानवता, कर्तव्यपरायणता, दृढ़ता और एकल चलो रे के सिद्धांत को चरितार्थ करती है।
    आप विद्वजन अपने विचारों से मुझे अवश्य अवगत करवाएँ। सादर स्वागत है।

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