पारो शैवलिनी की गज़ल

गजल

दिन ढला, शाम ढली
हर तरफ चिराग जले
चले भी आओ सनम
दिल जले, दिमाग जले।।
जिगर के खून से जिसे
वर्षों मैंने सींचा है
वो साख-साख जले, गुल जले
वो बाग जले, दिन ढला।।
हुई है रोशनी
हरसू हुए उजाले पर
आशियाने में मेरे मुद्दत हुए
चिराग जले, दिन ढला।।
जरा सा चैन भी मिलता
तो कुछ बयां करते
मगर यहां मेरे दिल का
दाग-दाग जले, दिन ढला।।

पारो शैवलिनी

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