बासु चटर्जी : आम आदमी की जिंदगी को संजीदगी से रूपहले पर्दे पर उतारा

कोलकाता : हिंदी सिनेमा में मार-धाड़ के दौर में मानवीय संवेदनाओं की सरल कहानियों को बेहद सादगी से रुपहले पर्दे पर उतारने वाले निर्देशक रहे बासु चटर्जी। उनकी फिल्मों में न तो नायक-नायिका पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचते थे और न ही कोई ‘एंग्री यंग मैन’ एक साथ 20 खलनायकों को धूल चटाता था। बसों में, सड़कों पर और छोटे-मोटे रेस्तरां में पनपने वाली प्रेम कहानियों को उन्होंने इस सादगी से रूपहले पर्दे पर उतारा कि उनके किरदार सिनेप्रेमियों के दिलों में हमेशा के लिए अमर हो गए।

93 वर्ष की उम्र में निधन

बासु चटर्जी का निधन गुरुवार को 93 वर्ष की उम्र में हुआ। अपनी सादगी और सौम्यता के साथ उन्होंने सांता क्रूज स्थित अपने आवास पर गहरी नींद में अंतिम विदा ले ली। चटर्जी की फिल्में देखें, तो उनका हीरो कोई बलवान और एंग्री यंग मैन नहीं होता था, वह सामान्य पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाला सरल और शर्मिला सा व्यक्ति हुआ करता था। बासु चटर्जी के निधन के साथ ही तिकड़ी…1 बासु चटर्जी, हृऋकेष मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य, दुनिया से विदा हो गए हैं। इन तीनों ने ही 1970 और 80 के दशक में सिनेमा को आम लोगों के जीवन का आइना बनाया था।

बचपन से ही फिल्मों में थी दिलचस्पी

उस दौर की ग्लैमरस, सजी संवरी हिरोइनों से एकदम उलट चटर्जी के फिल्म की महिलाएं दृढ़निश्चय वाली, अपने काम के प्रति सतर्क और सचेत और समाज की मांग पर झुकने वाली बेचारी महिलाएं नहीं थीं। अजमेर में जन्मे चटर्जी में सिनेमा की समक्ष कुछ जल्दी ही विकसित हो गई थी।
उनके पिता रेलवे में कर्मचारी थे और परिवार ज्यादातर आगरा मथुरा में रहा जहां उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और शुरुआती दौर में वहीं पर फिल्में देखीं। राज्यसभा टीवी पर आने वाले शो ‘गुफ्तगू’ में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्हें मथुरा के इकलौते सिनेमाघर मे फिल्में देखना पसंद था। इस दौरान उनका सपनों की नगरी मुंबई जाने का सपना मजबूत होता रहा और अंत में सैनिक स्कूल में लाइब्रेरियन की नौकरी पाकर वह पहुंच ही गए ‘आमची बंबई’’।

अजीज दोस्त शैलेन्द्र ने फिल्मों की दुनिया में एंट्री

बाद में ब्लिट्ज अखबार में वह राजनीतिक विषयों पर कार्टून बनाने लगे और 16 साल तक यही करते रहे। लेकिन सिनेमा के लिए उनका प्रेम कम नहीं हुआ और वह ‘फिल्म सोसायटी मूवमेंट’ के तहत वह लगातार दुनिया भर में बनने वाली फिल्में देखते रहे। इस कमाल के निर्देशक को फिल्मों की दुनिया में एंट्री अपने गीतकार मित्र शैलेन्द्र के जरिए मिली। शैलेन्द्र एक फिल्म बना रहे थे ‘तीसरी कसम’ जिसका निर्देशन कर रहे थे बासु भट्टाचार्य। 1966 में रिलीज हुई इस फिल्म में चटर्जी को सहायक निदेशक का काम मिला।

सारा आकाश उनकी पहली फिल्म

तीन साल बाद चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर फिल्म बनायी और निर्देश की दुनिया में कदम रखा। यह फिल्म आगरा के एक पारंपरिक संयुक्त परिवार में ब्याहे गए नव-दंपति की कहानी है। इस फिल्म ने एंग्री यंग मैन के जमाने में चटर्जी को सामान्य लोगों के जीवन से जुड़ी सिनेमा बनाने वाले निर्देशकों की श्रेणी में ला खड़ा किया। उनकी अगली फिल्म थी ‘पिया का घर’ जिसमें जया भादुड़ी और अनिल धवन ने काम किया है। हल्के-फुल्के अंदाज मे बनी इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे मुंबई में संयुक्त परिवार के साथ एक कमरे के मकान में रह रहा युवा जोड़ा अपने लिए निजता के कुछ पल खोज रहा है। कुछ ऐसा ही था उनका सिनेमा।

कई बड़े स्टार्स के साथ किया काम

वैसे तो चटर्जी की फिल्में कलाकारों के लिए होती थीं, स्टारों के लिए नहीं, लेकिन उन्होंने उस दौर के बड़े स्टार्स के साथ भी काम किया है। राजेश खन्ना और नीतू कपूर के साथ थ्रिलर फिल्म ‘चक्रव्यूह’ बनायी, ‘प्रियतमा’ में जितेन्द्र के साथ काम किया और ‘मन पसंद’में देव आनंद ‘दिल्लगी’ में धमेन्द्र और हेमा मालिनी की जोड़ी और ‘मंजिल’ में अमिताभ बच्चन को अपनी फिल्म में लिया। सबसे अजीब बात यह रही कि राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन जैसे स्टार्स के साथ बनी फिल्में ‘चक्रव्यूह’ और ‘मंजिल’ उनकी चंद फ्लॉप फिल्मों में शामिल हैं।

अमोल पालेकर पसंदीदा अभिनेता

चटर्जी के पसंदीदा कलाकारों की बात करें तो उन्होंने अमोल पालेकर के साथ खूब फिल्में की हैं। दोनों ने ‘चितचोर’, ‘बातों बातों मे’ और ‘अपने पराये’ छोटी सी बात सहित कुल आठ फिल्में साथ में कीं। चटर्जी की फिल्मों में ना सिर्फ कहानी अच्छी होती बल्कि संगीत और गीत भी कमाल के होते। उनकी फिल्मों के ज्यादातर गीत योगेश गौर ने लिखे थे, जिनका हाल ही में निधन हुआ है। उनके कुछ गीत तब भी खूबसूरत थे और आज भी मन को गुदगुदा जाते हैं। आज के जमाने में भी ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’, ‘कई बार यूंही देखा है’, ‘सुनिए, कहिए’, ‘न जाने क्यों’, ‘रिम झिम भरे सावन’ मन को आनंदित कर देते हैं।

‘ब्योमकेश बख्शी’ आज भी दर्शकों के बीच जिंदा

चटर्जी ने टीवी के लिए भी कार्यक्रम बनाए। 1986 में उन्होंने हॉलीवुड क्लासिक ‘12 एंग्री मेन’ की रिमेक ‘एक रूका हुआ फैसला’ बनाया। 1989 में मुंबई के चाल में एक लड़की की आत्महत्या की कहानी ‘कमला की मौत’ बनायी। चटर्जी की हिन्दी में अंतिम सफल फिल्म थी 1986 की ‘चमेली की शादी’ जिसमें अनिल कपूर, अमृत सिंह और अमजद खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बाद के दिनों में चटर्जी ने बांग्ला भाषा में भी फिल्में बनायी और कुछ टीवी सीरिज भी बनाएं। ‘रजनी’, ‘काका जी कहिन’ और दूरदर्शन के लिए बनाया गया उनका सीरीज ‘ब्योमकेश बख्शी’ कमाल का कार्यक्रम था। ‘ब्योमकेश बख्शी’ को आज भी दर्शक भूल नही पाये हैं।

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