मैंने पूछा प्रकृति से कि
क्यों कुपित हो गई हो?
मुझको जवाब मिला ,
मानव होकर यह प्रश्न
तुम पूछते हो ।
मैंने मनुष्यों को कभी भी
मेरे अनुरूप ढलते नहीं देखा।
वे अपनी आवश्यकता अनुसार,
मुझे ही बदलने लगते हैं।
पृथ्वी के बाकी कोई जीव जंतु
ऐसा तो नहीं करते हैं।
तुम भी उन्हीं सब जीवों में
से एक हो, जो मेरी गोद में
पलते हैं और मेरे हिसाब से रहते हैं।
पर तुम अपनी बुद्धि के कारण मुझ पर
ही हावी होते जा रहे हो ।
अपनी तो क्षति कर ही रहे हो,
साथ में मेरे पूरे संतुलन को
बिगाड़ रहे हो।
अभी भी समय है ,
सुधर जाओ।
अन्य जीवों की ही भांति मेरी
गोद में समर्पण के साथ आओ।
समय समय पर मैं
देती रहती हूं चेतावनी।
पर तुम हमेशा ही इसे
कर देते हो अनसुनी।
कभी भूकंप, कभी सुनामी,
कभी भयानक गर्मी ,
तो कभी बाढ़ का पानी।
कैसे और तुम्हें मैं समझाऊं,
मत करो खिलवाड़ मुझसे,
सारे जंगलों को नष्ट
करते जा रहे हो।
पहाड़ों को काट कर
रास्ते बना रहे हो।
चलो रास्ते का तो ठीक है
पर उन पहाड़ों पर कांक्रीट
के बड़े बड़े मकान बना रहे हो।
पृथ्वी को तो बंजर कर ही रहे हो,
साथ ही अन्य ग्रहों पर भी ,
ग्रहण लगा रहे हो।
पहले मुझे आश्वस्त करो कि
मैंने जिनको अपने में समाहित किया है
उन सभी को अपने जैसा ही समझोगे।
वर्ना अब मनुष्य की खैर नहीं रहेगी।
नहीं दिखने वाले मेरे कण से भी
सारी पृथ्वी की मानव जाति डरेगी।
तुम्हारे किए का फल तुम्हें ही मिलेगा,
और तुम्हारे सर्वनाश के बाद मेरा
नया रूप फिर से खिलेगा।
अभी भी समय है चेत जाओ।
अपने मन को अति
महत्वाकांक्षी मत बनाओ।
जीओ और जीने दो कि
संस्कृति फिर से अपनाओ।
देखो! मुझे बदलने का प्रयास छोड़ दो,
और स्वयं में बदलाव लाओ।
फिर देखना मैं भी तुम्हें चाहने लगूंगी,
तुम्हारी देख रेख एक मां की तरह करूंगी।
लेकिन अगर दुस्साहस दिखाओगे।
तो मेरे कोप से बच नहीं पाओगे।।
और सच कहती हूं बेमौत मारे जाओगे।
– अजय तिवारी “शिवदान”
बहुत ही सटीक और लाजबाब रचना