देश के चार प्रदेशों से आए लोक व जनजातीय कलाकारों का हुआ सम्मान, सभी लोककला कृतियों की हुई प्रशंसा
लखनऊ। लोककला उत्सव तीन दिवसीय अखिल भारतीय लोक व जनजातीय कला शिविर के पश्चात शिविर में बनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी रविवार को नगर के माल एवेन्यू स्थित सराका होटल के सराका आर्ट गैलरी में लगाई गई। प्रदर्शनी का उद्घाटन और सभी कलाकारों का सम्मान मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ. विद्या विंदू सिंह (वरिष्ठ लोक साहित्यकार) एवं प्रो. माण्डवी सिंह (कुलपति, भातखण्डे संस्कृति विश्वविद्यालय, लखनऊ) द्वारा किया गया। इस अवसर पर पद्मश्री विद्या विंदू सिंह ने कहा कि ये कलाएं जीवंत हैं। इनके प्रोत्साहन के लिए हम सबको आगे आना चाहिए। इन कलाओं को जीवित रखने के लिए इनका प्रोत्साहन और कलाकारों को उनकी मूलभूत सुविधाएं भी मिलनी चाहिए। इन्हें बढ़ाने, सजाने और सजोने की जरूरत है। ये कलाएं हमारे जीवन और परंपराओं से जुड़ी हुई हैं। नई पीढ़ी को इसे सीखना चाहिए तभी यह कला आगे तक बढ़ पाएगी। उसी क्रम में प्रो. माण्डवी सिंह ने कहा कि कला ही हमे विशेष बनाती है। कलाओं को बचाने का अर्थ अपने जीवन और संस्कृति को बचाना। सभी कलाओं का संगम एक ही है। सभी मिलकर हमारी संस्कृति को प्रस्तुत करते हैं। कला और कलाकारों को आगे लाने का यह प्रयास काफी सराहनीय है।
क्यूरेटर डॉ. वंदना सहगल ने कहा कि भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएं बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है। हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी पारंपरिक कला या कला धीरे-धीरे खत्म हो रही है क्योंकि आधुनिक समय में नए लोकाचार और नई तकनीक के साथ संदर्भ लुप्त हो रहे हैं। यह कला जीवन का एक तरीका है। चूंकि जीवन का तरीका बदल रहा है, इसलिए इन रचनाओं की आवश्यकता भी बढ़ रही है। यह शिविर लुप्तप्राय कला, शिल्प और उनके कलाकारों को सामने लाने का एक प्रयास है।
प्रलेखनकर्ता भूपेंद्र अस्थाना और रत्नप्रिया कांत ने प्रदर्शनी का विवरण देते हुए बताया कि इस प्रदर्शनी में देश के चार प्रदेशों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम और पश्चिम बंगाल से कुल 11 कलाकारों द्वारा अपनी अलग -अलग लोककला विधा और माध्यम में बनायी गई कृतियों का प्रदर्शन किया है, इसमें सम्मिलित कलाकारों में असम के मजुली से आये खगेन गोस्वामी जो मजुली मास्क के कलाकार है जिनका माध्यम बांस, मिट्टी, गाय का गोबर और प्राकृतिक रंग है, असम से आये सांची पट के चित्रकार दिगंता हजारिका जो पांडुलिपि चित्रकला के कलाकार है और इनका माध्यम एक विशेष प्रकार के पेड़ की छाल एवम् प्राकृतिक रंग है, असम से ही दो अन्य कलाकार गांधी पॉल जो शोरा पेंटिंग के कलाकार के है और इनका माध्यम टेराकोटा प्लेट और फैब्रिक कलर है, वहीं दुलाल मालाकार जो सोलापीठ चित्रकला के कलाकार है इनका माध्यम भी सोला नामक पेड़ की छाल से तैयार कागज है।
पश्चिम बंगाल से 3 कलाकार है जिनमे सेरामुद्दीन चित्रकार जो पटचित्र के कलाकार है और उनका माध्यम कागज, कपड़ा और प्राकृतिक रंग है। भोलानाथ कर्मकार शेरपाई के इकलौते कलाकार है और इनका माध्यम लकड़ी और पीतल है, वृंदावन चंदा ये लाख डॉल के कलाकार है इनका माध्यम मिट्टी के टेराकोटा खिलौने और लाख है। राजस्थान से भी 3 कलाकार है जिनमे विद्या देवी मांडना कला की 75 वर्षीय महिला कलाकार है और इनका माध्यम कागज और रंग है। दिनेश कुमार सोनी जो पिछवाई कला के कलाकार है इनका माध्यम सूती कपड़ा और प्राकृतिक रंग है, अभिषेक जोशी जो फड़ चित्रकला के कलाकार है और ये भी सूती वस्त्र और प्राकृतिक रंगों के माध्यम से कार्य करते है और अंत में उत्तर प्रदेश आजमगढ़ के मूल निवासी राम शब्द है जो कोहबर कला के जाने माने वरिष्ठ कलाकार है और इनका माध्यम कागज, कैनवास और रंग है।
शिविर के दो कोऑर्डिनेटर उत्तर प्रदेश से धीरज यादव और असम से शिविर के कोऑर्डिनेटर बिनॉय पॉल ने कहा कि इस शिविर में असम के चार प्रकार लोककला के अलग-अलग विधा के कलाकार हैं जो सिलचर असम से शोर चित्र, मजुली असम से मजुली मास्क, सांची पट धुबरी असम से सोला पीठ, कोहबर, पिछवाई, मांडना और फड़ के कलाकार आये हैं। ये सभी कलाकार ऐसी कलाओं की जो कई पीढ़ियों से चली आ रही है उसको आज के परिवर्तित होते परिवेश में आ रही कठिनाई के बाद भी अपने मे संजोये और जीवित रखे हुए हैं। समाज मे इन पारंपरिक कलाओं को बचाये रखने के लिए इन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। कोऑर्डिनेटर धीरज यादव ने बताया की यह प्रदर्शनी 30 मई 2024 तक कलाप्रेमियों के अवलोकनार्थ लगी रहेंगी।
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