“स्वीकृति”
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पश्चिमीकरण की अंधी टाँगे
सुरसा के मुख की भाँति
विस्तार की सीमा लाँघ
पसरती ही जा रही है।
भारतीयता के प्राचीन मूल्यों का
प्रतिफल प्रतिक्षण
अवमूल्यन हो रहा है।
बेवश
टिमटिमाती आँखें
कोरों के आँसुओं से बन्द है
विवशता की बेड़ियों की जकड़न
मूक, बधिर बनने को बाध्य है
कोढ़ में खाज की भाँति
‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ का बाजार
हमारी झुकी गर्दन
पृथ्वी से एकाकार करा
अट्टहास करता है
वयस्कों के ठंडे एक
बर्फ में परिवर्तित बन
स्वीकृति की बाध्यता को –
मजबूर हैं ।
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“जमी पर चाँद” कविता पुस्तक से ली गई कविता “स्वीकृति” पेज न. 45 . कवि हीरा लाल मिश्र ।