जिनके त्याग और सतत परिश्रम को चूस कर ही उनके पुत्र स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीते हैं, पर वही दुर्बल माँ-बाप को जब उनकी वही पुत्र के सम्बल की आवश्यकता पड़ती है, तब वृद्ध दुर्बल माँ-बाप उनके कंधे पर असहनीय बोझ लगने लगते हैं, और फिर उनके स्वार्थी पुत्र उन्हें वृद्धाश्रम में या फिर किसी मेले में भटकने के लिए छोड़ आते हैं। इसी तथ्य पर आधारित मेरी कहानी “वह भूल गया है” आप सभी विद्वजनों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। इस कहानी से सम्बंधित आपकी टिप्पणियों के सादर आमंत्रण है।
असमय पिता की मृत्यु के उपरांत माँ विद्यावती देवी ने ही अपनी कमर कस कर अपने एकमात्र पुत्र जयंत का छत्रक बन माँ-बाप दोनों के फर्जों को बखूबी से निर्वाह की I खपरैल के दो कमरों और छोटे से आँगन वाले साधारण मकान में सर्वदा आर्थिक अभाव रहा I पर जयंत के भावी उज्ज्वल भविष्य पर उसने अर्थ को कभी बाधक न बनने दी थी I पति की मृत्यु के उपरांत प्राप्त जमा पूँजी सहित अपने वैवाहिक सभी गहनों को भी एक-एक कर बेच कर अपने स्वर्गीय पति की इच्छा के अनुरूप जयंत को उच्च शिक्षा दिलाई I समय आने पर उसका परिश्रम और त्याग अपना रंग दिखाया और जयंत पास के ही नगर में सरकारी बैंक की एक शाखा में कैशियर के पद पर आसीन हो गया I
समय भी अब पँख लगाकर उड़ चला I उपयुक्त जल व खाद्य रस को प्राप्त कर घर-आँगन के कुम्हलाये सारे पौधें पुनः हरे-भरे हो गए I फिर घर में सुंदर दुल्हन विनीता का आगमन हुआ और समय के अनुकूल घर-आँगन में एक नया बाल पौधा ‘सुशांत’ भी लहक उठा I जिसे प्यार से सभी ‘सन्तु’ कह कर पुकारा करते थे I आमद के अनुरूप ही घर में रहन-सहन, खान-पान, सभ्यता-संस्कृति आदि में भी स्वाभाविक परिवर्तन हुए I लेकिन बेचारी बुढिया विद्यावती देवी की कामकाजी दिनचर्या में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ I सुबह से देर रात्रि तक वह विभिन्न घरेलू कार्यों में लगी ही रहती थी, पर इन बातों का उसे जरा-सा भी रंज न था I परिजन की खुशियों को देख कर ही वह खुश और संतुष्ट रहने की विद्या सिख गईR थी I
बुढ़िया विद्यावती के जीवन का अब एकमात्र ही स्वप्न शेष रह गया था I वह था, उसके पति द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों में निर्मित उसके छोटे से साधारण घर की कच्ची दीवारें और उस पर अवलंबित खपरैल किसी तरह से पक्के स्वरूप को धारण कर लेवें I वह अक्सर जयंत से कहती थी, “बेटा! अब अपने इस छोटे से घर का भी कायाकल्प बदल दो I बरसात में चारों ओर पानी ही पानी हो जाता है I”
“हाँ माँ! देखता हूँ I मौका मिलते ही इसे बनवा दूँगा I इस समय हाथ कुछ ज्यादा ही चपे हुए हैं I” – जयंत अक्सर ऐसे ही कह कर अपनी माँ की इच्छाओं को टाल दिया करता था I उसके कथनानुसार उसे न तो घर के पुनर्निर्माण हेतु कभी उपयुक्त मौका ही मिला और न उसके चपे हुए हाथ ही कभी मुक्त हो पायें I वास्तविकता तो कुछ और ही थी I जयंत सहित उसकी पत्नी विनीता के विचार माँ के विचार से बिल्कुल ही भिन्न थे I इस बेतरकीब और लगभग असभ्य मुहल्ले में इस पुराने घर को नया रूप देने में खर्च करना ‘गोबर में घी सुखना’ ही तो था I अतः जयंत ने अपनी माँ की इच्छा से हट कर नगर में अपने बैंक से कुछ ही दूरी पर कुछ जमीन खरीद ली थी I
उसने एक-दो बार अपने मन की बात अपनी माँ के सम्मुख रखी भी थी, “माँ! इस मुहल्ले की स्थिति तुम तो देख ही रही हो I कितना पिछड़ा हुआ है, यह मुहल्ला I देर सबेर कहीं आने-जाने में कितनी परेशानी होती है I यहाँ ‘शान्तु’ के लिए न कोई उपयुक्त स्कूल है I न जरूरत पड़ने पर कोई अस्पताल ही है I अच्छा तो होता कि हमलोग इस घर को छोड़कर शहर में ही जाकर बस जातें I वहाँ ‘सन्तु’ के लिए बेहतर स्कूल है I समय-असमय सुंदर चिकत्सा हेतु कई अच्छे अस्पताल भी हैं I फिर मेरे लिए तो सबसे ज्यादा सुविधा होता I”
“देख बेटा! यह पुरखों का घर-मकान है I इसी घर के आँगन में मैं डोली से उतरी थी I इसी आँगन में तेरा बचपन बिता और इसी आँगन से तेरे पिता की अर्थी उठी I इस घर-आँगन से हमारी बहुत बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं I इसे छोड़ने का नाम मत ले I” – माँ ने अपना विचार और लगभग अपना फैसला सुनाया I
माँ की इच्छा के सम्मुख उनकी भव्य इच्छाएँ पूर्ण होते नहीं दिखाई दे रही थीं I इसके एवज में जयंत सहित उसकी पत्नी विनीता भी अब स्वाभाविक या अस्वाभाविक रूप से बुढ़िया विद्यावती की इच्छाओं को नजरंदाज करना और उसकी जरूरतों को अक्सर भूल जाना सिख गए थे I
पर बार-बार एक ही स्थान पर पड़ते हथौड़े की चोटें उसे कुछ कमजोर कर दीं I फिर विद्यावती देवी को भी महसूस करने लगा कि जयंती के अतिरिक्त उसका और दूसरा है ही कौन? उसकी ख़ुशी के लिए ही तो वह विगत कई वर्षों से निरंतर तपती रही है I जयंत की ख़ुशी में ही उसकी अपनी ख़ुशी निहित है I अतः कुछ ना-नुकुर के उपरांत वह अपने पुत्र जयंत की इच्छा के अनुकूल हो गई I
बस अब क्या था? उसके मकान के कई खरीददार तो पहले से ही तैयार थे I अतः उपयुक्त खरीददार देखकर उससे जयंत ने एडवांस की धनराशि को प्राप्त किया और नगर में ली गई अपनी जमीन पर मकान बनाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया I कुछ माह में ही चार कमरों वाला एक सुंदर मकान बनकर तैयार हो गया I पूजा-पाठ के उपरांत पुराने घर की चाबी को उसके खरीददार के हवाले कर जयंत सपरिवार अपने नए मकान में पहुँच गया I
बुढ़िया विद्यावती का मन भी नये मकान को देखकर गदगद ही उठा I उसे जयंत पर गर्व ही महसूस हुआ I प्रारम्भ के कई दिनों तक तो नये मकान में वे लोग अव्यवस्थित रूप से ही रहें I पर धीरे-धीरे व्यवस्थित होने लगें I प्रवेश द्वार के पास का एक बड़ा-सा कमरा आने-जाने वालों के लिए सुरक्षित हो गया I उसके बगल वाले कमरे को जयंत अपने कुछ काम-काज के लिए टेबल-चेयर आदि से सजा दिया I फिर एक कमरा अपने शयनकक्ष के रूप में और बाकी बचा एक कमरा, तो वह ‘सन्तु’ की पढ़ाई हेतु व्यवस्थित हो गया I अब बूढी माँ विद्यावती के लिए कमरा?
वह तो शायद जयंत ने बनाना ही भूल गया I जयंत और उसकी पत्नी के अनुसार वैसे भी बूढी माँ के लिए अलग कमरे की आवश्यकता भी क्या थी? वह कितने दिनों की मेहमान ही है? तब तक वह रसोईघर या फिर पीछे के भंडारघर में बड़ी ही सरलता के साथ रह लेगी I वास्तविकता तो यह थी कि इस नये घर के लिए अब वह किसी पुराने सामान की तरह अनावश्यक ही थी I फिर इस विषय पर आगे देखा और सोच जायेगा I
इसी बीच छुट्टियों में हरिद्वार सहित उसके संलग्न पर्वतीय क्षेत्रों के भ्रमण हेतु सपरिवार कार्यक्रम बना I इस भ्रमण कार्यक्रम में इस बार बूढी माँ को भी शामिल किया गया I अन्यथा, वह तो अक्सर घर के किवाड़ों की कुण्डी के साथ लटकते तालों के सामान ही घर की सुरक्षा प्रदान करती ही रहती थी I हरिद्वार स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले पहाड़ी पर अवस्थित ‘माता मनसादेवी’ के दर्शन का विचार हुआ I होना भी चाहिए, मातृत्व भक्ति-भाव की प्रबलता के देश में पहले मातृत्व-शक्ति की उपासना अनिवार्य ही है I चलिए, जयंत और उसकी पत्नी विनीता को इतनी तो समझ है I भले ही घर की मातृत्व देवी उपेक्षित ही रहे I
“नहीं, मेरा बेटा मुझे छोड़कर नहीं गया है I वह शायद मुझे साथ ले जाना ही भूल गया होगा I मुझे मेरे परिजन से मिला दो, या फिर मुझे मेरे घर पर पहुँचा दो। मेरा बेटा बड़ा ही भुलक्कड़ है I” – हरिद्वार शहर के एक थाने में बैठी पैसठ वर्षीय विधवा वृद्धा विद्यावती देवी थानेदार के सम्मुख विनयातुर गिड़गिड़ा रही थी I दुर्बल शरीर और नैराश्य जन्य उदास चेहरे उसकी अन्तः व्यथा को बहुत कुछ अभिव्यक्त कर रहे थे I जबकि उसकी आँखें रोते रहने के कारण कुछ सूजकर लालिमा वर्णी हो गई थीं I सामान के नाम पर वह जो अपने बदन पर पहनी थी, उसके अलावे वर्षों पुराना एकमात्र शॉल था, जिसे वह अपने गले में ठंड के कारण लपेट रखी थी I
“सर जी, कल शाम से ही यह माता जी गंगा तट पर ‘गंगा माता मंदिर’ के ठीक पीछे हमारी दुकान के सामने बैठी हुई अपने परिजन का इंतजार कर रही थीं I ठंडी रात में भी यह खुले आकाश के नीचे ही बैठी रहना चाहती थीं I मैंने जबरन इन्हें अपनी दुकान में ले आया और जबरन ही कुछ खाना खिलाया I रात भर मैंने इन्हें अपनी दुकान में ही आश्रय दिया I आज भी मेरी दुकान में ही दिन भर बैठी अपने परिजन के इंतजार में अपनी पलकें बिछाए रहीं I परन्तु कोई न आया I तब मैं इन्हें आप के पास थाने में लेते आया हूँ I” – एक प्रोढ़ भलेमानस दुकानदार ने थानेदार से कहा I
“आपने बहुत ही अच्छा किया, जो इन्हें थाने तक लेते आयें I इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद I इसी तरह भूले-भटकों को लोग थाने तक पहुँचा देवें, तो हम उनके परिवार से उन्हें मिलवा सकते हैं I उन्हें उनके घर तक भेजवाने की व्यवस्था कर सकते हैं I ठीक है, अब आप जा सकते हैं I अब पुलिस अपना काम करेगी और इन्हें इनके परिजन से मिलवा देगी I धन्यवाद I” – थानेदार ने उस भद्र दुकानदार से कहा I दुकानदार ने हाथ जोड़कर नमस्कार कहा और चला गया I
“माता जी, आप कुछ खा-पी लीजिए I” – थानेदार हताश विद्यावती देवी के सम्मुख कुछ खाद्य-पदार्थों को रखते हुए कहा, जिसे एक सिपाही ने उस थानेदार के ही कहने पर बाजार से लेकर आया था I
“नहीं बेटा! मुझे भूख नहीं है I मुझे मेरे बेटे और मेरे परिवार से मिलवा दो I गंगा मैया तुम्हें और तुम्हारे परिवार को हमेशा खुशहाल रखेंगी I” – लगभग क्रुन्दन करती हुई विद्यावती देवी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना के स्वर में गिड़गिड़ाई I
“माताजी, हम प्रयास कर रहे हैं I तब तक आप कुछ खा-पी लीजिये I” – थानेदार ने बहुत ही आत्मियता के साथ प्रेमपूर्वक कुछ जबरन कुछ खिलाया और चाय पिलायी I
फिर पूछने पर थानेदार को पता चला कि वह अपने बेटे, बहु और अपने पोते के साथ हरिद्वार घुमने तथा गंगा-स्नान करने आई थी I वह भी तो नहीं कर पाई I कल सुबह ही रेलवे से स्टेशन पर सभी एकसाथ उतरें और फिर ‘मनसा देवी मंदिर’ में ‘मनसादेवी’ का दर्शन किये, फिर पता नहीं, भीड़ में उनके बेटे, बहु और पोते कहाँ खो गए I उन्हीं के बारे में पूछते-पूछते पता नहीं, वह कैसे गंगा तट पर पहुँच गई I वहाँ पर भी वह अपने परिजन की बहुत तलाश की, पर वे न मिलें I
थानेदार ने सोचा कि कल सुबह से ही यह वृद्धा अपने परिजन से बिछुड़ी है, तब तो इसके परिजन भी इनकी तलाश अवश्य ही किये होंगे I हो सकता है, शहर के किसी थाने में रिपोर्ट भी लिखवाये हों I अतः उसने शहर भर के सभी थानों से जानकारी ली, पर किसी वृद्धा के खो जाने जैसी कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई गई थी I यहाँ तक कि रेलवे स्टेशन पर भी ऐसी कोई शिकायत दर्ज न हुई थी I
“माता जी! आपके पास अपने परिजन का कोई सम्पर्क नम्बर है क्या?”- थानेदार ने विद्यावती देवी से पूछा I
“बेटा! मोबाइल तो मेरे बेटे और बहु दोनों के पास ही हैं, परन्तु उनके नम्बर मुझे नहीं पता है I मैंने उनसे कहा भी था कि अपने मोबाइल नम्बर लिख कर मुझे दे दो, पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए? पर उन लोगों ने कहा, क्या करोगी मोबाइल नम्बर, हम सब साथ ही तो हैं I” – हर बात के साथ उसकी बूढी आँखों से कुछ कीमती अश्रूजल अवश्य ही ढुलक जाते थेI
अब क्या किया जाय? थानेदार के मस्तक पर चिंता की रेखाएँ उभार आयीं I उसे उनके परिजन पर कुछ संदेह हुआ I जैसा कि अब तक वह कई केसों में देख चूका है I कहीं इन्हें जानबूझ कर तो नहीं छोड़ दिया गया है ? सम्भावना तो बहुत कुछ यही लगती है I