“सुप्रसिद्ध वाश चित्रकार आर्या एक कलाकार और शिक्षक के रूप में सदैव सर्वप्रिय रहे”
लखनऊ। वाश तकनीकी भले ही जापान से होते हुए कोलकाता के बाद लखनऊ पहुँची और भारतीय चित्रों के रेखांकन अजंता से लेकर तमाम कलाकारों ने वाश विधा में काम किया लेकिन उत्तर प्रदेश के सुप्रसिद्ध चित्रकार बद्री नाथ आर्य (1936 – 2013) ने अपने चित्रों में एक अद्भुत प्रयोग किया और अपने इसी प्रयोग के कारण आज दुनिया भर में जाने जा रहे हैं। महानतम वाश चित्रकार ‘बद्री नाथ आर्य’ का निधन 17 सितंबर 2013 को हो गया था। रविवार को उनकी 10वीं पुण्यतिथि पर सप्रेम संस्थान ने उनके स्मृतियों को साझा करते हुए याद किया। बद्री नाथ आर्य का जन्म 1936 में पेशावर में हुआ था। 1951 में उन्होंने कला एवं शिल्प महाविद्यालय लखनऊ में कला शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रवेश लिया और अध्ययनोपरांत वहीं शिक्षक हुए। बद्री नाथ आर्य 1994-1996 तक कला एवं शिल्प महाविद्यालय लखनऊ के प्राचार्य रहे और सेवामुक्त होकर फैजाबाद रोड स्थित अपने आवास रविन्द्र पल्ली, लखनऊ में अंतिम समय तक सतत रचनारत रहे।
उन्हें ललित कला अकादेमी फेलोशिप (कला रत्न) और राष्टीय पुरस्कार सहित देश-विदेश के अनेक कला संस्थानों और कला अकादमियों से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुआ था। उनके शिष्यों की एक लम्बी सूची है जो लखनऊ वाश की सुगंध को वर्तमान में दुनिया भर में फैला रहे है। इनके चित्रों का संग्रह भी देश विदेशों के संस्थानों और अनेकों कला प्रेमियों के पास सुरक्षित है। इस अवसर पर उनके पुत्र कमल आर्य और पुत्रवधु किरण आर्य ने कहा कि पूजनीय पापा जी की दसवीं पुण्यतिथि पर मैं उनका पुत्र कमल आर्य पुत्रवधू किरण आर्य एवं मेरी पुत्री देवयानी आर्य की तरफ से परम पूज्य पापा जी को शत-शत नमन। पापा जी को हम सब से दूर गए हुए 10 साल हो गए हैं पर कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि वह हमारे साथ नहीं है। अभी भी यही लगता है कि वे कमरे में बैठ कर चित्र बना रहे हों। उनका आशीर्वाद मेरे परिवार पर मेरे अपनों पर सदैव बना रहे ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करता हूं। उनके बारे में जितना कहा जाए लिखा जाए उतना ही कम है।
बद्री नाथ आर्या के परम शिष्य रहे वरिष्ठ चित्रकार राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि वे कलाकार और शिक्षक के रूप में सदैव सर्वप्रिय रहे। उन्हें किसी भी विद्यार्थियों को कहीं भी किसी समय किसी भी प्रकार के निर्देशित करने में कोई हिचक नहीं होती थी। वे रंगो के जादूगर रहे। मैं आर्या साहब के संपर्क में अपने विद्यार्थी जीवन वर्ष 1981 से रहा। वे हमेशा मुझे अपनी शैली और पहचान बनाने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहे। वे हर विधा में पारंगत थे। वे एक चित्रकार के साथ-साथ एक मूर्ति शिल्पकार भी थे वे अनेक मूर्ति शिल्प भी बनाये थे। वे किसी भी प्रकार के रंग को हमेशा बड़े ध्यान और तकनीकी बद्ध प्रयोग करते थे जिसका प्रमाण उनके आयल माध्यम में बने कलाकृति को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। वे आयल को भी वाश की तरह प्रयोग करते थे देखने वाले आश्चर्य करते थे। वे मानवतावादी कलाकार थे। वे सभी के प्रिय कलाकार और शिक्षक रहे। वे ज्यादातर समय अपने स्टूडियो और अपने चित्र सृजन में ही बिताते थे। वे एक महान प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी रहे। मेरे और आर्या साहब के उम्र में बहुत फैसला था लेकिन मेरे शिक्षक बनने के बाद वे मुझे एक मित्र के रूप में मानने लगे थे यह उनका प्रेम ही था , लेकिन वे मेरे परम गुरु रहे इस बात का मैं हमेशा ध्यान रखा। वे नरम दिल इंसान रहे जिसका प्रभाव उनके चित्रों और रंगों में भी दिखता है।
भूपेंद्र कुमार अस्थाना ने कहा कि बद्री नाथ आर्य, जिन्हें समकालीन कला जगत में बी.एन. आर्य के नाम से जाना जाता है। आर्य, शायद उत्तर भारत में बंगाल स्कूल की वाश तकनीक और कल्पना के अंतिम प्रतिपादक रहे हैं। उन्होंने अनेकों प्रयोग किये अपने चित्रों में। पेशावर के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार में जन्मे, उन्होंने बचपन में ही ललित कला में गहरी रुचि दिखाई। विभाजन के बाद, उनका परिवार सांप्रदायिक दंगों के कारण भारत आ गया और लखनऊ में बस गया। 1956-57 के दौरान उन्होंने कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ से ललित कला में स्नातकोत्तर किया और असित कुमार हालदार द्वारा सिखाई गई बंगाल स्कूल की चित्रकला परंपरा, उनके शिक्षक ललित मोहन सेन और बिरेश्वर सेन के माध्यम से उन्हें दी गई थी। वह अपने वरिष्ठ कॉलेज साथी सी.डी. शर्मा से भी प्रेरित रहे।
यदि हम उनके चित्रों को देखें, जो अधिकतर बड़े आकार के दोगुने कागजों में बनाए गए थे, तो हम देखेंगे कि केवल महाकाव्य-पौराणिक और काव्य विषयों ने ही उनका ध्यान आकर्षित नहीं किया, बल्कि गरीबों और आम मेहनतकश लोगों के जीवन ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया और बाद के प्रकार के चित्रों में चित्रण, हालांकि धोने की तकनीक में चित्रित किया गया है, यथार्थवादी है और लयबद्ध रूप से शैलीबद्ध नहीं है। वह यूरोपीय शैक्षणिक शैली और तकनीक में भी कुशल चित्रकार रहे। इसके अलावा, उनकी कला ने स्कूल की स्टॉक इमेजरी को पार कर लिया था और अर्ध-अमूर्त या पूरी तरह से अमूर्त इमेजरी की खोज की। जिसमें उन्होंने अक्सर मृत्यु और क्षय की छाया व्यक्त की है। 1959 से 1991 तक, उन्होंने महत्वपूर्ण अखिल भारतीय प्रदर्शनियों में 13 पुरस्कार जीते और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली ने उन्हें 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। बद्री नाथ को महाभारत (1967), रुबैयती – I – उमर खय्याम (1974) और जयदेव के गीत गोविंद (1975) के अपने अद्वितीय शैली के विषयों को चित्रित करने के लिए नियुक्त किया गया था। उन्होंने यूपी के लिए भित्ति चित्र बनाए। 1977 और 1980 में एग्रो एक्सपो, नई दिल्ली में पवेलियन। उन्होंने 15वीं अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी, टोक्यो, 1987 और 1988 में दूसरे अंतर्राष्ट्रीय एशियाई-यूरोपीय कला द्विवार्षिक, अंकारा, तुर्की में भाग लिया।