डॉ. राजेन्द्र संजय लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी फिल्मों का इतिहास’ का लोकार्पण समारोह सम्पन्न

काली दास पाण्डेय, मुंबई। बॉलीवुड के चर्चित लेखक व फिल्म निर्देशक डॉ. राजेन्द्र संजय द्वारा लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी फिल्मों का इतिहास’ का लोकार्पण समारोह ओशिवारा, (अंधेरी पश्चिम) मुम्बई स्थित व्यंजन प्रेक्षागृह में कवि व पत्रकार देवमणि पांडेय, अभिनेत्री लिली पटेल, अभिनेता लिनेश फणसे, कवि गीतकार रासबिहारी पांडेय, फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, पत्रकार आलोक गुप्ता, आरजे कीर्ति प्रकाश, निर्देशक संजय सिंह नेगी, पत्रकार/कवि पूनम विश्वकर्मा और फिल्म प्रोड्यूसर/फायनेंसर सामी सिद्दीकी की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ।

पुस्तक के बारे में बता दें कि डॉ. राजेन्द्र संजय लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी फिल्मों का इतिहास’ बहुत ही आकर्षक है। भोजपुरी प्रांतीय बोली होकर भी अन्तर्राष्ट्रीय मंच को छूती है क्योंकि विश्व के अधिकतर देशों में इसके बोलने वाले मौजूद हैं। हालाँकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाइबो’ सन 1962 में बनी थी। लेकिन भोजपुरी बोली ने पहली भारतीय बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में ही अपना चकमक प्रभाव दिखा दिया था जो सन 1931 में बनी थी, जिसमें भोजपुरी गीत ‘दरस बिन मोरे हैं तरसे नैन, प्यारे मुखड़ा दिखा जा मोहे’ ने दर्शकों का मन मोह लिया था। इस फिल्म ‘आलम आरा’ में गवई पात्रों के मुख से वार्तालाप घरेलू रूप में भोजपुरी बोली में ही प्रतिबिम्बित हुआ जो एक उच्चतम उपलब्धि थी।

भोजपुरिया लोगों ने हिंदी फ़िल्मों के लिए इतने हिट गाने भोजपुरी में लिखे जिनके कारण ये हिंदी फिल्में सुपर हिट होने लगीं। सन 1982 में बनी हिंदी फिल्म ‘नदिया के पार’ के कुल आठ गीतों में सात गीत भोजपुरी में थे और सबके सब हिट। दरअसल हिंदी फिल्म में भोजपुरी गीत रखना उन दिनों एक फार्मूला बन गया था। सन 1931 से लेकर सन 1962 तक के तीस सालों में मराठी, गुजराती, असमिया, कन्नड़, पंजाबी, उड़िया, मलयालम में फिल्में बनी लेकिन भोजपुरी फ़िल्म का कहीं नामो-निशान नहीं था। इस बात का अफसोस भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भी था उनके सुझाव पर ही तत्कालीन एकिकृत बिहार स्थित गिरिडीह जिला (वर्तमान में झारखंड) के अभ्रक खदान के मालिक विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने भोजपुरी में फिल्म बनाने की प्रेरणा ली। उन्होंने हिंदी फिल्मों के अभिनेता नज़ीर हुसैन की मदद से भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाइबो’ बना डाली। इस पहली ही फिल्म ने कई नए कीर्तिमान क़ायम कर दिए।

डॉ. राजेंद्र संजय ने पाठकों को कई नए विषयों की जानकारी दी है। जैसे विश्व में फिल्मों का जन्म कब, कहाँ, और कैसे हुआ? उस समय फिल्मों का रूप क्या था? वे कैसे बनाई जाती थी? कैमरे का इज़ाद कहाँ, कैसे हुआ? फिल्मों से उसका नाता कैसे जुड़ा? स्थिर फिल्मों के स्थान पर चलती फिरती फिल्मों की शुरुआत कैसे हुई? सिनेमा का जन्म वास्तव में एक चमत्कार से कम नहीं था।

इस पुस्तक में सन 1931 से 1961 तक बनी कुल 173 हिंदी फिल्मों में भोजपुरी फिल्मी गीतों की सूची भी दी गयी है। यादगार फिल्मों सहित भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर की जीवनी भी संक्षेप में फोटो के साथ पुस्तक में वर्णित है। डॉ. राजेंद्र संजय ने यह भी वर्णन किया है कि कैसे तीन चार फिल्मों के सफल निर्माण के बाद ही दुर्भाग्य ने भोजपुरी फिल्मों के दरवाजे पर दस्तक देना शुरू कर दिया और फिल्में फ्लॉप होने लगी। फिल्म उद्योग में अधकचरे लोगों का प्रवेश होने लगा। अनुभवहीन निर्माता, अधकचरे निर्देशक, तकनीशियन तथा लेखकों ने भोजपुरी फिल्मों का बंटाधार करना शुरू कर दिया, पैसे की खातिर। भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर सन 1977 में रंगीन भोजपुरी फ़िल्म ‘दंगल’ से शुरू हुआ और सन 1989 तक रहा जिसमें कई हिट फिल्में बनी।

जबकि तीसरे दौर (2000-2008) में कुछेक नई उपलब्धियां देखने को मिली। अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, शत्रुघ्न सिन्हा भोजपुरी फिल्मों में अभिनय किये फिर रवि किशन, गायक मनोज तिवारी भोजपुरी स्टार बन गए अब तो हर साल आयोजित होने वाले भोजपुरी फिल्म्स अवार्ड की भी शुरुआत होने की चर्चा भी पुस्तक में है। लेखक ने शुरू से अंत तक पाठक के साथ बातचीत की शैली में पूरे इतिहास को प्रस्तुत किया है जो अपने आप में एक अनुठा प्रयोग है। डॉ. राजेन्द्र संजय लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी फिल्मों का इतिहास’ निस्संदेह हर संग्रहालय के लिए एक धरोहर साबित होगी।

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