आशा विनय सिंह बैस की कलम से : होलिका दहन की एक विचित्र परंपरा

नई दिल्ली। अरावली के कुछ क्षेत्रों (अजमेर, राजसमंद जिलों) में होलिका दहन की एक विचित्र परंपरा है। यहां पर किसी साबुत पेड़ की डालियां, पत्ते आदि काटकर उस पर सूखी घास लपेट दी जाती है। आजकल उस पेड़ के ऊपर एक धार्मिक झंडा भी लगाया जाने लगा है। पूर्व में इस प्रकार के पेड़ का चुनाव फागुन के एक महीने पहले ही कर लिया जाता था तथा उसे होलिका का रूप दे दिया जाता था। फागुन की पूर्णिमा यानी होलिका दहन के दिन इस पेड़ को सभी गांव वालों की उपस्थिति में जलाया जाता था। लेकिन इसमें एक समस्या आने लगी थी। चूंकि एक महीने का समय काफी लंबा होता है और इस दौरान कई पक्षी अपने अंडे उस पेड़ पर दे दिया करते थे। जिन्हें तोड़ना या जलाना ठीक नहीं समझा जाता था। इसलिए यह परंपरा अब समाप्त हो गई है। अब होलिका दहन के कुछ दिन पूर्व ही पेड़ का चुनाव और उस पर घास लपेटने का कार्य किया जाता है।

होलिका दहन के दिन जिस पेड़ पर आग लगाई जाती है, उसे गांव का ही एक व्यक्ति कुल्हाड़ी लेकर उसके तने को काटता है। शर्त यह रहती है कि आग बुझने से पहले पेड़ कट जाना चाहिए। अगर आग बुझ गई और पेड़ नहीं कटा तो यह अशुभ माना जाता है। इसलिए ऐसे पेड़ का चुनाव किया जाता है जो आसानी से कट जाए और इस कार्य के लिए गांव के किसी तेजतर्रार और अनुभवी व्यक्ति का चुनाव किया जाता है। चूंकि ऊपर आग जलती रहती है और नीचे पेड़ काटना होता है इसलिए यह अत्यंत जोखिम भरा कार्य है।

होलिका दहन के बाद गांव में उस वर्ष होली के बाद पैदा हुए बच्चे/बच्चों को होलिका के चारों तरफ सात चक्कर लगवाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे बच्चा दीर्घायु और स्वस्थ होता है। तत्पश्चात होली के आसपास इकट्ठा हुए सभी लोग फाग आदि गाते हुए उस बच्चे के घर जाते हैं तथा घर मालिक से शराब की बोतल या उसके लिए पैसे मांगे जाते हैं। जो बच्चे का पिता खुशी-खुशी दे देता है। इसके बाद फाग गाने वाला दल सुरा पान करके सो जाता है ताकि अगली सुबह धूमधाम से रंगो की होली खेल सके।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

होलिका की फोटो- राजस्थान के राजसमंद जिले के भीम कस्बे के पास स्थित बड़ी का चौड़ा गांव से

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