रूपल की कविता – “सपनों के चिथड़े”

“सपनों के चिथड़े”

आज मैंने जब देखा
कांधे पर चढ़े तुम्हारे बच्चों की आँखें
उनमें उनके सपनों के चिथड़े उड़ रहे थे
तुम्हारे नंगें पावों के एक- एक कदम ने
मेरी आत्मा की
सारी संवेदना के दीवारों को ढहा दिया था
तुमने हमारे घरों को बसा
अपना घर उजाड़ा था
तुम छत ढूंढ़ रहे हो
अपनी मुट्ठी में
लाचारी और असमर्थताओं को भींच कर
तुम्हारें दर्द सड़कों पर छितरा रहे है
और हम घरों में कैद होने
का गम मना रहे हैं।

© रूपल

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