तांबरम (चेन्नई) ट्रेनिंग सेंटर में हमारे एक ‘मित्र’ थे।
नाम था—–
खैर छोड़िए, शेक्सपियर कह गए हैं कि नाम में क्या रखा है?? इसलिए चलो काम की बात करते हैं।
काम की बात यह कि हमारे ‘मित्र’ वैसे तो बहुत ही सीधे, सरल और सज्जन आदमी थे। अपने काम से काम रखते थे और अपने राम से राम। उनकी बस एक ही जाहिर कमजोरी थी कि वह किसी ‘सुंदर बाला’ को देखते ही आउट-ऑफ-कंट्रोल हो जाते थे। अपनी सुध -बुध खो बैठते थे। फिर उन्हें दुनिया-जहान का होश न रहता था।
तो हुआ यूं कि एक बार छुट्टी के दिन हम लोग ‘बुक आउट’ में चेन्नई से लगभग 60 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित महाबलीपुरम गए हुए थे। पल्लव वंश शासकों के तमाम स्मारक, चट्टान पर उकेरे गए पांडव रथों को देखने और आठवीं सदी में निर्मित दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिर Shore Temple की अद्भुत कारीगरी तथा मंदिर में स्थित भगवान विष्णु और महादेव शिव की प्रतिमाओं का दर्शन करने के पश्चात हम लोग बीच का आनंद लेने के लिए समुद्र तट पर पहुंच गए।
बीच पर एक घोड़े वाला हम लोगों से 20 रुपये में घोड़े की सवारी करने का “तमिल-मिश्रित- हिंदी” में आग्रह कर रहा था। हम लोग “हिंदी -मिश्रित- अंग्रेजी” में उससे मोलभाव कर रहे थे कि हम कुल ‘नौ’ लोग हैं इसलिए थोक का भाव लगा लो और 150 रुपये में काम चला लो। थोड़ी देर बाद घोड़े वाला मान गया और बोला कि ठीक है- सभी लोग लाइन से खड़े हो जाओ और एक-एक करके घोड़े पर बैठकर सैर करते जाओ। फिर उसने गिनती शुरू की-
“ओनरु, एरंदु, मुनरू—–एत्तु? एत्तु??
उसने एक बार फिर गिना -“ओनरु, एरंदु, मुनरू—–एत्तु???
और थोड़ा कंफ्यूज होकर बोला कि आप लोग तो एत्तु (आठ) ही हैं, ओंपदु (नौ) नहीं।”
“आंय!!!हम तो नौ लोग आए थे, ये आठ कैसे गिन रहा है!!” मैंने मन में सोचा।
फिर मैंने भी गिना और पंचतंत्र की कहानी से सबक लेते हुए पहले खुद को गिना फिर भी – ‘एक, दो, तीन, चार ——आठ’ ही निकले। तो फिर नौंवा किधर गया??
अब रोल कॉल शुरू हुआ-
वी के सिंह-प्रेजेंट,
अग्निहोत्री-प्रेजेंट,
शुक्ला-प्रेजेंट
——–
——–
‘मित्र’– कोई आवाज नही।
‘मित्र’– फिर कोई आवाज नहीं।
अब हम लोग टेंशन में आ गए कि ‘मित्र’ कहाँ चला गया?? कहीं किसी पहाड़ी या मंदिर में छूट तो नहीं गया??? लेकिन हमारे ग्रुप के सबसे समझदार और वरिष्ठ सदस्य अग्निहोत्री जी ने आश्वस्त किया कि ‘मित्र’ बीच तक तो पक्का साथ में आया था। यहाँ से कहाँ गायब हो गया, पता नहीं।
तभी उड़ती चिड़िया का भी लिंग पहचान लेने वाले एक तो शुक्ला ऊपर से कनपुरिया प्रकाश शुक्ला ने उंगली का इशारा करते हुए कहा-
“वह रहा bsdk मित्र!! उधर थोड़ा दूर देखो जिधर सुंदर गोरी बालाएं सन-बाथ कर रही हैं।”
और हम लोगों ने पाया कि ‘मित्र’ वहीं खड़ा हुआ अपनी आंखे सेंक रहा था।
खैर, हम लोग उसे गरियाते और धकियाते हुए खींचकर वापस अपने पास ले आये। इस घटना के बाद हमने उसे ग्रुप से बाहर कदम न रखने दिया।
काश!!
काश कि पैसा लेकर शिक्षक की नौकरी और शिक्षण संस्थानों को मान्यता देने में पारंगत पार्थ चटर्जी ने किसी टालीवुड अभिनेत्री पर करोड़ों रुपये खर्च करने और दर्ज़नो फ्लैट दिलवाने के बजाय हम जैसे दोस्तों पर हज़ारों रुपये भी इन्वेस्ट किया होते, चाय-पानी कराया होता, बियर-शियर पिलाई होती, तो आज किसी फ्लॉप फिल्मी बाला के चक्कर मे वह जेल की चक्की नहीं पीस रहा होता!!
हम लोग ‘पार्थ’ को गरियाते तो खूब लेकिन ‘गीता ज्ञान’ भी देते कि किसी सुंदरी के इश्क़ की मोह-माया में न पड़ो। अपने कर्तव्य पथ से मत डिगो। जो बेवफा अपने पति को ‘अर्पित’ नहीं हो पाई, वह तुम पर कैसे ‘समर्पित’ होगी??
#FriendshipDay
(विनय सिंह बैस)