निर्गुण ज्ञानाश्रयी भक्ति के प्रवर्तक महात्मा कबीरदास की जयंती पर विशेष…

“कहत कबीर सुनो भाई साधु, संग चले ना रे ढेला।
उड़ जा हंस अकेला।।” – कबीरदास

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । हमारी यह भारत भूमि अति प्राचीन काल से ही देवों की प्रिय और महापुरुषों की ‘तप व कर्म की पवित्र भूमि’ रही है । समयानुसार देवों ने इस भूमि पर मानव रूप में जन्म ले-लेकर अपने कर्म-कौशल से इसे सिंचित किया है। जिन्हें हम भारतवासी आदर और कृतज्ञता वश देव, महात्मा, संत आदि के रूप में स्वीकार करते आए हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख संत महात्मा कबीरदास जी भी हुए हैं, जो मध्यकालीन भारत के सामाजिक सुधार के अग्रदूत और स्वाधीन चेतना के प्रणेता महापुरुष थे। कबीर पंथियों ने उन्हें एक अलौकिक ब्रह्म अवतारी पुरुष ही माना है।

महात्मा कबीरदास का सम्पूर्ण जीवन अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। उनके जीवन के बारे में अलग-अलग विचार और कई कथाएँ प्रचलित हैं। किंवदंती के अनुसार कबीर जी का जन्म बड़े ही चमत्कारिक ढंग से हुआ था। उनकी माँ धर्मनिष्ठ सेवाव्रती एक ब्राह्मण विधवा थीं, जिसकी भक्ति और सेवा के प्रति समर्पण भाव से प्रभावित होकर एक पहुँचे हुए तपस्वी ने उन्हें एक यशस्वी पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था। वैधव्य में पुत्र-जन्म हो जाने के उपरांत सामाजिक बदनामी के डर से उस सदय-प्रसूता ने अपने उस नवजात शिशु (कबीर) को काशी में लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ दिया था। ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, संवत 1455 (सन् 1398 ईo) के दिन कबीर अपने पालक माता-पिता मुस्लिम बुनकर दंपति नीरू और नीमा को प्राप्त हुए थे। उस निःसंतान दंपति ने उसे ईश्वरीय प्रसाद स्वरूप अंगीकार कर लिया। इसीलिए इसी तिथि को ‘कबीर जयंती’ मनाये जाने की परंपरा रही है। एक अन्य किंवदंती के अनुसार कबीर नीरू और नीमा दंपति को एक विराट कमल पुष्प पर से प्राप्त हुए थे। कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है –
“चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए।।”

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महात्मा कबीरदास के प्राकट्य स्थल ‘लहरतारा’ काशी का चित्र

कबीरपंथी विद्वजनों के अनुसार, ‘कबीर’ एक असाधारण नाम है। उनका नाम एक क़ाज़ी ने रखा था। उसने उस बालक के लिए एक नाम खोजने के लिए कई बार ‘क़ुरान’ खोला और हर बार ‘कबीर’ नाम पर ही उनकी खोज समाप्त होती थी, जिसका अर्थ ‘महान’ होता है, जो केवल ईश्वर और अल्लाह के लिए उपयोगी हो सकता है।
“कबीरा तू ही कबीरु तू तोरे नाम कबीर।
राम रतन तब पाइ जड पहिले तजहि सरिर।।”

वर्तमान में काशी में ‘कबीर चौरा’ नाम का एक इलाका है, यहीं पर कबीर का बचपन और जवानी पारिवारिक बुनकर का कार्य करते हुए बीता था। बाद में लोई नामक एक कन्या से उनकी शादी हुई और कालांतर में उनकी दो संतान हुईं, एक बेटा कमाल और एक बेटी कमाली थी। अपनी कविताओं में कबीर जी ने स्वयं को ‘जुलाहा’ ही कहा है, जो मुस्लिम समाज में एक निचली जाति से संबंधित है।
“जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरो उदासी।।”

कबीरदास अपने आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य से काशी के तत्कालीन प्रसिद्ध वैष्णव संत रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे। परंतु उनका पारिवारिक जाति इसमें बाधक बन रही थी। संत रामानंद प्रतिदिन भोर बेला में गंगा-स्नान के लिए एक निश्चित घाट पर ही जाते थे। एक बार कबीर उसी घाट की सीढ़ियों पर जा लेटे। भोर कालीन धुंधलेपन में संत रामानंद के पैरों कबीर से जा टकराया, ग्लानिवश तत्क्षण उनके मुँह से ‘राम-राम-राम’ शब्द निकाला। कबीर ने इस ‘राम-राम-राम’ को ही गुरु मंत्र के रूप में आत्मसात कर लिया। बाद में कबीर की दृढ़ता ने संत रामानंद के मन को जीत लिया। इस प्रकार कबीर ने संत रामानंद के शिष्यत्व को प्राप्त किया। बताया जाता है कि उनके तत्वज्ञान पर एक सूफी पीर शेख तक्की का भी प्रभाव था।
“काशी में परगट भये, रामानंद चेताये।”

कबीरदास ने तत्कालीन भारतीय हिन्दू-मुस्लिम समाज तथा धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडंबर, अंधविश्वास, रूढ़िवाद, पाखण्ड, जातिवाद आदि का घोर विरोध कर “हरि को भजे सो हरि का होय” जैसे भक्ति का अति सरल मार्ग प्रस्तुत कर परस्पर सौहार्द्र का मार्ग प्रशस्त किया। उनके मध्य परस्पर भाईचारा, प्रेम और सद्भावना के दिव्य संदेश प्रसारित कर उन्हें इंद्रधनुषी ‘पंचमेली’ में बाँधने जैसे प्रशंसनीय कार्य किया है। अवतार, मूर्ति, मंदिर, रोजा, ईद, मस्जिद आदि से ऊपर उठकर उनकी निगाह एक ही शुद्ध ईश्वर को खोजा है, जिसे चाहे तो ‘राम’ कहें या फिर ‘रहमान’ कहें।
“हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।”

कबीरदास रामनाम की महिमा गाया करते थे। लेकिन विष्णु के अवतार दशरथ नंदन ‘राम’ के रूप में नहीं, बल्कि उनका ‘राम’ तो किसी भी व्यक्ति रूप या विशेषताओं से परे हैं। उनका ईश्वर मंदिर-मस्जिद, कीर्तन-अजान, धर्म-जाति, आकार-प्रकार से परे केवल शुद्ध ज्ञान हैं, शुद्ध परमानन्द हैं। जो सर्वव्यापी हैं, जो निराकार हैं, जो समय और स्थान से परे हैं, जो विश्व के कण-कण में समाए हुए हैं, जिसका न मुँह-माथा है, न ही रूप-स्वरूप ही है, वह तो घट-घट के वासी और फूलों के वास से भी महीन हैं।
“जाके मुँह माथा नाहिं, नहिं रूपक रूप।
फूल वास ते पतला, ऐसा तात अनूप।।”
कबीरदास अक्षर ज्ञान से वंचित ही रहे हैं। परंतु वे अन्तः दिव्य ज्ञान से और दिव्य अनुभूति से परिपूर्ण थे। उन्होंने लोक भाषा-बोली में प्रचलित मुक्तक छंदों में लोगों को जीवन संबंधित नई प्रेरणा देते हुए अपने भजन और उपदेशों को सुनाया, जिसे लोगों ने बहुत ही चाव से ग्रहण किया। इस प्रकार उन्होंने मध्यकालीन भारतीय समाज में एक विराट क्रांति का सूत्रपात किया था।

संत कबीरदास ने अपने विचारों को जन-जन तक फैलाने का जिम्मा अपने चार प्रमुख शिष्य यथा, ‘चतुर्भुज’, ‘बंके जी’, ‘सहते जी’ और ‘धर्मदास’ को दिया था। जिन्होंने अपने गुरु की वाणी को प्रचारित कर एक विशेष ‘पंथ’ की शुरुआत की, जिसे ‘कबीरपंथ’ कहा जाता है। आज देशभर में करीब एक करोड़ से अधिक भक्त लोग इस पंथ से जुड़े हुए हैं। उन चार शिष्यों में से ‘धर्मदास जी’ बहुत प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अपने गुरु महात्मा कबीरदास की वाणी स्वरूप भजनों और उपदेशों को ‘पंथ’ के मार्गदर्शन तथा भविष्य के लिए सुरक्षित रखने हेतु सन् 1464 में संकलित कर उसे “बीजक” नाम प्रदान किया है, जिसके तीन भाग साखी, सबद और रमैनी हैं। उन्होंने कबीरपंथ की ‘धर्मदासी’ अथवा ‘छत्तीसगढ़ी’ शाखा की स्थापना की थी, जो इस समय सबसे मजबूत कबीरपंथी शाखा माना जाता है।
“उड़ जा हंस अकेला।
एक डाल पर दो पंछी रे बैठा कौन गुरु कौन चेला।
कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, जोड़ भरे ले थैला।
कहत कबीर सुनो भाई साधु, संग चले ना रे ढेला।
उड़ जा हंस अकेला।।”

कबीरदास ने अपने जीवन काल में व्यापक यात्रा की थी। समाज में आध्यात्मिकता की दृष्टि से कुछ ऐसी मान्यता रही है कि काशी में मरने पर ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है, जबकि ‘मगहर’ में मृत्यु होने से ‘नरक’ प्राप्त होता है। ऐसे बेतुक अंधविश्वासों का महात्मा कबीरदास ने घोर विरोध किया है। जब उन्हें अपने जीवन के अंत का आभास हो गया, तब वे ‘मोक्ष दायिनी’ काशी को छोड़कर ‘नरक दायिनी’ मगहर में चले गए। कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही प्राणियों को गति मिलती है, उसकी जाति, स्वरूप, सामाजिक स्थिति, स्थान विशेष के कारण कदापि नहीं। यहीं मगहर में ही संवत 1551 (सन् 1494 ईo) में उन्होंने अपने नश्वर शरीर को त्याग कर परमब्रह्म में सदा के लिए लीन हो गए।
“काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये।
कहै कबीर मैं क्या करूँ, कोयी नहीं पतियाये।।”

कहा जाता है कि मगहर में कबीरदास की मृत्यु के उपरांत उनके मृत शरीर के अंतिम संस्कार कर लिए उनके हिंदू और मुसलमान शिष्यों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो गया। दोनों अपने-अपने रीति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे। पर ऐसे में एक चमत्कार ही हुआ, उनके मृत शरीर के ऊपर से कफन को हटाने पर वहाँ कुछ फूल दिखाई दिए। उसके आधे अंश को हिन्दू और आधे अंश को मुसलमान अपनी-अपनी रीति से अंतिम संस्कार कर दिए। कबीरदास के स्मरण में मगहर में उनके अनुयायियों द्वारा निर्मित उनकी मजार और समाधि दोनों अगल-बगल में ही स्थित है और दोनों ही पूजनीय है।

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महात्मा कबीरदास की निर्वाण स्थली ‘मगहर’ में समाधि और दरगाह के चित्र

वास्तव में, कबीरदास की वाणी उनकी आध्यात्मिक खोज, उनकी सामाजिक पीड़ा और उनके हृदय के विराट परमानन्द से उद्भूत हुई थी। वे शब्द के नहीं, बल्कि तत्व ज्ञान के एक असाधारण व्यवहारिक जनकवि और भक्तकवि रहे हैं। उनकी सरल लोक भाषा, आध्यात्मिक विचार-भावना और अनुभव की गहराई उन्हें आज भी प्रासंगिक और लोकप्रिय बना रखी हैं। उनके दोहों और लंबे गीतिय पदों में संगीत के सरगम तत्वों का सुन्दर समन्वय को देखकर वर्तमान संगीत विशेषज्ञों को भी आश्चर्य हो जाता है।
“चलना है दूर मुसाफिर, काहे सोवे रे,
काहे सोवे रे… मुसाफिर! काहे सोवे रे।
चेत-अचेत नर सोच बावरे, बहुत नींद मत सोवे रे,
काम-क्रोध-मद-लोभ में फंसकर, उमरिया काहे खोवे रे।
चलना है दूर मुसाफिर, काहे सोवे रे।

कबीरदास जी की शिक्षाओं ने कई व्यक्तियों और समूहों को आध्यात्मिक रूप से प्रेरित किया है। गुरु नानक जी, दादू जी, सतनामी जीवनदास जी आदि ने कबीरदास के आध्यात्मिक मार्ग के ही बहुत कुछ अंशों का अनुसरण किया है। इनके अनुयायियों के द्वारा संचालित ‘कबीरपंथ’ कोई अलग धार्मिक पंथ न होकर एक आध्यात्मिक दर्शन मात्र ही तो है।
“माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूँगी तोहे।।”

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा, पश्चिम बंगाल
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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