पुस्तक समीक्षा : अतुल कुमार राय का आंचलिक उपन्यास ‘चांदपुर की चंदा’

राजेश ओझा, गोण्डा, उत्तर प्रदेश । 23 फरवरी 2022 को जब छोटे भाई लोग सुनील, अवनीश मुझसे मिलने कचहरी आये तो “चांद पुर की चंदा” की एक प्रति मुझे भेंट कर गये। लेखक अतुल कुमार राय मित्र सूची में पहले से ही थे, पर बहुत अधिक संपर्क में नही था। पुस्तक मिलने के बाद एक दिन अतुल भाई की वाल पर गया और तब मुझे पहली बार लगा कि भाई को तो नियमित पढ़ना चाहिये था। बहुत शानदार लिखते हैं। फिलहाल व्यस्तता के चलते उपन्यास अब पढ़ पाया हूँ। ‘हिन्द युग्म’ प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास को जब पढ़ना शुरू किया तो सबसे पहले एक चरित्र बित्तन ने चौंकाया था। लगा था कि उपन्यास हंसाएगा।

आलोच्य उपन्यास जैसे जैसे पढ़ता गया, एक बात स्पष्ट हुई कि अतुल भले गाँव जवांर से दूर माया नगरी में बसेरा बनाये हों पर  गाँव जवांर पर उनकी दृष्टि बहुत बारीकी से प्रत्येक विसंगति की पड़ताल कर रही है। मैने पहले भी कहा है कि साहित्य धर्मिता की पहली शर्त है कि वह समाज की विसंगति पर अपनी पैनी दृष्टि रखे। भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर अक्सर कहा जाता है कि- “भला हो हमारी शिक्षा व्यवस्था का जहां आप जीवन में भले फेल हो जाएं पर पढ़ाई में चाहकर भी फेल नही हो सकते।”

अतुल जी ने उपन्यास की शुरुआत ही इस विसंगति से की है। एक उदाहरण देखें–‘फुलेसरी देवी मेमोरियल इंटर कालेज, चांदपुर। यूपी बोर्ड से मान्यता प्राप्त!’ कहते हैं, इस इंटर कालेज को तीन साल में यूपी बोर्ड से मान्यता मिली थी लेकिन एक साल के अंदर ही देश के सुदूर अंचलों में ये मान्यता मिल गयी थी कि इस स्कूल से गधा भी पास हो सकता है। यहां की पढ़ाई राम भरोसे चल रही थी। राम भरोसे यादव इस स्कूल के सगे प्रिंसिपल थे।”

गाँव के ऐसे स्कूलों का हूबहू चित्र खींचा है अतुल जी ने, अध्यापक की भाषा देखिये–“चुप नालायक! न जाने कहां दिमाग रखकर स्कूल आता है। मैं किस सूरदास कवि की बात कर रहा और ये किस गंजेड़ी चोर की बात कर रहा..मूर्ख कहीं का, बैठ जा!” मास्टर साहब आगे कहते हैं-” बताओ ऐसे गधों को मुलायम सिंग, मायावती क्या जयललिता भी पास नही करवा सकतीं। इसलिये कह रहा कि गाइड पे ध्यान दे गाइड पे।”

उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश ग्रामीण अंचल के अभिभावक किस तरह नकल करवा कर अपने बच्चों को पास कराते हैं, उसका बड़ा सरस, विनोदी चित्र अतुल जी बनाते हैं। कुछ प्रसंग देखें–‘एक लड़का खिड़की से चिल्ला रहा है, “ए पापा चौथा हो गया। जल्दी से पांचवा लाइये।” उधर बगल वाली खिड़की से आवाज आ रही है,”ए फूफा तीसरा छूट रहा है।” एक लड़का तो अपने बाप पर ही दांत पीस रहा है, “तबे से इनसे प्रश्न सात मांग रहे हैं, न इनको विद्या में मिल रहा है ना काका में! घरवे कहे कि तनी पढ़ लीजिए हो। एहू साल फेल करवा के मानेंगे।”

वैसे तो आलोच्य उपन्यास में मुख्य रूप से चंदा और मंटू की प्रेम कहानी है जिसमें अतुल प्रेम की नई परिभाषा भी गढ़ते हैं। एक प्रसंग देखें– ‘पिंकी जबतक कुछ जबान से बोलती,उसकी आंखों से आंसू निकलकर बोलने लगे। कैसे कहे कि वक्त कितना सुंदर और कितना निष्ठुर हो सकता है! आज पहली बार महसूस किया कि प्रेम वो रसायन है,जो आदमी से मिलकर आदमी को आदमी बनाता है, एक संवेदनशील आदमी!’

एक परिहास देखें–‘जैसे बिना डीजल-पेट्रोल के गाड़ी नही चलती वैसे ही बिना कविता के प्रेम मुश्किल है।इश्क में बिना कविता के काम चलाना मुश्किल होता है। प्रेम में छोटा मोटा कवि होना ही पड़ता है। चांद पुर के युवा कवि अलगू आतिश उर्फ चिंगारी उर्फ लुकारी जी मझले कद के एक बड़े कवि थे।’ एक प्रकार से कहा जा सकता है कि आलोच्य उपन्यास में एक साथ, प्रेम, व्यंग्य, हास्य, परिहास, राजनीति के विगलित रुप, संवेदना आदि सभी का विस्तृत और प्रामाणिक दस्तावेज है ‘चांद पुर की चंदा’..।

भाषा और बोली के स्तर पर भी एक नये प्रयोग जैसी संरचना गढ़ रहे हैं अतुल। अवधी-भोजपुरी की मिश्रित बोली का एक नया रूप दिखा। तत्सम और तद्भव शब्दों का एक साथ प्रयोग भी आकर्षित कर रहा है। वे अपने गाँव-गिरांव के आसपास की बोली, मुहावरे, लोकोक्तियों, फिल्मी गीतों की पंक्तियों का भरपूर प्रयोग कहानी को प्रवाहित करने में अतुल सफल हुये हैं। जब लेखक अपनी विद्वता प्रदर्शित करने लगता है तो कहानी का प्रवाह धीमा पड़ने लगता है। कहानी भटक कर विचारों की तरफ मुड़कर बोझिल होने लगती है। यहां ऐसा नही है। लेखक ने कहानी को कहानी के अनुरूप बहने दिया है।

किसी भी स्तरीय साहित्य की पहली शर्त होती है कि वह अद्तन समाज की विसंगति का हल साहित्य में प्रस्तुत करे..अतुल जी को उसका बखूबी भान है। वे अपने गौरव शाली संस्कृति का बचाव करते हुये कहते हैं–“आपके विचार उत्तम हैं राकेश जी।परंतु अपनी संस्कृति में सर्वप्रथम लोकगायन की परंपरा रही है और हमेशा याद रखिये, हंसी-मजाक एक तरफ,लेकिन कोई भी संस्कृति तभी टिकती है जब समाज अपने लोकाचार का सम्मान करता है।”

अपने उपन्यास के माध्यम से अतुल न तो आदर्श गढ़ रहे हैं न ही परिमार्जन के ही बहुत पक्ष में हैं। वह आज के व्यक्ति को उसके मनोभावों के साथ बिना लागलपेट के प्रस्तुत कर रहे हैं। अतुल राय का यह पहला उपन्यास है और अपने पहले ही उपन्यास से यथार्थवादी कथाकार का प्रमाणपत्र पाते हुये दिख रहे हैं। कुल मिलाकर अगर यह कहा जाये कि ‘बहुत दिन बाद उपन्यास साहित्य में कोई ऐसा उपन्यास आया है जो आपको एक साथ हंसाता है, रुलाता है, और अपनी आंचलिकता के जादू में ऐसा खींचता है कि पाठक उसमें खोता चला जाता है..साथ साथ व्यंग्य ऐसा जो चुटकी तो काटता है लेकिन हंसा हंसा कर। एक प्रकार से कह सकते हैं कि हास्य की चाश्नी में मिर्च के पकौड़े तलने की कला भी अतुल को आती है।

पुस्तक का दिखने में आकर्षक और शानदार है। मुखपृष्ठ, मुद्रण, प्रूफ प्रकाशक हिन्द युग्म की तारीफ करने का आधार दे रहे हैं। शानदार उपन्यास है ‘चांद पुर की चंदा’ अवश्य पठनीय है।

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