पारो शैवलिनी की कविता : मां

“माँ”
पारो शैवलिनी

माँ सबकुछ है।
एक स्वर्णिम स्वर्ग है माँ
जन्म से मृत्यु तक के सफर का।
साथ रहते हुए
पग-पग पर
डगमगाती कदमों को
संभालने में
अपने वर्तमान की भी
सुध नहीं लेती
अपना भविष्य भी
न्योछावर कर देती है हमारे भविष्य को
सुधारने में।
मुसीबत के समय माँ
मजबूत हो जाती है
चट्टान की तरह।
रास्ता भटकता हूं
तो, नदी की तरह
रास्ता बनाती है माँ।
ममता उसकी सिंगार है
हर परिस्थिति में
कभी हार नहीं मानती माँ
हर फर्ज निभाती है
कभी नहीं थकती माँ।
परिवार को बसाना
जानती है माँ।
बावजूद,
हम बाज नहीं आते
उसका तिरस्कार करते हैं
और,ढुढंते फिरते हैं
अपना चैन और अमन
कभी मंदिर
कभी मस्जिद
कभी चर्च
तो कभी गुरुद्वारे में।
पहचानो
माँ की शक्ति को
उसकी ममता को।
तब पता चलेगा
माँ!
भगवान से भी बड़ी है।
क्योंकि,
भगवान को भी वो
नौ महीने अपनी कोख में
रखने के बाद ही
उसे भी अस्तित्व में
लाती है माँ।
हां, माँ तुम सबकुछ हो।
माँ सबकुछ है।

पारो शैवलिनी कवि

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