राम नाम सत्य है
‘बापू! पैसे दो न। हम भी फटाका खरीदेंगे। वो पास के मुहल्ले के आदित्य, सोनू और बलराम हैं न, उनके जैसे ही हम भी फटाका फोड़ेंगे। – साढ़े चार-पाँच वर्षीय अबोध बालक जीवन अपने बाप राजेन के पास मचल उठा।
उसका बाप राजेन नगर के एकमात्र श्मशान घाट का डोम है और वह वहीं लाश जलाने का काम करता है। यही उसका पैतृक कार्य भी है। उसके पिता ने उसके होश संभालते ही अपने इस पुश्तैनी कार्य में उसे भी लगा दिया। पर राजेन नहीं चाहता है कि उसका बेटा जीवन भी उसी कार्य को करे। उसने इस कस्बे के ही सरकारी स्कूल में जीवन का नाम लिखवाने की बहुत कोशिश की, पर समाजवाद के तथाकथित कई आग्रही और उपदेशक सहित उस स्कूल के कई मास्टर लोग भी उसकी जाति और जातिगत लाश जलाने जैसे अछूत कार्य को केंद्र कर उसके लिए स्कूल के दरवाजे को हमेशा के लिए ही बंद करवा दिए।
उपदेश सदैव पर के लिए ही तो होता है। कथनी और करनी में अंतर किये बिना भलेमानस बनना, बालू के ढेर में पानी को संचय ही तो करना है। जीवन भी जन्म से ही अपने माथे पर ‘डोम’ उपनाम की मुहर लगाये हुए इस धरती पर जन्म लिया है। अतः सभ्य समाज उसे भी न अपनाया और उसके बाप की तरह ही उसे भी श्मशान घाट की जलती चिताएँ, अधजली लकड़ियों, सफेद कफन के चिथड़ों और जहाँ-तहाँ मिट्टी के टूटे-फूटे वर्तनों के बीच ही सीमित कर दिया।
अभी से ही वह अपने बाप से चिता बनाने के गुर को भी सिखने लगा है। बाद में उसे भी तो इसी कार्य में पारंगत होना है। उसे भी अपने बाप की तरह ही लाश को आग देने और शवयात्रियों से श्मशान घाट छोड़ने के नाम पर डेढ़-दो सौ मिल जाया करेंगे और क्या? वह भी शव की उम्र और उसके परिजन की आर्थिक हैसियत पर ही निर्भर रहेगा। इसके लिए भी उसे कई बार समृद्ध व प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा प्रताड़न भी सहना पड़ेगा ही।
उसके बाप को भी दो-तीन बार मार-पिट कर यहाँ से भगाया भी गया था। पर वह करता भी क्या? जहाँ जाता उसकी जाति और उसके अछूत समझे जाने वाले कार्य भी उसके संग-संग ही पहुँच जाते थे। फिर कहीं उसका गुजारा कैसे हो सकता था? अतः अपमान के सारे कडुवे घूँट को पी कर थेथर बैल की तरह वापस उसी खूँटा पर आ बँधा।
राजेन को आज भी स्मरण है कि कैसे पैसों के अभाव में और उसके अछूत कार्य को केंद्र कर तथाकथित शिष्ट-समाज की अगुवाई में प्रसव पीड़ा से तड़पती उसकी पत्नी लाजवंती को अस्पताल तक का दर्शन तक न हो पाया और कोठरीनुमा झोपड़ी में ही वह तड़प-तड़प कर मर गई। उसके साथ ही पेट में नौ माह से पलता उसका अजन्मा शिशु भी पेट में ही शांत हो गया था।
उस समय जीवन कोई तीन वर्ष का रहा होगा। पहले तो वह अक्सर अपनी माँ को याद कर रोया करता था। पर समय के थपेड़ों ने बहुत जल्दी ही उसके कोमल मस्तिष्क से माता की याद को क्रमशः धूमिल कर दिया। अब तो उसके माँ-बाप दोनों राजेन ही है। श्मशान घाट पर शवों के आने, उनके जलने आदि घटनाओं के बीच रह कर उसका जीवन भी अब पूर्णतः उसी की आदि बन चुका है।
संध्या होते ही चतुर्दिक अंधकार युक्त घोर सन्नाटों में झींगुरों, उल्लुओं, सियारों और पत्तों की खड़खड़ाहाटों के बीच में बाप-बेटे दोनों भूत-प्रेत होने का भ्रम पैदा करते हैं। क्या मजाल कि कोई उधर की ओर रुख भी करे?
‘बापू! पैसे दो, न।’ – जीवन पुनः मचलते हुए अपने बाप के जगह-जगह से फटी बनियान को खींचते हुए कहा, जिससे ‘चर’ की आवाज करती हुई वह और अधिक फट गयी। उसका बाप राजेन हाथ में एक अधजले बाँस के टुकड़े से जलती चिता में एक बड़ी लकड़ी को ठीक कर रहा था, जो बार-बार खिसक जा रही थी।
‘ठहर, तू देखता नहीं है। मैं लाश जला रहा हूँ। जा, तू उधर जाकर चबूतरा पर बैठ। अपने खिलौनों से जाकर खेल, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’ – राजेन कुछ क्रोध व्यक्त करते हुए उसे वहाँ से हटाया। बिन माँ के बच्चे को विशेष दुलार के बल पर ही तो वह पाल पोस रहा था। राजेन जलती चिता की लकड़ियों को ठीक किया और देखा कि आग अब चतुर्दिक सही ढंग से जल रही है। तब वह चबूतरे के करीब पहुँचा।
जीवन को पुराने खिलौनों से खेलता देख वह अपना सारा दुःख-दर्द और थकान भूल गया। पास में ही बैठ वह भी अपने मन को बहलाने के लिए बालक बन जीवन के साथ खेल में शामिल हो गया। ‘बता। तुमको पैसे क्यों चाहिए?’ – प्रेम भाव जताने के लिए यों ही उसने अपने पुत्र जीवन से पूछ लिया।
‘बापू! देखों न वो सब जो मुहल्ले के लड़के हैं न, उनके बापू दिवाली में उन्हें पहनने के लिए नए नये-नये कपड़े लाये हैं। ढेर सारे फटाका भी फोड़ने के लिए लाये हैं। उनके पास खाने के लिए मिठाइयाँ भी हैं। पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। वे लोग मुझे कुछ भी नहीं देंगे, न तुम हमको भी नया कपड़ा, फटाका और मिठाई ला दो।’ – अपनी तुतली जुबान में उसने बहुत ही जल्दी-जल्दी सब कुछ कह सुनाया।
‘हाँ बेटा! हम तेरे लिए भी सब कुछ लायेंगे।’ – बड़ी उत्साह में कहा। पर कुछ स्मरण कर उसका उत्साह फीका पद गया और अचानक वह चुप हो गया। वह लायेगा भी, तो कहाँ से? किसी तरह से घर का चूल्हा जल जाता है, यही काफी है। कोई कुछ उधार भी तो न देगा। उधार का व्यापार भरोसे पर चलता है। यहाँ आमद का भरोसा ही क्या? कई सप्ताह तक तो श्मशान घाट बिन जले ही रह जाता है। यह काशी का हरिश्चन्द्र मणिकर्णिका घाट थोड़े ही है!
‘चलो न। आज ही ले दो। कल से हम भी नए-नए कपड़े पहनेंगे।’ – बालक मचल उठा। दूर से ही अन्य बच्चों को नये कपड़ों में देख कर बालक मन भला कैसे काबू में रह सकता है? आखिर साढ़े चार–पाँच साल के बच्चे को सामाजिकता और दुनियादारी से मतलब ही क्या?
‘चलेंगे। चलेंगे। पर कुछ और पैसे मिलेंगे, तब न।’ – राजेन अपनी विवशता की बातों से मासूम के अरमानों के फूलों को मसलना नहीं चाहता था।
‘लेकिन, मेरे पास तो ढेर से पैसे हैं, न। अभी लाया।’ – राजेन उसे रोकता रहा, पर वह तो उत्साह से भरा तीर के समान दौड़े गया और कुछ ही दूरी पर अधजले बाँस से बनी झोंपड़ी में से वह तुरंत ही मिट्टी से बने एक छोटे-से कलश लिये आया, जो अक्सर लाश जलाने के क्रम में अपवित्र मान कर लोग यहीं छोड़ जाते हैं।
कलश का मुहाना कई जगह से टुटा हुआ था। उसने अपनी छोटी हथेली को उसमें डाल कर कुछ सिक्कें निकाले, जिनमें कुछ अट्ठनी, एक रूपये व दो रूपये के कई सिक्कें थे। कितना? कुल मिला कर बारह-पन्द्रह रूपये से अधिक नहीं। पर बालक जीवन के अनुसार उसके सारे अरमानों को वे पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं।
‘अरे पगला! इतने पैसे में क्या होगा? और चाहिए तब न नये कपड़े आयेंगे।’ – बालक को दुलारते हुए कहा, – ‘तू एक काम कर, श्मशान काली माँ हैं न, उनके पास जाकर विनती कर कि नगर में रोज दो-तीन लोग मरें। फिर उन्हें जलाने के लिए लोग यहाँ लेकर आयेंगे। तब उनसे कुछ और रूपये मिलेंगे। तब मैं तुम्हारे लिए नए कपड़े, दिवाली में फोड़ने के लिए ढेर सारे फटाकें और तुम्हें खाने के लिए ढेर सारी मिठाइयाँ भी ला दूँगा।’
– कुछ हँसी करता हुआ राजेन ने कहा। – ‘ठीक है। मैं आता हूँ, उस चित्ता को देख कर, लाश तो अब तक जल ही गयी होगी।’ – वही से जलती चिता को देख कर कहा और चल दिया।
साँझ हो गयी थी। चतुर्दिक अन्धकार का साम्राज्य विस्तार होने लगा था। जलती चिता से उत्पन्न लाल-पीली अग्नि-लपटें भयंकर विषधर की तरह ऊपर की ओर लहराने लगी थीं। आग की लालिमा से पास के पेड़ तथा उसके चमकीले पतें और श्मशान काली माँ के मंदिर की दीवारें भी लाल दिखाई देने लगी थीं। उस लाल दीवार पर एक बालक की काली छाया दिखाई दी, जो हाथ जोड़े स्थिर बैठा हुआ था।
‘क्यों रे चंडाल! अभी और कितनी देर है।’ – एक शवयात्री ने राजेन से बड़ी बेचैनी में पूछा। राजेन को अपने लिए ‘चंडाल’ शब्द सुनना कोई अपमान बोधक न था। बल्कि यही शब्द उसके सम्बोधन का परिचायक था। आज तक कोई भी उसे ‘राजेन’ कह कर न पुकारा था। वैसे भी वृति सूचक नाम ही समाज में अधिक प्रचलित हुआ करते हैं। वे सरल होते हैं, न। शायद इसीलिए।
‘लगभग सब जल ही चुका है, मालिक! छाती का अंश ही बाकी रह गया है। वह पूरा कहाँ जलता है? बस अब तुरंत ही उसे निकाल देता हूँ।’- अपने मैले-कुचैले गमछे से अपने चहरे को लपेटा और चिता के पास पड़े एक अधजले बाँस से चिता की जलती लकड़ियों को इधर-उधर करने लगा। जिससे क्रोधातुर आग की लपटें और तेज होकर हवा में नाचने लगीं। पास के खड़े लोग दूर छिटक गएँ। पर राजेन बड़े इत्मिनान से चिट्-चिट् की आवाज के साथ जलते हुए छाती के अंश को आग से अलग किया। उसे बाँस से पिटा, तो वह किसी गेंद की तरह उछल पड़ा।
‘हड्डी और माँस तो तुरंत जल जाते हैं, पर आदमी और औरत की छाती के अंश जल्दी नहीं जलते हैं।’ – लोगों के बीच से कोई बुजुर्गी आवाज आई। राजेन उस अधजले अंश को मिट्टी के एक ढकने में एक अधजले बाँस के एक टुकड़े के सहारे रखा और उसे जल में प्रवाहित करने के लिए ‘अग्निदेऊआ’ की ओर बढ़ा दिया। चिता की लकड़ियाँ बिखर जाने के कारण धीरे-धीरे स्वतः शांत हो गईं।
अब लोग घाट छोड़ने के लिए उद्दत होने लगे। राजेन पहले से ही श्मशान घाट की निकासी पर एक जलती दीया के साथ ही अपने मैले-कुचैले गमछे को फैलाये ‘घाट छोड़वाई’ के लिए बैठा हुआ था। साथ में उसका लड़का जीवन भी था। सबके जाने के बाद राजेन ने देखा सब मिलकर कुल तीन सौ पन्द्रह रूपये ही हुए हैं। ‘राम नाम सत्य है।’
‘चल जीवन, घर चलते हैं।’ – निराश स्वर में कहा।
‘बापू! कल नया कपड़ा लाओगे न।’ – गमछे में पड़े पैसों को देख कर मचलते हुए जीवन ने कहा।
नगर की मुख्य चौड़ी सड़क के किनारे ही एक भव्य इमारत ‘मंगल निवास’ है। नगर के प्रसिद्ध कपड़े के व्यापारी श्री रूपलाल शरण वैश्य जी का है। बड़ा-सा लोहे का गेट और उसके किनारे एक पुष्ट लाठी लिये खड़ा छफुटिया दरवान उस इमारत की अभिजात्यता को प्रदर्शित करते हैं। गत रात्रि से ही वयोवृद्ध श्री रूपलाल शरण वैश्य जी की शारीरिक दशा अचानक ख़राब हो गई।
तब से वे बेहोश पूर्णरूपेण शैय्या-सेवी बने गए। सबेरे से ही इमारत में शहर के एक से बढ़कर एक डॉक्टरों की तथा नामी गिरामी व्यापारियों की भी कीमती गाड़ियों का ताँता लगा हुआ है। दरवान जगनदेव आज सुबह से एक पल के लिए भी बैठा नहीं है। कोई न कोई गाड़ी मुख्य द्वार पर आ खड़ी होकर हॉर्न बजाने लगती है। बेचारा गेट खोलते और सलाम करते-करते थक गया है। पर कोई उपाय भी तो न था? आखिर नौकरी तो इसी को कहते हैं।
‘डैड! पैसे दीजिए न, इस दीपावली में मुझे अपने फ्रेंड्स के लिए ‘शोपिंग काम्प्लेक्स’ से कई गिफ्ट लेना है। मेरे फ्रेंड्स रंजित, प्रभाष, मोंटू, डोली सभी मुझे दीपावली के गिफ्ट देते हैं। मुझे भी उन्हें गिफ्ट देना है।’ – यह है वयोवृद्ध श्री रूपलाल शरण वैश्य जी के छोटे पुत्र बलदेव शरण वैश्य के पाँच वर्षीय पुत्र सुंदर शरण वैश्य। ‘सुंदर’ नाम ही उसके लिए पर्याप्त है। वह अपने पिता बलदेव शरण वैश्य के हाथ को पकड़े मचल उठता है।
‘ठीक है सुंदर बेटे! पर देख रहो न, तुम्हारे दादा जी की तवियत खराब है। अभी डॉक्टर आने वाले हैं। शाम को मैं तुम्हें ‘शोपिंग काम्प्लेक्स’ लेकर चलता हूँ। तुम्हें तुम्हारी पसंद के ढेर सारे गिफ्ट खरीद दूँगा। ठीक है। अभी जाओ तुम। लॉन में जाकर खेलो।’ – बलदेव सुंदर को मनाते हुए कहे और अपने कमरे से निकल कर ड्राइंग रूम की ओर बढ़े चले।
घर का नौकर मंगरू ने डॉक्टर साहब के आने की सूचना दी। बलदेव तुरंत उनकी आगवानी करने के लिए आगे बढ़ा और ‘हेलो-हाय’ की औपचारिकता पूर्ण कर जल्दी से डॉक्टर को अपने बिमारग्रस्त पिता के कमरे ले आये। मंगरू डॉक्टर साहब का सामान लिये पीछे-पीछे आया। डॉक्टर साहब ने श्री रूपलाल शरण वैश्य का शारीरिक निरक्षण किया। वृद्ध मरीज की सेवा हेतु कमरे में पहले से ही मौजूद दोनों नर्सें डॉक्टर साहब को कुछ कागजात सौंपीं। उन पर सरासरी निगाह दौड़ाने और नर्सों को कुछ आवश्यक बातें समझाने के पश्चात डॉक्टर साहब कमरे से निकालें।
पीछे-पीछे बलदेव भी निकले। दोनों ड्राइंग हाल में बड़े सोफे पर बैठ गए। ‘इन पर दवाइयों का कोई असर नहीं हो रहा है। इनके लंग्स के साथ साथ हार्ट में भी इन्फेक्शन हो गया है। मेरे विचार से कार्डियोलोजिस्ट डॉक्टर सूद को बुला कर दिखा देनी चाहिए।‘ – कुछ कागजातों को देखते हुए डॉक्टर ने सलाह दी। तब तक डॉक्टर का सारा सामान लिए नौकर मंगरू भी आ गया और सामान को डॉक्टर के सामने रख कर हाथ बांधे बगल में खड़ा हो गया। डॉक्टर जाने के लिए खड़े हुए।
‘ठीक है। आप उन्हें बुलवा लीजिए।
जो भी खर्च होगा, मैं उन्हें पे कर दूँगा, पर जल्दी ही आ जाए, तो अच्छा होगा।’ – बलदेव डॉक्टर को भरोसा देते हए कहा और उनके बगलगीर होकर उन्हें मुख्य द्वार तक छोड़ने आये। मंगरू भी डॉक्टर का सामान लिए उनकी गाड़ी तक पहुँचा। गाड़ी मुख्य द्वार से बाहर निकल गई। पीछे कुछ सूखे पत्ते उड़ते नजर आये, जो एक-एक कर धरती पर कुछ देर तक गिरते रहें।
‘डैड! गिफ्ट लेने चलो न। कब चलोगे, शोपिंग काम्प्लेक्स।’ – बालक सुंदर अपने पिता को द्वार पर देख कर मचलते हुए पुनः आग्रह किया।
‘अरे बेटे! मैंने कहा न, शाम को तुम्हारे साथ चलकर तुम्हारे लिए गिफ्ट खरीद देंगे। तुम्हें गिफ्ट की पड़ी है, और तुम्हारे दादा जी जीवन और मौत के बीच पड़े हुए हैं। लगता है कि उनकी ख़राब तवियत के कारण हमलोग इस बार दिवाली नहीं मना पायेंगे। तुम्हें यदि दिवाली के गिफ्ट चाहिए, तो भगवान् से प्रार्थना करो कि तुम्हारे दादा जी ठीक हो जाए।
तब तुम्हें ढेर सारे गिफ्ट लाकर मैं दूँगा और दिवाली में कोई नई जगह तुम्हें घुमाने भी ले जाऊँगा।’ – सुंदर से पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से कुछ तेवर बदल कर बोले। अबोध बालक सुंदर विराट हाल के एक किनारे में बने मंदिर की ओर गया और हाथ जोड़े झुक कर बैठ गया। शायद भगवान् से बातें करने लगा हो।
कई बड़े-बड़े चिकित्सक आये। सबने अपने-अपने आधार पर वयोवृद्ध मरीज के इलाज किये। अपनी-अपनी भारी-भरकम फ़ीस वसूलें और चलते बनें। लेकिन श्री रूपलाल शरण वैश्य जी की अवस्था में कोई परिवर्तन न हुआ। वयोवृद्धता रोग की भला क्या दवा हो सकती है? वह अब परम निद्रा के द्वार पर पहुँच गए थे, जहाँ से शायद ही कोई वापस लौटा हो। रात भर सबको जगाये रखने के बाद श्री रूपलाल शरण वैश्य जी स्वयं चिर निद्रा के आगोस में हमेशा के लिए सो गये। इस बार सुंदर सहित ‘मंगल भवन’ की दिवाली भी ‘सूना’ कर गये।
हजारों रूपये खर्च कर ‘राम नाम सत्य है’ की उद्घोषणा के साथ ही भव्य शवयात्रा निकली, जिसमें नगर तथा परिवार के कई धनाढ्य लोग शामिल हुए। कल ही तो दिवाली है। ‘राम नाम सत्य है’ की कर्णप्रिय सम्मिलित ध्वनि को सुन कर राजेन की बाँछे खिल गईं। तुरंत अपनी झोपड़ी से उत्साह से निकल पड़ा। शवयात्रा के साज सजावट और मौन-मूक श्वेतधारी शवयात्रियों को देख उसकी प्रसन्नता दुगनी हो गई। माँ काली मंदिर के पास खेलते अपने ‘जीवन’ को ऊँची आवाज देकर पुकारा। जीवन भी अपने प्रसन्नचित बापू के पास दौड़ा आया।
‘अरे जीवन! लगता है माँ काली ने तुम्हारी प्रार्थना सुन लीं। देख कोई मालदार शवयात्रा आ रही है। इनसे ढेर सारे पैसे मिलेंगे। जिससे कल की दिवाली के लिए तुम्हारे लिए कई नए-नए कपड़ें, खिलौनें और मिठाइयाँ भी खरीद दूँगा।’ – अपनी प्रसन्नता को बिना रोके राजेन जीवन के स्वप्नों को कल्पनातित आशाओं के जल से सींच दिया। बालक मन भी नये कपड़ों, नये खिलौनों और मिठाइयों की प्राप्ति की बात सुनकर खुश हो गया। ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज अत्यंत पास आ गई। और राजेन भी अपनी प्रसन्नता को मन में दबाये शव के साथ हो लिया।
‘आप लोग वहाँ उस चबूतरे पर बैठिये, मैं सब ठीक किये देता हूँ।’ – और फिर राजेन एक कोने में रखी हुई मोटी-मोटी लकड़ी के टुकड़ों को स्वयं एक-एक कर ला-ला कर चिता सजाने लगा।
‘अरे चंडाल! चिता पर एक तह चन्दन की लकड़ियों को भी सजाना है। चन्दन की लकडियाँ वहाँ पड़ी हैं। उसे भी ले आओ।’ – किसी ने कहा। राजेन सम्भ्रांत श्वेतधारियों को नाराज नहीं करना चाहता था। थोड़ी-सी भी नाराजगी उसके और बेटे जीवन के अरमानों को धूल में मिला सकती हैं। अतः उनकी इच्छानुकूल उसने चन्दन की सारी लकड़ियाँ ले आया और उसे चिता पर सजा दिया। चिता सज कर शव का इंतजार करने लगी।
उधर महापंडित की क्रियाविधि पूर्ण होते ही शव को बड़ी सावधानी और यत्नपूर्वक चिता पर चढ़ाया गया। श्वेत वस्त्रधारी बलदेव अपने पिता की मुखाग्नि देने हेतु तैयार। इस समय की भावुकता रोके नहीं रूकती है। हो भी क्यों न, जिन्हें हल्की-सी गर्मी से भी दूर रखा, उसे ही अब अग्नि के हवाले करने की बारी है।
‘मालिक! आग देने के लिए कुछ चाहिए।’ – राजेन ने बड़ी नम्रता पूर्वक कहा। इन चिताओं के लौ से ही तो उसके चूल्हे जलते हैं। परिजन को भोजन मिलते हैं।
‘तुम काम में बाधा न डालो, तुम्हारा जो पावना है, वह मिल जायेगा।’ – भीड़ में से किसी ने कहा। राजेन को भी विश्वास हो चला था कि आज कुछ अच्छी रकम की प्राप्ति होगी। अतः जलती आग के लट्ठे को बलदेव के हाथों में पकड़ा दिया। राजेन ने ऐसी चिता सजाई थी कि आग के स्पर्शमात्र से चिता धू-धू कर जलने लगी।
पास में खड़े लोग दूर चले गए। पर राजेन जरा-सा भी न सरका। प्राप्ति की आशा में ही कार्य की प्रेरणा निहित रहती है। जीवन भी खेल छोड़ कर अपने पिता राजेन के पास आ पहुँचा।
‘बापू! कब चलोगे कपड़े और खिलौने लेने?’ – जीवन को अपने बाप पर पूर्ण भरोसा था। बाप द्वारा दिखलाये गए सुखद सपनें बालक मन में चिता की लपटों की भांति तीव्र ही तीव्र होने लगी थीं।
‘बस बेटा! चिता बुझते ही ढेर सारे पैसे मिलेंगे और तब हमलोग बाजार चल चलेंगे। जाओ, तुम यहाँ से दूर जाओ। आग से झुलस जाओगे।’ – बड़े प्यार से समझाते हुए राजेन ने कहा। पर बालक जीवन सुखद स्वप्न के हर दृश्य को ही आत्मसात कर लेने के लिए उद्धत था। बाप ने किसी तरह से समझाकर उसे दूर भेजा।
वृद्ध के सूखे शरीर में मांस तो थे नहीं, केवल हड्डियाँ ही थी, जो चिता की प्रचंडता में तुरंत जल कर झुरी हो गईं। अस्थि-प्रवाह हेतु छाती के अंश को राजेन निकाल कर एक मिट्टी के वर्तन में रख दिया था, जिसे भारी मन से बलदेव पास की जलधारा में प्रवाहित कर आये थे। राजेन भी चिता को लगभग बुझा ही चूका था।
सभी शवयात्री वापस लौटने की तैयारी में थे। राजेन अपने पुत्र जीवन के साथ श्मशान घाट के निकासी पर धुँए और कोयले से काले हुए अपने गमछे को बिछाए बैठा था। यही तो समय है, जब वह अपनी मेहनताना को प्राप्त करता है। आज तो कुछ और ही बात है। मन ही मन बहुत प्रसन्न था। आज तो अपने बेटे जीवन की सारी इच्छाओं को वह अवश्य पूर्ण कर देगा।
उसके गमछे पर लोगों के कुछ पैसे गिरें। पर उनमें से अधिकांश लोग तो मुँह बिचका कर ही आगे बढ़ गए। आखिर में अग्निदेउवा बलदेव कुछ विशेष लोगों के साथ आये। राजेन के गमछे में सौ रूपये का एक नोट डाल कर आगे बढ़ने लगे। गमछे पर सौ रूपये का मात्र एक नोट ने राजेन सहित उसके बेटे जीवन के सारे स्वप्नों को अपने भीषण प्रहार से पल भर में ही चकनाचूर कर दिया। गरीब की आत्मा तड़प उठी। सब्र की बाँध टूट गई। राजेन बलदेव के सम्मुख जा खड़ा हुआ।
‘सरकार! यह क्या गजब कर रहे हैं। मालिक! आप जैसे सेठ से ऐसी उम्मीद न थी। गरीब दुखियों से भी घाट छोड़ाई के सौ-डेढ़ सौ और आग देने के दो-ढाई सौ रूपये आसानी से मिल जाते हैं। आपने देखा नहीं, कैसे आग में झुलस कर, मैंने सब काम पूरा किया। कुछ तो सोचिये।
‘बलदेव बाबू! आगे बढ़िए। ऐसे ही लुटाते रहें, तो एक दिन इसी की तरह कंगाल बन जायेंगे। इनका तो काम ही है, माँगना। चाहे जितना भी दे दो, इनका पेट थोड़े ही भरता है। ले यह भी रख।’ – उन्हीं विशेष लोगों में से एक ने पचास का एक नोट उसके गमछे पर फेंकते हुए कहा और बलदेव के हाथ को पकड़े जबरन ही आगे बढ़ गया।
‘सरकार! माई-बाप! गरीब के पेट पर लात न मारिये। कम से कम पाँच सौ रूपये तो दीजिये।’ – कहते हुए राजेन उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। पर उसे क्या पता कि पत्थर के आलिशान महलों में रहने वालों का हृदय भी पत्थर-सा ही शुष्क ही होता है। श्वेत वस्त्रधारी लोग गरीबों के गमछों से अपने जूते के नीचे की गंदगी को ही साफ़ करेंगे, चेहरे को कदापि नहीं। उम्मीद में उनके पीछे-पीछे वह कुछ दूर तक भागता गया। शायद कुछ दया भाव उत्पन्न हो जाए। पर संभव न हो सका।
निराश व दुखी मन से लौट आया। गमछे में पड़े पैसों की गनती की, तो कुल मिलकर तीन सौ सतासी रूपये ही थे। ‘राम नाम सत्य है।’
‘बापू! अब नए-नए कपड़े, खिलौने और मिठाई लेने चले बाज़ार?’ – पिता के हृदय में सभ्य समाज के प्रति उठ रहे घृणा युक्त विचारों से अपरिचित अबोध बालक जीवन ने कहा।
‘पर इतने पैसों में भला क्या होगा? सोचा था कि भरपूर पैसे मिलेंगे। फिर तुम्हारे लिए एक-दो नए कपड़े खरीद दूँगा। कुछ खिलौनें खरीद दूँगा और कुछ मिठाइयाँ भी खरीदूँगा। पर सब सपना ही रह गया।’ – बड़े ही निराश और दुःख के स्वर में राजेन ने अपने उद्वेग को व्यक्त किया।
‘बापू! माँ काली से फिर से प्रार्थना करने जाऊँ, किसी और के मरने की।’ – बालक अपने भोलेपन और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति की लालसा में कहा।
‘न बेटा, न। माँ काली भी तो अमीरों के पास ही जा बसी है। बेटा जीवन! अबकी दिवाली पर सारा शहर दीपों से जगमगा उठेगा। आतिशबाजियों से यह अंधियारा आसमान रंगीन हो उठेगा। फटाकों की भीषण आवाज से पूरा आसमान ही गूँज उठेगा। पर, हमलोग के भाग्य और घर में अँधेरा ही कायम रहेगा। अब चल घर। राम नाम ……….।’