कुरूक्षेत्र मेरी नजर सेः चतुर्थ भाग
था पांचजंय बज उठा,
और रण का घोष हो चुका,
थी रण की भेरी बज उठी,
दिवा नवीन हो चुकी।
थे अश्व चढ के नाचते,
गजराज भी चिंघाडते,
फडक रही थी बाहुएँ,
चपल से नेत्र देखते,
थे रुद्ध श्वास सोचते।
ये कौन सामने खडा,
ये आस-पास कौन है,
लडूँगा किससे आज मैं,
पीऊँगा किसके रूधिर मैं,
मैं किसके सर को काटूँगा,
विचारता है पार्थ भी,
क्या इसमे उसका स्वार्थ भी?
है भाई और सखा भी है,
पितामह संग गुरू भी हैं,
सभी खडे विपक्ष मे,
लिए तूणीर हाथ मे।
ये हाय! कैसा युद्ध है,
प्रकृति क्यूँ विरुद्ध है?
इन्हीं को हत के जीतना,
फिर अपनी छाती पीटना,
क्या ऐसा सुख ही चाहिए?
साम्राज्य ऐसा चाहिए?
नहीं,त्रिलोकी नाथ,हमको,
ऐसा सुख न चाहिए,
जो करके हत इन्हें मिले,
त्रैलोक्य भी न चाहिए।
मन बडा विचल सा है,
ये कैसा अन्तर्द्वन्द है ?
है पार्थ सोच मे पडे,
हैं सारथी रुके हुए।
गाँडीव को रथ पे छोडते,
अचल नयन से देखते,
हे ! नाथ मुझसे होगा ना,
साम्राज्य को ही बख्शिये।
दुर्योधन ले मगन रहे,
और रक्त पात ना मचे,
मैं खुश रहूँ निर्वसन मे,
साम्राज्य उसको दीजीए।
क्रीडा किया जिस बंधु संग,
जिन हाथों ने दुलारा है,
पकड के मेरे हाथ को,
जिन हाथों ने चलाया है,
जिन हाथों ने सीखाया है ,
है कैसे लक्ष्य भेदना,
उसे ही लक्ष्य मानना!
उसीका शीश काटना!
हे नाथ पथ न सूझता,
विकल जहाँ है पूछता,
क्या रण यहाँ निदान है?
बचा न सामाधान है।
माता जो पूछे शाम को,
दुःशासन कैसे हत हुआ?
विलग हुई भुजाओं की,
अलग हुए हर शीश के,
क्या गल्प मैं सुनाऊँगा?
क्या कहके उसके आँसूओं को नाथ फिर मैं थामूँगा ?
प्रारब्ध हो भले यही,
विधान हो भले यही,
पर अरि नहीं,ये भाई हैं,
इन्हें न मार पाऊँगा,
मैं अस्त्र ना उठाऊँगा।
हे नाथ,जो है दिख रहा,वे दृश्य,अल्प हैं अभी,
जो सिसकियाँ सुनाई दें,क्या वे भी गल्प हैं सभी,
विदीर्ण हो रहा हृदय,मैं सह इसे न पाऊँगा,
वासुदेव,कुरुक्षेत्र मे,मैं शर न साध पाऊँगा।
निष्काम सुन रहा यहाँ,
सकाम की व्यथा यहाँ,
जो पार्थ आज बोलते,
वैराग्य भरी बातों से,
अखिलेश को ही तोलते।
भुवनपति थे हँस पडे,
यूँ मायाजाल मे पडे,
विरत हुए हैं कर्म से,
अलग हुए हैं धर्म से।
हे ! पार्थ जिनके वास्ते,
तुम विकल यहाँ पे कलपते,
वह मात्र तेरी भ्रम जनित,
कपोल कल्पना ही है।
अर्जुन ये युद्ध भूमि है,
यहाँ पे शर है बोलते,
यहाँ पे गदा डोलते,
न मुँह से कोई बात हो,
यहाँ न काव्य पाठ हो।
जो तुम सरीखा महारथी,
हो कृष्ण जिसका सारथी,
वो देखके दुष्कर्म भी,
जो त्यागे अस्त्र मोह मे,
न वो रथी,
न क्षात्र है,
न्यायार्थ,धरे ना अस्त्र जो।
है व्यर्थ शास्त्र जानना,
है व्यर्थ शस्त्र धारना,
वो मनुज है न काम का,
जो जाति का पतन करे।
यों युद्ध विमुख हो गये,
गांडीव को अपने तज दिये,
तो जानलो हे पार्थ तुमने पाप को वरण किया,
इस पुण्य पथ पे मान ना गुरु द्रोण को भी दिया।
करते पलायन रण से हो,
भीरू सी करते बात हो,
पर ओट लेते बंधु का,
जो रण मे सम्मुख है खडा।
ये बात अर्जुन जान लो,
ये रण नहीं सगे का है,
ये रण न कौरव पांडु का,
ये रण है पाप-पुण्य का,
ये रण अनीति नीति का,
ये रण है दंभ नाश का,
ये अबला के सत्कार का।
अर्जुन ये अस्त्र व्यर्थ है,
अमोघ वाण व्यर्थ है,
यों बुत यदि बने रहे,
अन्याय को सहते रहे,
हित साधते अधर्म का,
फिर काम क्या है युद्ध का,
वृहन्नला बने रहो,
यूँ द्यूत तुम करते रहो।
हे कुंती पुत्र क्षात्र हो!
ललकार सुनके नत हुए?
प्रारंभ मे ही युद्ध के,
वरण किया है अंत को,
विकल से रण से भागते,
हो मान को ही त्यागते।
हैं भीष्म योद्धा मान लो,
वे गंगा पुत्र जान लो,
तुम उनको हत न पाओगे,
प्रारब्ध उनका जो लिखा न उसको टाल पाओगे,
वो खुद ही मौत मोलते,
वो खुद ही मुक्ति चाहते,
क्यों इस पुरुष की ओट में,
छुपाते अपनी भीरुता।
हैं भीष्म एक महारथी,
न उनसे बढ के योद्धा एक,
वे तुमको करते स्नेह हैं,
पर गाँठ ये भी बाँध लो,
जो युद्धच्युत तुम हुए,
न होगी ग्राह्य भीष्म को,
तुम्हारी ऐसी भीरूता ।
हे प्रिय अर्जुन ये कहो,
क्या द्रौपदी के केश अब,
अनंत तक लहरायेंगे,
या रक्त से धुल,कौरवों के,
कलंक को मिटायेंगे।
दुर्योधन को ब्रह्मांड दो,
मैं रोकता नहीं तुम्हें,
और नरकवाश जो करो,
मैं टोकता नहीं तुम्हें
करो ये रण को जीत कर।
पर हो तिरस्कृत तुम यहाँ,
हो मान मर्दित इस जगहा
जो छोडते यूँ रण को हो,
पुकारेगी फिर पीढियाँ,
इस मेदिनी की चीखकर,
कदर्य पांडुपुत्र है।
सम्मान करते ठीक है,
जो स्नेह रखते ठीक है,
पर सत्य ये न भूलना,
धिक्कारता सकल जहाँ,
उसको अनन्त काल तक,
अधिकार को खोकर जो जीवित रहता भले चिर काल तक।
जो द्रौपदी के मान का होता तनिक भी भान तो,
रण मध्य बैठे,तुम न करते,
वंश की ये बात यूँ
न्यायार्थ ना जो कर सके,प्रतिवाद फिर ये जान लो,
दुर्योधन से है बडा अन्यायी तुम यह मान लो।
है युद्धभूमि,मुँह न बोले,
शर यहाँ बाते करें,
पर बात सुनकर पार्थ तेरी,
आज हमको यह लगे,
है व्यर्थ तेरे द्रोण का भी,
ज्ञान तुझको बाँटना,
और स्नेह मे तुझी को उनका सव्यसाची मानना।
विलाप तेरा व्यर्थ है,
ये लग रहा प्रलाप है,
विलाप ये,
फिकर तेरी,
जायज थी तब तलक यहाँ,
जो मान तेरे दर्द का,
दुर्योधन भी जानता।
यूँ छोडकर ये रण,
तू,
बस,
भीरूता ही पालता,
मरण का डर जो तेरे हृदय,
वो वीर की विडंवना।
तू भ्रम मे कैसे जी रहा,
की हत करेगा तू यहाँ,
ये देख मेरे मुख को तू,
तू सबका हश्र जानेगा।
परम पराक्रमी भीष्म हों,
की द्रोण,कृपाचार्य हों,
कर्ण हो अभिमन्यु हों
की अन्य वीर योद्धा हों,
सभी का हश्र देखले,
तू देखले की पूर्व मे ही,
ये सभी हैं हत हुए।
तू कौन जो मारे इन्हें,
तू कौन जो छोडे इन्हें,
सभी को मैं हूँ मारता,
सभी को मैं हूँ तारता,
सभी को जन्म देता हूँ,
सभी का पालनहार मैं,
तू व्यर्थ राग छेडता,
जो शर तेरे तूणीर मे,
न छोडता है तू उसे,
किस शर पे किसकी जान है,
ये पहले से मैं तय करूँ।
हे पार्थ आज देख ले,
कहाँ हैं भीष्म,कर्ण भी
कहाँ है अभिमन्यु भी,
तू राज आज जान ले,
तू मन का भ्रम मिटा भी ले,
जो युद्ध मे न आयेगा,
परिणाम अलग न पायेगा,
ये विश्व रुप देख ले,
इसीमे है ब्रह्मांड भी,
नक्षत्र तारे हैं यहाँ,
यहीं पे वायु,अनल है,
यहीं पे धरती आसमा,
सभी मे समाया हूँ,
समाये हैं हमी मे सब,
तू देख ले जो हैं खडे,
पहले से हैं हत हुए,
तू मात्र अवलंब है।
जो चाहूँ ना की रात्रि हो,
जो चाहूँ ना की दिवस हो,
जो मोह मे तू है पडा,
वो किसका माया जाल है।
जो सोचता है तू यहाँ प्रत्यंचा तू चढायेगा,
तो भूल जा,
ये भ्रांति भी दिमाग से निकाल दे,
तुझे रचा है,
युद्ध निमित्त,
तू युद्ध कर तू युद्ध कर,
परिणाम मेरे हाथ मे,
तू कर्म भर करो यहाँ,
न आज का न कल का,
विचार कर तू यहाँ।
विशाल रुप हरि धरे,
बताते बातें नीति की,
दिखाते आज पार्थ को,
जो सत्य है,अनंत है।
था मोह भंग हो चुका,
न छोह कोई रह गया,
विधान हरि ने है रचा,
उसी को तो है मानना,
जो युद्ध ही उपाय है,
जो हरि भी निरुपाय हैं,
तो तरकशों का शर यहाँ,
चलेगा हर तरफ यहाँ,
जो देवव्रत भीष्म हों,
या सामने गुरु द्रोण हों।