“खुद की जिंदगी”
सबकी परवाह करते करते,
खुद की जिंदगी बेपरवाह हो गई है।
सबकी की सेवा करते करते,
खुद से लापरवाह हो गई है।।
जब कभी सोचता हूँ,
क्या यही जिंदगी है?
ईंट के पक्के मकानों में ,
यह खर-पतवार हो गई है।।
रोज सोचता हूँ कि अब ,
अपने लिए जीऊंगा।
पर अब अपनी जिंदगी तो,
पुरानी अखबार हो गई है।।
भ्रम यही है कि मैं भी पढ़ा जाउंगा ,
पर अफसोस मेरी जगह अब ,
रद्दी का बाजार हो गई है।।
अजय तिवारी “शिवदान”