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।।गर्भपात।।
कुंठा शापित गर्भपात
समदर्शिता का दर्शन होता..
जगत, बस इसी सूत्र में गुँथा होता।
यदि समस्त संतति उपहार..
अनुरूप होते..
अपनी माता की आशाओं के।
किसी भी माता के गर्भ में,
अंकूर झिलमिलाते होते हैं…
सहयोग, सम्भावना व सामंजस्य के।
पलती रहती है तुम्हारी कोख में-
एक फल सम्पन्न वृक्ष की प्रतीक्षा।
परंतु इक मुहूर्त संत्रास का-
ऐसा आता है,
कि, लग जाता है,
अमर्त्य सूर्य को भी ग्रहण!
कदाचित् फूट पड़ती है,
विप्लव की ज्वालामुखी।
और उसके धुँआधार बयार में,
गर्भ खो देती हो तुम!
लुट जाती है अस्मत उस मातृकोश का।
छिटक कर जा गिरती है वह।
ह्रदयहीन प्रस्तर भूमि पर!
या किसी बंध्या रेगिस्तान में।
और अब! मैं देख रहा हूँ…
कि तुम हो! और तुम्हारे गर्भ की लाश!
दफन कर रही हो अपना गर्भाशय-
उसी बंजर रेत में…
वहीं कहीं।
ताकि कतई न करो फिर गर्भधारण..।
(आयाम—जीवन-दर्शन)
रचनाकार—श्री गोपाल मिश्र
(Copyright reserved)
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