विनय सिंह बैस, रायबरेली। अब स्मृति शेष हो चुके पापा और अम्मा की इस छवि को निहारता हूँ तो पाता हूँ कि इस अलौकिक जोड़ी का लौकिक अर्थों में कोई ‘जोड़’ ही नहीं था। पापा सामान्य कद के, भरे पूरे शरीर वाले, लालिमा लिए गौर वर्ण के अति आकर्षक पुरूष थे। अम्मा छोटे कद की, दुबली-पतली, सांवले रंग की साधारण महिला थी। पापा उच्च शिक्षित थे। वह परास्नातक थे, इंटर कॉलेज, विष्णुखेड़ा में शिक्षक थे। अम्मा छठवीं कक्षा तक पढ़ी थी और पापा उन्हें चिढ़ाया करते थे कि – “यह छह कक्षाएं भी इन्होंने छह अलग-अलग विद्यालयों में पढ़ी हैं। क्योंकि जैसे ही कोई शिक्षक इनको पढ़ने के लिए डांटता, इनके नाना लाठी लेकर पहुंच जाते और फिर उस विद्यालय से नाम कटाकर दूसरे विद्यालय में लिखा देते। कहते कि मेरी नातिन पढ़ने आई है, डांट-मार खाने नहीं।”
पापा पूरे जीवन हमारे बहुत बड़े संयुक्त परिवार का बोझ अपने कंधों पर ढोते रहे। परिवार में प्रति वर्ष मूँड़न-छेदन, शादी-ब्याह होता। साथ ही कई बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा था, हारी-बीमारी अलग थी। कहने को तो तीन पीढ़ी पहले तक हमारे पूर्वजों की बरवलिया गांव में जमींदारी थी, लेकिन जमींदारी उन्मूलन कानून में उनकी ज्यादातर जमीन जाती रही। जो जमींदार होशियार थे, उन्होंने कानून लागू होने से पूर्व सारी जमीन जोतदारों से वापस ले ली। जो समय का लेखा नहीं पढ़ पाए, उनकी जमीन जोतदारों की हो गई। फिलहाल, पापा के समय परिवार के पास खेत कम थे और खाने वाले ज्यादा। इन कारणों से पापा ताउम्र कर्ज में ही रहे।
तुलनात्मक रूप से अम्मा संपन्न परिवार की थी। उनके बाबू (हमारे नाना) की आज से पचास वर्ष पूर्व मुंबई के दादर जैसे पॉश एरिया में कपड़े की दुकान थी। वह कुर्ते-पैजामे के लिए थोक में कपड़े खरीदकर उन्हें सिलकर बेचते थे। अच्छी-खासी कमाई थी। अम्मा ज्यादातर समय सुल्तानपुर के धनेछे नामक गांव में नाना के घर रही, वह भी काफी सम्पन्न थे। अम्मा गर्व से बताती थी कि सत्तर के शुरुआती दशक में उन्हें 1600/- रुपये दहेज मिला था।
पापा बहुत शांत, संयत स्वभाव के थे। बड़ों की तो इज्जत करते ही, कई बार छोटों की ‘गलत’ बात सुनकर भी जवाब नहीं देते, अनसुना कर देते। अपने पूरे जीवन में कुल मिलाकर शायद दो-तीन बार ही मैंने उन्हें गुस्से में देखा होगा। मार तो मैंने कभी खाई ही नहीं। मैंने क्या अशोक भैया (छोटे बाबा के सबसे बड़े लड़के) को छोड़कर शायद ही उन्होंने परिवार के किसी सदस्य पर हाथ उठाया हो। अशोक भैया (चाचा) भी इसलिए पिट गए क्योंकि उन्होंने अपने प्रिंसिपल से बदतमीजी कर दी थी। फेल होने, आर्थिक नुकसान करने और शरारत करने पर पापा का तकिया कलाम ‘अजीब आदमी हो’ कहना ही थप्पड़ मारने से अधिक प्रभावी होता था लेकिन जब बात इज्जत पर आ गई तो उनके सब्र का बांध टूट गया था।
अम्मा इसके ठीक विपरीत थी। हम सभी भाई-बहनों की रियल ‘एडमिन’ वही थी। दुलार इतना कि 12वीं तक मुझे अपने अंडरवियर तक धोने न दिये लेकिन गुस्सैल इतनी कि पीटना शुरू करती तो हाथ, लात, चप्पल, डंडे में भेद न करती। खुश रहती तो किसी का हगा भी हंसकर साफ कर देती, क्रोधित हो जाती तो कहती “मैं दऊ (भगवान) से भी नहीं डरती, तुम किस खेत की मूली हो।”
पापा परिवार के सबसे बड़े लड़के थे। उनका समाज, गांव, परिवार में मान बहुत ज्यादा था, कद उससे भी बड़ा। मेरे बाबा सहित किसी भी बुजुर्ग व्यक्ति को मैंने उनसे कभी भी ऊंची आवाज में बात करते नहीं सुना। डांटने की तो कोई सोच भी नहीं सकता था। बाहर की सारी व्यवस्था पापा की रहती, घर का जिम्मा चारो बाबा और पापा के छोटे भाइयों पर था। गांव में मैंने कभी पापा को चारा-पानी करते, गोबर उठाते नहीं देखा। कोन-मेड़ करने, खेत जोतने- बोने- काटने तो वह कभी गए ही नहीं। वह पूरे परिवार के दुलारे थे और पूरा परिवार उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय था।
पापा व्हाइट कॉलर जॉब के हेड थे तो अम्मा ब्लू कॉलर जॉब की मुखिया थी। वह सबसे पहले तड़के उठ जाती थी। हम लोगों की अलार्म घड़ी वही थी। सुबह से लेकर शाम तक झाड़ू, पोछा, बरतन, तीन वक्त के भोजन में खटती रहती। पापा और हम चार भाई बहनों के अलावा मामा का लड़का, मौसी का लड़का भी हमारे घर में रहकर पढ़े। कुछ समय के लिए पापा के दो मित्रों के बच्चे भी हमारे मेहमान रहे।
उस जमाने में शाम होने पर गांव की कोई बिटिया- बहन आती तो सुबह ही गांव जाती। रिश्तेदारों, नातेदारों का आना-जाना भी लगा ही रहता। कुल दो कमरों के घर का ड्रॉइंग रूम पापा संभालते और डाइनिंग रूम अम्मा। गैस सिलिंडर और स्टोव उस समय लक्जरी हुआ करते थे, अतः हमारे घर के चूल्हे की आग जलती ही रहती थी। पापा ने सामाजिक व्यक्ति के रूप में सम्मान का जो शिखर छुआ, उसकी नींव वास्तव में अम्मा ही थी।
अम्मा के एक पैर में फाइलेरिया था। तमाम पद्धतियों से इलाज के बावजूद उनका पैर ठीक न हो सका। इसलिए देर शाम तक उनका पैर जवाब दे जाता और वह बिस्तर पकड़ लेती। लेकिन कुछ देर आराम करने के बाद वह फिर उठ खड़ी होती और सुबह की सारी तैयारी कर के ही सोती।
अम्मा को संयुक्त परिवार से भी पूरा मतलब था पर अपने बच्चे उनकी पहली प्राथमिकता थे। उनकी जिद के कारण ही हम लोग गांव से लालगंज आ पाए। उनके लगातार दबाव के कारण ही कानपुर रोड पर दो कमरों का ही सही, हमारा अपना घर बन सका। अगर उस समय अम्मा इतनी दूरदर्शिता नहीं दिखाती तो हम सभी भाई-बहन गांव में ही रह रहे होते। फिर शायद हमारा भविष्य भी कुछ और ही होता।
पापा समाज, परिवार सबके प्रति उदार रहे; सबका निरपेक्ष भाव से सम्मान किया। अम्मा ने उसी का सम्मान किया जो उसके लायक था; जो नजरों से उतर गया, उसकी इज्जत उतारने में कोई संकोच नहीं किया। पापा निःस्वार्थ भाव से दोनों हाथ से लुटाते रहे, सबका सहयोग करते रहे। अम्मा आवश्यकता होने पर सहयोग करने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाती थी। परिवार के एक सदस्य की जरूरत के लिए उन्होंने अपने गहने गिरवी रख दिए (जो कभी छुड़ाए न जा सके)। संयुक्त परिवार की बिटिया, बहनों की शादी में तन-मन-धन से सहयोग किया लेकिन गुस्सा हुई तो खरी खोटी सुनाने से भी नहीं हिचकी। जो उनके मन में रहता, वही उनकी जुबान कहती।
पूज्यनीय पापा के कारण आज भी समाज में हमारा मान है, हमारी पहचान है। अम्मा के अथक परिश्रम के कारण ही हम ठीक से पढ़ पाए, कुछ बन पाए। पापा को जब भी समय मिला हमें पढ़ाया, हमारा मार्गदर्शन किया, हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाया। अम्मा ने हमें पढ़ने के अतिरिक्त अन्य घरेलू कार्यों से यथासंभव मुक्त रखा, हमारी हर जरूरत को कैसे भी पूरा करती रही। पापा जीवन भर पूरे परिवार के लिए समर्पित रहे और अम्मा अपने बच्चों के प्रति।
पापा आदर्श के देवता थे। उन्होंने हमें निष्काम भाव से सबका सम्मान करना सिखाया। अम्मा व्यवहारिकता की देवी थी। उन्होंने कभी किसी का गलत बर्दाश्त नहीं किया, चाहे वह अपना हो या पराया। पापा ने अपना सर्वस्व देकर, दोनों हाथों से मदद करना सिखाया और अम्मा हमेशा कहती रही कि अपने हाथ काटकर किसी की कदापि मदद नहीं करना।
ईश्वर ने दोनों को अपने पास बुलाने का समय भी उनके स्वभाव के अनुसार ही चुना। बर्फ से भी शांत स्वभाव वाले नरम दल के सदस्य पापा का देहावसान दिसंबर महीने में हुआ। जबकि गरम दल की सदस्य अम्मा का भगवान के घर से बुलावा जून के तपते महीने में आया। शांत, सौम्य, शालीन पापा अपने स्वभाव के अनुरूप यमराज के बुलावे पर बिना कुछ कहे तुरत ही उनके साथ चल दिये परंतु जुझारू अम्मा सच में ‘दउ’ से भी नहीं डरी। पूरे डेढ़ वर्ष तक यमराज से जूझती रही, लड़ती रही, उन्हें छकाती रही। 05 दिसंबर 2009 को मैंने पिता का प्यार और 06 जून 2024 को मां की ममता खोई है।
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