विनय सिंह बैस की कलम से…

विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। हमारे देश की विविधता के बारे में प्रचलित है – “कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी।” लेकिन हर चार कोस में वाणी-भाषा बदलने की इस अनोखी, अद्भुत विशेषता के कारण कई बार एक ही शब्द का किसी क्षेत्र में एक अर्थ और दूसरे क्षेत्र में कोई और अर्थ होने से बड़ी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी ही एक रोचक घटना के बारे में बताता हूँ।

हम बैसों की शादियां ज्यादातर प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर के सोमवंशी, कनपुरिया, बझगोती, बझलगोती, भाले सुल्तान आदि राजपूत गोत्रों (उपजातियों) में होती है। चूंकि इन जिलों से हमारा रोटी-बेटी का रिश्ता पीढ़ियों पुराना है, अतः हम लोग एक दूसरे के रीति रिवाजों, बोली- भाषा को काफी हद तक समझते हैं। लेकिन फिर भी कभी- कभी किसी शब्द के स्थानीय अर्थ को लेकर गड़बड़ हो ही जाती है। जैसे- बैसवारी में ‘उलरना’ शब्द का अर्थ है – कूदना, उछलना जबकि प्रतापगढ़, सुल्तानपुर के लोग लेटने, सोने को ‘ओलरना’ कहते हैं।

मेरी अम्मा, शादी से पहले ज्यादातर नाना के घर ही रहीं थी। अतः पापा एक बार अम्मा को विदा कराने अम्मा के नाना के घर (गांव- धनेछे, जिला – सुल्तानपुर ) गए हुए थे। यह तो सर्वविदित है कि पूरब के लोग दामाद का कुछ ज्यादा ही आदर करते हैं और पापा तो अम्मा के नाना के ‘दामाद के दामाद’ थे। इसलिए उनकी खूब आवभगत हुई।

चूंकि उस समय पूरब के लोग रात का भोजन जल्दी कर लेते थे, अतः रात के आठ बजे से पहले ही पापा को भोजन परोस दिया गया। उसके बाद एक चारपाई पर नई दरी, चद्दर , तकिया व मच्छरदानी लगाकर पापा के सोने की व्यवस्था कर दी गई। एक छोटा लड़का लोटे में पानी रखकर कटोरी से ढक गया और मामा चारपाई पर एक टॉर्च रख गए तथा लालटेन धीमी कर दी।

पापा को इतनी जल्दी सोने की आदत नहीं थी इसलिए वह अपनी चारपाई पर बैठे हुए यूँ ही कुछ सोच रहे थे। सुल्तानपुर की एक और खास बात है कि महिलाएं भी रात में दरवाजे पर ही सोती है, अतः नानी दरवाजे पर लेटे हुए दूर से पापा को देखे जा रही थी। जब काफी देर तक पापा सोए नहीं, तो नानी से न रहा गया। वह पापा के पास आई और बोली-
“का हो बैस!!! कौनो परेशानी बा का?”
” नहीं ऐसी कोई बात नहीं” पापा बोले
“तो फिर ओलरा”
“क्या???”
“पाहुन !! हम ई कहत हई कि तू दिन भर का थका-मांदा अहा, अब ओलरा।”

पापा बड़े असमंजस की स्थिति में थे। भरपेट भोजन करने के बाद उलरने (उछलने-कूदने) का क्या औचित्य??
फिर सोचा कि शायद इनकी कोई परंपरा होगी। तब उन्होंने हिम्मत करके नानी से पूछा-
“नानी, भरपेट खाना खाने के बाद मुझसे यह तो न होगा। मैं उछल कूद तो बिल्कुल न कर पाऊंगा।”

“अरे बैस!! तोसे उछले-कूदे का के कहत अहै। हम तो ई कहत हई कि अब आराम करा, सोइ जा।”
“लेकिन आप तो ‘ओलरने’ को कह रही थी।”
“हां, तो ओलरे का मतलब बा- आराम करा, सूत जा।”
यह सुनकर पापा मन ही मन मुस्कराए और फिर ‘ओलर’ गए।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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