विनय सिंह बैस की कलम से : ‘बरी’ उर्फ ‘उसरहा’ गांव

रायबरेली। रायबरेली जिले के लालगंज बैसवारा कस्बे से छह किलोमीटर दूर स्थित ‘बरी’ गांव को पुराने जमाने से ‘उसरहा’ गांव कहा जाता रहा है। इस गांव के उत्तर की जमीन तराई है, उसमें बरसात भर और बाद में भी पानी भरा रहता है। पूरब में जमीन है नहीं, दूसरे गांव की आबादी है। पश्चिम और दक्षिण में जरूर जमीन है। लेकिन जमीन से कहीं अधिक ऊसर था। कुछ सफेद मिट्टी वाला सामान्य ऊसर तो कुछ हल्की पीली रंगत लिए रेहू वाला भद्दर ऊसर। रेहू में पैदा तो कुछ नहीं होता है लेकिन गांव के कुछ लोग इस प्राकृतिक डिटर्जेंट से तालाब के पास कपड़े जरूर धोते थे।

इन दिशाओं में गांव की सीमा से सटे खेतों को छोड़ दें तो ज्यादातर खेत उसरहे ही थे। हमारे पुरखों ने कभी ऊसर की रेहू निकालकर, उनमें पैरा (पुआल) सड़ाकर, गोबर, खाद डालकर उन्हें कृषि योग्य बनाया गया होगा। हालांकि उन खेतों में अब गेहूं पैदा होने लगा है, कुछ खेतों में दलहन की भी पैदावार हो जाती है। लेकिन एक फसल जिसकी सभी खेतों में बम्पर पैदावार होती है, वह है धान। धान ही बरी गांव का सदियों से मान, सम्मान, अभिमान था और आज भी है।

कुछ दशक पूर्व तक कई बरदेखा (लड़की वाले) तो इसलिए भी बरी गांव में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं लेकर आते थे कि ‘बरी’ में सब कुछ ‘बरा’ (जला) हुआ है। दूर-दूर तक ऊसर ही ऊसर ; हरियारी, पेड़, पौधा कुछ दिखता ही नहीं है। इस गांव में एक धान की फसल के अलावा होता ही क्या है??

लेकिन जब से शारदा नहर का पानी गांव में आना कम हुआ है और वन विभाग ने ऊसर में सघन वृक्षारोपण अभियान चलाया, तब से बरी गांव की सूरत और सीरत दोनों बदल गई है। अब इस गांव में गेहूं, सरसों, अरहर, मूंग, आलू जैसी लगभग सभी फसले पैदा होने लगी हैं बशर्ते कि आवारा पशुओं, नीलगायों के कहर से और कलमुहों की नजर से फसले बची रहें।

हालांकि इस सब परिवर्तन के बावजूद बरी गांव की पहचान अब भी ‘धान के कटोरे’ के रूप में ही है। इस गांव में धान की हर किस्म सफलता पूर्वक उगाई जाती है क्योंकि उसरही जमीन में पानी देर तक टिकता है और धान की फसल को पानी और खाद समय से मिलती रहे तो फिर बंपर पैदावार होना तय है। गांव में कई समरसेबल लग जाने और अब पर्याप्त समय के लिए बिजली आने से गांव के किसान केवल इंद्र देवता और शारदा नहर के भरोसे नहीं रह गए है।

इस बार भैया ने बेंड़ की रोपाई बिल्कुल समय से करवा दी थी। रोपाई करवाने के एक हफ्ते के अंदर ही डीएपी और यूरिया खाद का उचित मात्रा में छिड़काव भी कर दिया था। इसलिए धान के पौधों ने सही समय पर बियास (फैलना) लेना शुरू कर दिया था। उसके कुछ हफ्तों बाद ही धान ‘गाला’ (तना मोटा होना) में आने लगे थे। फिर धान की पत्तियां और तने जो कुछ दिन पहले तक हल्के हरे रंग के थे गहरे हरे रंग में परिवर्तित हो गए। भैया होशियार और अनुभवी किसान हैं इसलिए तीन महीने की फसल होते ही उन्होंने जिंक का भी छिड़काव कर दिया था इसलिए धान की फसल में कीड़े मकोड़े भी नहीं लगे और तना भी खूब मोटा हो गया था। धान के पौधों का रंग भी कुछ दिनों बाद हल्का करिया (काला) होने लगा था।

जिस हार (क्षेत्र) और खेत मे अगहर धान लग गए थे, उनमें भादों की शुरुआत में महीन हरी बालियां निकलने लगी थी। जैसे-जैसे भादों गहराता (बीतता) गया, इन हरी महीन बालियों में दूध उतरने लगा था। भादों बीतते बीतते कच्चेपन का दूध सूख गया और बालियां मोटी और पुष्ट होने लगी थी।

कुआर (आश्विन) आते-आते बालियों का रंग बदलने लगा था। धान के अंदर छुपा चावल कुछ बड़ा और टट्टस (मजबूत) होने लगा। तब जंगली जानवरों विशेषकर नीलगाय औऱ जंगली सूअरों से खेत औऱ फसल को खतरा बढ़ गया था। यही समय था जब ये जानवर खूब ऊधम मचाते थे। नीलगाय तो ऊपर से ही चरते थे इसलिए कम नुकसान करते लेकिन सुअर धान की जड़ तक खोद देते हैं। सुअरों का आक्रमण मतलब सब कुछ तबाह। इन जानवरों की तरफ से जरा सी लापरवाही महीनों की मेहनत को मिट्टी में मिला सकती थी। इसलिए बारिश, बिच्छू से बचते हुए, मच्छरों, कीट-पतंगों से लड़ते हुए, उमस, गर्मी से जूझते हुए और सांप-कीरा से बचते हुए दिन-रात खेतों कर निगरानी करनी पड़ी।

कुआर बीतते-बीतते इन बालियों का हरा रंग, पीले- सुनहरे रंग में बदलने लगेगा। वही खेत और गांव जो सावन भादो में हरियाली का गलीचा लगता था, कुआर के अंत तक यही हरा गलीचा सुनहरी जाजिम में बदल जाएगा। हल्की पुरवाई में झूमती धान की झुकी बालियां, गांव में ब्याह कर आई छाती तक घूंघट काढ़े नवविवाहिता सी लगने लगेगी। हवा के झोंके से जब धान की बालियां झुके-झुके ही झूमती हैं तो लगता है जैसे गांव की सारी नवविवाहिताएं घूंघट काढ़े गीत गाते हुए टीले के बरम (ब्रह्म) बाबा तक पंचईया (नागपंचमी) पूजने जा रही हों। धान की इन झुकी सुनहरी बालियों से छन छन कर आती हवा भी कानों संगीत सदृश मालूम होती है। इस समय खेतों के पास से गुजरते समय एक विशिष्ट गंध नथुनों में घुसती जाती है।

खेत का यह पीला सोना पूरी तरह पकने पर भैया किसी शुभ दिन भउजी के साथ खेत आएंगे। हां, यही तो अवसर है जब गृहलक्ष्मी घूंघट ओढ़े खेत आएंगी। खेत को फसल को प्रणाम करेंगी फिर मेंड़ के पास की कुछ पुष्ट, मजबूत बालियां अपने कोमल हाथों से तोड़कर एक साफ सुथरी डलिया में रखेंगी। उसे नए कपड़े से ढककर घर ले जाएंगी। भैया उन बालियों को डेहरी (देहरी) के ऊपर या छप्पर में खोंस देंगे। तीन-चार दिन में बालियां सूख जाएगी, तब उनका होरा लगाकर (आग में पकाकर) कुलदेवी पर चढ़ाने जाएंगे। कुलदेवी पर चढ़ाए बिना धान काटना या उसकी बालियों को चखकर देखना पाप माना जाता है।

भैया यह सब सोचते-सोचते किसी और लोक में चले जाते हैं। उन्हें बहुत कुछ याद आने लगता है- वह लट्ठे सिंदूर (पीले सिंदूर) की सोंधी महक…….घूंघट के भीतर से तिरती मुस्कान…..चूड़ियों की खनक…. पायलों की झनक…. भौजी का हौले हौले से बोलना….. एजी सुनते हो कहकर बुलाना….. भैया एकदम से रूमानी हो उठते हैं।

जिस प्राण प्रिया ने उनके लिए अपना घर, परिवार, गोत्र त्याग दिया, अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया, सात जन्मों के लिए उनकी जीवन संगिनी हो गई, क्या उस देवी के प्रति उनका कोई फर्ज नहीं बनता। क्या वह उस अंकशायिनी की एक छोटी सी मांग भी पूरी नहीं कर सकते।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

बहुत हुआ, अब भैया ने पक्का मन बना लिया है कि अम्बे माई सहाय हुई और इस बार खेत का पीला सोना सही सलामत खलिहान पहुंचा और फिर सही भाव में बिक गया तो भौजी की वर्षों पुरानी मांग इसी सीजन में पूरी कर देंगे। भैया ने सोच लिया है कि इस धनतेरस के शुभ मुहूर्त में वह बिना किसी को खबर किये भौजी के लिए सोने की बालियां खरीद ही लेंगे। डिज़ाइन वही वाला लेंगे जिसे दिल्ली वाली दीदी को पहने देख भौजी हुलसकर बोली थी- “केतना सुन्नर झुमकी पहने हैं दीदी। पता नहीं हमारे नसीब में कब होगा ई सब पहिरना। ”

आज ही भैया लालगंज सर्राफा मंडी जाकर उसी डिज़ाइन और दिल्ली वाली दीदी से भी गरू (भारी) बाली का एडवांस सुनार को दे आए हैं। अब धनतेरस के दिन भउजी को चांदी का सिक्का खरीदने की बात बताकर सुनार के पास जाएंगे और बाकी पैसा चुकाकर चुपके से बाली ले आएंगे।

फिर पवित्र धनतेरस की रूमानी रात को वह बउवा के सो जाने के बाद चुपके से भउजी के बिल्कुल पास जाएंगे और वही सोने की बालियां अपने हाथों से भउजी के दोनों कानों में पहनाकर उनके खूबसूरत मुखड़े और सोने की बाली से निखरे कोमल कानों को देर तक निहारते रहेंगे।

आखिरकार सुनहरी ‘बालियां’ चाहे हरेभरे धान के पौधों पर खिलें या गोरी चिट्टी भउजी के कान में सजें, सुंदर और मनमोहक तो लगती ही हैं।

विनय सिंह बैस
बैसवारा के बरी गांव वाले

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