अशोक वर्मा “हमदर्द” की कविता : मैं वही हूँ

।।मैं वही हूँ।।
अशोक वर्मा “हमदर्द”

मैं वही हूँ
जो कभी शोषित
हुआ करता था
अपने ही दरवाजे पर
खाट पर बैठनें से डरता था।
मैं वही हूँ जिसे लोग
चरवाहा बनाकर
हाथ में डंडा लिए
चराया करते थे
जानवरों की तरह और
दे मारते बिना किसी कारण
मेरे पीठ पर।
मैं वही हूँ
कभी कभी तो
सवार हो जाते
मेरे कन्धों पर
बारिस के दिनों में
अपनें चमचमाते हुए
चमरौति वाले जूते को
बचाने के लिए
और हम बेवश लाचार
उन्हें कन्धों पर बैठाकर
पार कराते
कीचड़ भरे गलियारों से।
वही हूँ
मैं वही हूँ जिनके
भगवान भी
अलग होते थे,
पूजने के लिये
वो भी हमें
अलग ही छोड़
देते थे,
इस गन्दे समाज से
जुझने के लिए
जो खुद गंदा था
समाज का गिरा हुआ
बन्दा था
किन्तु उसके सर नेम की
वजह से
चलती थी उसकी
जो गांव के लाचार
पैवंद से ढकी
हमारी बहू बेटियों का
मर्दन करनें के
फिराक में घूमता,
जिसका मैं पुरजोर
विरोध करता।
मैं वही हूँ
यह सब देख
मेरे अंदर भी बोध हुआ
फिर क्या
प्रतिशोध हुआ,
और मैंने अम्बेडकर की
सोच को जिया,
पढ़-लिख कर अपने
समाज के,
पैवंद को सिया।
मैं वही हूँ
बदल गया समय
बदली रीत
हटी झोपड़ी
पक्की हुई भीत।
मैं वही हूँ
जिसे लोग आज हिन्दू भी
कहने लगे है और
मेरे सर से दलित, शोषित, चमार,
शूद्र, क्षुद्र जैसे अलंकृत
शब्दों से
मुक्ति मिली है मुझे।
मैं वही हूँ
अब एक पंक्ति में
हम साथ रह रहे हैं
क्यूंकि अम्बेडकर के साथ-साथ
डॉक्टर हेडगेवार की सोच
को हम बढ़ा रहे है।
जाति की सही व्याख्या
मनु स्मृति का अध्ययन कर
लोगों को बता रहे है
तभी तो समाज को जोड़ता हूँ
भारत को अच्छी दिशा की तरफ
मोड़ता हूँ
और अपने विकास को
मोदी पर छोड़ता हूँ
मैं वही हूँ।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

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