आशा विनय सिंह बैस की कलम से : शिक्षक दिवस

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। मेरी जन्मभूमि बैसवारा सदियों से कलम और तलवार का धनी क्षेत्र रहा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे अनूठे साहित्यकार और राजा राव राम बख्श सिंह तथा राणा बेनी माधव जैसे दुर्जेय योद्धा बैसवारा क्षेत्र की आन-बान-शान रहे हैं। बैसवारे की वीर प्रसूता भूमि और राणा बेनी माधव की वीरता को नमन करने के लिए बहुत पहले किसी अज्ञात कवि ने एक गीत लिखा था। जिसका मुखड़ा है-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, राणा का दुधारा है।।”

यह गीत जब मैंने पहली बार सुना , तब शायद मैं चौथी या पांचवी कक्षा में पढ़ता था। मेरे विद्यालय प्राथमिक पाठशाला बरी के प्रधानाध्यापक श्रध्देय श्री अवधेश बहादुर सिंह (एकौनी निवासी) सौम्य, सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुर्ता- धोती उनका पहनावा था जो उनके गोरे रंग और निकले हुए पेट (तोंद) पर खूब फबती थी। चूंकि मुझे बचपन से ही तुकबंदी करने की आदत थी। अतः मैंने गुरुजी के तोंद पर राणा बेनी माधव पर लिखी उक्त कविता की पैरोडी बना डाली। जिसका मुखड़ा कुछ यूं था-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, अवधेश का तोंदाड़ा है।”

किसी कारण से जब कोई शिक्षक विद्यालय में उपस्थित नहीं होता तब मैं इस दो लाइन की छोटी लेकिन अत्यंत अर्थपूर्ण और प्रभावी कविता का अपने सहपाठियों के बीच सस्वर पाठ किया करता था और सब खूब हँसते थे, मजे लेते, तालिया बजाते।

एक दिन सुबह-सुबह तेज बारिश के कारण गुरुजनों को आने में विलंब हुआ तो विद्यालय पहुंच चुके कुछ छात्रों के मध्य मेरा कविता पाठ शुरू हो गया। ‘वाह, वाह, एक बार और सुनाओ’ का दौर चल ही रहा था कि अचानक गुरुजी श्री अवधेश बहादुर सिंह पीछे से प्रकट हो गए। उत्तर की तरफ वाले मुख्य दरवाजे की तरफ अधिक पानी भर जाने के कारण वह पूरब वाले रास्ते यानि शिवबहादुर बाबा के दरवाजे की तरफ से आ गए थे। इसीलिए मैं और मेरे श्रोतागण उन्हें देख नहीं पाए।

गुरु जी को देखते ही मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। मुझे लगा कि आज मैं रंगे हाथों पकड़ा गया लेकिन सौभाग्य से गुरुजी मेरी कविता सुन नहीं पाए थे। उन्होंने हमारा जोर-जोर से हँसना ही सुना था इसलिए सायकिल से उतरते ही उन्होंने पूछा -“तुम लोग किस बात पर इतना ‘ही ही-हो हो’ कर रहे थे??”

मेरा डर कुछ कम हुआ लेकिन तभी एक दुष्ट सहपाठी ने चुगली कर दी कि गुरुजी ‘मुन्ना’ कविता सुना रहे थे, इसलिए हम लोग हँस रहे थे।
अब चूंकि गुरुजी स्वयं कवि थे। कविता कहना और सुनना उनका प्रिय शौक था। अतः उन्होंने मुझे वही कविता पुनः सुनाने का आदेश दे दिया। अब मैं क्या करूँ?? मुझे काटो तो खून नहीं। मैं बड़ी देर तक यंत्रवत खड़ा रहा।

गुरुजी ने पुनः आदेश दिया- “कविता सुनाओ या दंड भुगतो।”
मैंने रुआँसे होते हुए कहा,”गुरुजी दंड ही दे दो। कविता मुझसे न पढ़ी जाएगी।”

गुरु जी मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। बाबा, पापा सहित पूरे खानदान को भली भांति जानते थे। काज-परोजन में हमारे घर आया करते थे। अतः मुस्कराए और बोले- “पहले कविता सुनाओ, फिर मैं निर्णय लूंगा कि तुम्हें दंड देना है या पुरस्कार।”

खैर देबी-देवता को मनाते हुए मैंने कविता शुरू की-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, राणा का दुधारा है। ”

गुरुजी अनुभवी व्यक्ति थे। तुरंत भांप गए कि मैं सयाना बनने की कोशिश कर रहा हूँ। बोले- “यह वह कविता तो नहीं है, जो तुम सुना रहे थे और अगर यही थी, तो इसमें हंसने की क्या बात थी?? यह तो वीर रस की कविता है, हास्य रस की नहीं। अब बिना कोई होशियारी किये, वह कविता सुनाओ, जो मेरे आने से पहले सुना रहे थे।” गुरुजी ने मुझे लगभग डपटते हुए कहा।

मरता क्या न करता, मैंने डरते-डरते एकदम दबी कुचली आवाज में गाना शुरू किया-
“एक बार नमन करो, वीर बैसवारा है।
एक बार नमन करो, आ-आ–वव–वधे-धेश-शस ककक्का तों–दा–ड़ा है।”

गुरुजी कविता सुनकर थोड़ी देर के लिए मौन हो गए। मैं विचारधीन कैदी की तरह, मुंह लटकाए, हाथ बांधे खड़ा था कि अब फांसी हुई कि तब हुई। गुरुजी का वह क्षण भर का मौन, मेरे लिए सदियों सा गुजरा।
थोड़ी देर बाद, गुरुजी ने पास बुलाया। मुस्कराए और पीठ थपथपाते हुए बोले – “शाबाश बेटा। बहुत खूब। मजेदार पैरोडी है। जाओ मौज करो।
लेकिन भविष्य में प्रयास यह करना कि जो कुछ सुनाओ, लिखो वह तुम्हारा खुद का सृजन हो और उससे किसी का उपहास और अपमान न हो।

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