डॉ. आर.बी. दास, पटना। भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव जन्माष्टमी के रूप में दो दिन मनाया जाता है। प्रथम दिवस गृहस्थ लोग मानते हैं, व्रत उपवास रखते हैं जबकि दूसरे दिन साधु, संत, महात्मा, ऋषि, मुनि व्रत उपवास रखते हैं। इन दो दिनों के व्रत का प्रथमतः तो यही निष्कर्ष निकलता है कि भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को दो मोर्चो पर युद्ध करना था और इन दोनों मोर्चो पर उनके सामने अपने सगे संबंधी ही थे। जन्म लेते श्री कृष्ण अपने मामा कंश के अत्याचार के खिलाफ युद्ध किया। कंश का कारागार आंतरिक जगत का सूचक है। यानी अंतरजगत में कोई बुराई दिखने लगे तो उसे तत्काल वही समाप्त कर देना चाहिए।
भगवान विष्णु के दस अवतारों में अन्य जितने भी अवतार हुए वे सभी बह्म, दैत्यों या अहंकार ग्रस्त राजाओं के खिलाफ युद्धरत रहे। अकेले श्रीकृष्ण ही ऐसे अवतार हैं, जो कंश के छल, प्रपंचों के आघातों को सहते हुए पृथ्वी पर लोक शक्ति के लिए बंशी बजाते हुए और जीवन में माधुर्य का संदेश देते हैं। श्री कृष्ण यही तक नहीं रुकते वह छल प्रपंच के हर चाल पर नजर भी रखते हैं। जहां श्रीकृष्ण के जन्म के समय युद्ध अंतरजगत का युद्ध है तो बड़े होने के बाद मोह और अहंकार से ग्रस्त धृतराष्ट्र और उसके पुत्र के खिलाफ महाभारत के युद्ध का शंखनाद भी करते हैं। यही बाह्य जगत की विकृतियां होती है।
अक्सर लोगों में अपनो के लिए मोह ग्रस्त विधिक नियमों को नकारने की आदत पड़ जाती है। खासकर धन तथा शक्ति से संपन्न लोगों में अहंकार का समावेश हो ही जाता है। अहंकार के लिए शरीर में स्थित पांच ज्ञानेंद्रियां विकारग्रस्त होती है, तब विवेक रूपी श्रीकृष्ण ज्ञान रूपी पांच पांडवों का साथ देकर अहंकारी सेना के खिलाफ युद्ध करते हैं। वह स्वजनों की चिंता न करने की सलाह देते हैं। यही स्वजन मन के भावों में स्थित होते हैं। इस तरह चुकी श्रीकृष्ण दो मोर्चो पर युद्ध करते हैं, इसलिए उनका जन्मोत्सव दो दिन मनाना सार्थक प्रतीक होता है।
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