प्रमोद तिवारी की कविता : “तुमको कहाँ देखा”

“तुमको कहाँ देखा”

कौन कहता है, मैंने ‘तुमको’ देखा है?
मैंने इस जनम तो क्या कई जनमों से ‘तुम्हें’ नहीं देखा।
शायद ‘तुम’ भ्रम मे हो,
अच्छा उसदिन,
जिसदिन उस अठारह की लडकी का अपहरण हुआ था,
नहीं-नहीं ‘तुम’ और वहाँ?
क्या कहते हो?
मैं झूठा हूँ।
नहीं..नहीं ऐसा भी नहीं,
करते हो जिद तो बताना तो पडेगा,
उस दिन मैंने देखा कुछ जरूर था,
इस कातर सी लडकी को,
हिरनी सी आँखो में,
भरे हुये भय को,
डर से कलेजा मेरा भी रूकता था,
ऐसे मे ‘तुमको’ ही, मैं भी तो खोजता था।
उस अल्हण सी जान को,
घसीटता था असुर एक,
कहाँ थे, उस वक्त ‘तुम’?
त्राण दिलवाते,
पर मैंने ‘तुमको’ कहीं नहीं पाया,
खोये थे क्या ‘तुम’ सुध-बुध भूलाके।

ना भाई परसो भी कहाँ ‘तुमको’ देखा,
करते हो कितनी ठिठोली ‘तुम’ हमसे,
परसो तो मै घंटाघर आया था,
सोचा था बहुतों ने घंटा बजाया है,
मै भी इस घंटे को थोडा हिलाऊँ,

‘तुम’ भी वहीं थे क्या?
क्यूँ ना बताया?
चलो कोई बात नहीं,

कहते हो मै ही बता देता ‘तुमको’,
थोडा मशगूल था,
इक बूढे को देखा था,
हाथ कंपकपाते थे,
अस्सी का रहा होगा,
बेशरम इतना की अब भी वो जीता था,
लगता है कितनो को जीतेजी मारेगा।
बाजू में उसके इक ‘कुत्ता’ भी चलता था,
थोडा भी रूकने पे भौंक वो देता था,
नस्ल से अच्छा था,
सोचा,
पूछूँ,
हँसा एक राही,
जवानी से पाला है।
उमर के इस पडाव पर वो भी तो भौंकेगा,

इतना सब होने पर
वक्त बीत जाने पर
‘तुम’ तो न आये थे,
सचमुच मे मैंने ‘तुमको’ न देखा है।

‘तुमको’ मै देखूँ
और कंठ न खोलूँ,
इतनी बेअदबी भी,
कैसे मैं मोलूँ,

ना भाई ना, मैंने ‘तुमको’ कल भी ना देखा,
कल तो मैं, सरकारी दफ्तर मे बैठा था।
दलील निकलवानी थी,
क्या कहा तुमने,
वहीं पे मुलाजिम हो,
बडा सौभाग्य है,
अच्छा ओहदा पाये हो,
पगार भी अच्छी है,
आयोग जो बैठा था।
अच्छा एक बात बताना,
वैश्वविक विविधता पर ‘तुम्हारा’ क्या मत है,
बात कोई खास नहीं,
ऐसे ही पूछा था,
कल मैंने आफिस में,
लोमडी के पुतले को देखा था,
चलो इसी बहाने संदेश ये जाता है,
बुद्ध का उपदेश भी सरेआम हो जाता है।

पर इनसबके बीच मे ‘तुमको’ न पाया हूँ,
पता बताना मैं मिलने को आतुर हूँ।

प्रमोद तिवारी

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