संजय जायसवाल की कविता : “चिट्ठी”

“चिट्ठी”
संजय जायसवाल

बहुत अरसे बाद
मिली मुझे वह चिट्ठी
खोलते ही उसकी गंध
लिपट गई
जैसी लिपटती हो कोई प्रेमिका
चिट्ठी की पहली पंक्ति में
लिखा था ‘प्रिय बेटा ‘
पढ़ते ही
झट आंखों में उतर आई मेरी मां
जिसे मैं अक्सर
दुलार से कहता था ‘माई’

चिट्ठी में आगे लिखा था
‘उम्मीद है बेटा तुम कुशलपूर्वक होगे’
जैसे ही थोड़ा और आगे बढ़ा
तो पढ़ा ‘राजदुलारी की गाय को बछिया हुई है ‘
‘सत्तार मियां का बेटा अरब चला गया है’
अब वे बेचारे दुआर पर बैठे खांसते रहते हैं’

आगे लिखा था
लतीफ चाचा बहुत बीमार रहते हैं
और मोची काका के चश्मे की डंडी टूट गई है
इतना सब पढ़ते-पढ़ते मैं रुक गया
दरअसल मैं रोक लेना चाहता था समय को
पर कहां रोक पाया!
नहीं रोक पाया उस बुढ़िया दादी को
जो अक्सर लाठी टेकते हुए आती थी मेरे दुआर पर
और पूछती थी ‘शहर में छुट्टियां कब होंगी’
नहीं रोक पाया उस पेड़ के बयान को
जिसपर दुनिया जहान से घूमकर आनेवाली
चिड़ियों की चहचहाहट गूंजा करती थी

धीरे-धीरे चिट्ठी का एक एक शब्द झरने लगा
जैसे झरता है गुड़हल का फूल

गरजने लगे बादल
खेत और मेड़ों पर रखे खांची,कुदाल, खुरपी को माथे पर बोहे लौटने लगे लोग

सच
मां की चिट्ठी में बोलने लगा था
मेरा पूरा गांव
बोलने लगी थी घरों में चुप रहने वाली स्त्रियां
बोलने लगे थे खोमचेवाले
भौंकने लगा था वह कुत्ता
जिसे दिया जाना था जूठन का आखिरी टुकड़ा
फैली थी नाद पर बंधे बैलों के रंभाने की आवाज
और सबसे आखिर में मेरी माई की व्यथा
जिसे शब्दों ने कम बोला
पर हवाओं ने ज्यादा खोला
सच
चिट्ठी की गंध अभी भी फंसी है मेरी उँगलियों में
बसी है मेरी आत्मा में

संजय जायसवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

3 × 2 =