‘माता गुरुतरा भूमे:’, मातृ दिवस पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । ‘स्वर्ग’ क्या है? हो सकता है कि यह मात्र एक परिकल्पित हो। पर इस धरती पर स्वर्ग के यथार्थ स्वरूप का दर्शन हमें माँ के ममतामयी आँचल में ही हो जाते हैं। जहाँ सर्वदा प्रेम की आर्द्रता का आभास होता है। प्रायः सभी सद्ग्रंथों में ऐसा ही कहा गया है। माता के आँचल की शीतलता की बराबरी इस धरती पर कोई अन्य छाँव नहीं कर सकता है और न ही कोई दूसरा सहारा ही हो सकता है। माता के समान न तो कोई रक्षक और न ही कोई पालक ही हो सकता है। कहने का अभिप्राय यही है कि इस धरती पर माँ से बढ़कर कोई और दूजा नहीं है। कर्म और त्याग की दृष्टि से इस धरती की बराबरी केवल और केवल माँ ही कर सकती है। ‘रामायण’ में श्रीराम जी अपने श्रीमुख से ही ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं –
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’
अर्थात, जननी (माता) और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
कोई भी देश हो, कोई भी धर्म या जाति हो, कोई भी संस्कृति या सभ्यता हो, कोई भी भाषा अथवा बोली हो, सर्वत्र ही ‘माँ’ के प्रति अटूट, अगाध और अपार प्रेम-सम्मान देखने को मिलता है।

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

‘माँ’ शब्द अपने आप में विराट है। इसमें सारा का सारा ब्रह्मांड ही समाया हुआ है। जिसका न आदि है, न अंत ही है। वह तो एक अमोघ शक्ति मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही बड़ी से बड़ी मानसिक और शारीरिक पीड़ा का नाश हो जाता है। माँ, तमाम शारीरिक और मानसिक कष्टों को आत्मसात कर नौ महीने तक अपने आजन्मा शिशु को अपने गर्भ में रखती है, अपने रक्त को पीला कर उसमें प्राण का संचार करती है, फिर मृत्यु समान अथाह प्रसव-पीड़ा को झेल कर उसे जन्म देती है, विविध मौसम में भी रात-रात भर बच्चे के लिए जागती है, खुद गीले में रहकर बच्चे को सूखे में रखती है।

बच्चे को हमेशा अपनी ममता की शीतल छाँव में छुपाये रखती है, बच्चों की जिद के आगे अपने सारे स्वाभिमान और गुरुता को त्यागकर सर्वदा ही झुक जाती है, बच्चे की अँगुली पकड़कर उसे चलना सिखाती है, प्यार से कभी डाँटती और कभी दुलारती है, दूध−दही−मक्खन बड़े ही लाड़-प्यार से खिलाती व पिलाती है, बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौतियों का डटकर सामना करती है, कभी-कभी बच्चे के रक्षार्थ अपनी जान तक अर्पण कर देती है। ये सभी अद्भुत गुण कोमलांगिनी, ममतामयी, वत्सल्यता से परिपूर्ण केवल ‘माँ’ के ही अद्भुत चारित्रिक गहने हो सकते हैं।

‘महाभारत’ के ग्रंथाकार त्रिकालदर्शी महर्षि वेदव्यास ने भी ‘माँ’ के संबंध में कहा है –
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
अर्थात, माता के समान न कोई छाया है और न माता के समान कोई गति या सहारा ही है। माता के समान न तो कोई रक्षक है और न माता के समान कोई प्रिय वस्तु ही हो सकती है।

हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियाँ, महाकाव्य, उपनिषद आदि भी ‘माँ’ की अपार महिमा का गुणगान करते न थकते हैं। असंख्य ऋषि-मुनियों, पंडित-विद्वानों, तपस्वी-महात्माओं, दर्शनशास्त्री-साहित्यकारों आदि ने भी ‘माँ’ के प्रति अपनी प्रेम अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है। पर यह भी सत्य है कि इन सबके बावजूद भी ‘माँ’ शब्द के महात्म्य तथा इसकी परिभाषा को आज तक कोई भी पूर्णरूपेन व्यक्त कर पाने में सक्षम नहीं हुआ है।

‘माँ’ का केवल एक ही रूप हो सकता है, और वह रूप है ‘माँ’ का। उसका अन्य कोई रूप या परिचय हो ही नहीं सकता है। फिर चाहे वह किसी की भी ‘माँ’ हो। पद्मपुराण में उल्लेखित एक कथा के अनुसार एक बार अयोध्यापति श्रीरामचन्द्र जी लंकापति महाराज विभीषण जी के आमंत्रण पर अपने अनुजों श्रीलक्ष्मण और श्रीभरत तथा अपने मित्र सुग्रीव सहित लंकापुरी पहुँचे। लंकापति विभीषण जी ने अपने मंत्रिमंडल सहित अपने विशिष्ठ अतिथि अयोध्यापति श्रीराम सहित उनके दल का लंका के राजभवन में भव्य हार्दिक स्वागत किया। उनके स्वागत में राजभवन को किसी दिव्य मंदिर की तरह सजाय गया।

चतुर्दिक ‘राजाराम की जय’ की मधुर ध्वनि गुंजित हो रही थी। श्रीराम जी के आदर्शों को मान कर लंकेश विभीषण के शासन-प्रबंध में ‘रामराज्य’ की परिकल्पना साकार हो रही थी। लंकापुरी के निवासियों के रहन-सहन, क्रिया-कलापों तथा धार्मिक कृत्यों को देख कर प्रतीत ही नहीं हो रहा था, कि यह लंका असुरपुर भी है। सर्वत्र ही सुख-शांति का वातावरण था। साधु और सज्जनों द्वारा चतुर्दिक धार्मिक कार्य सम्पन्न हो रहे थे। श्रीराम तथा उनके अनुजों के दर्शन को पाने के लिए लंका निवासियों में व्यग्रता तो थी ही, पर कहीं उतशृंखलता नहीं, बल्कि सर्वत्र आत्मसंयम दिखाई दे रहा था।

अगले ही दिन लंका के अनेक निवासी अपने राजा विभीषण जी के पास आए और उनसे सादर निवेदन किये, – ‘हमें भी श्रीराम जी और उनके अनुजों का एक पल के लिए दर्शन करवा दीजिए।’
यह सुनकर श्रीराम भक्त लंकापति विभीषण का हृदय गदगद हो गया। एक पल भी बिना गँवाए उन्होंने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम जी की सहमति को प्राप्त किया और फिर उनकी आज्ञा के अनुरूप नगरवासियों को अपने साथ लिये उनके पास पहुँचे। लंका निवासियों की अभिलाषा को व्यक्त करते हुए उन सबका प्रभु श्रीराम से परिचय करवाया। श्रीराम जी के दर्शन को प्राप्त कर सभी नगरवासी धन्य हो गए। श्रीराम जी की आज्ञा से श्रीभरत जी तथा श्रीलक्ष्मण जी ने भी उन सबसे भेंट की और उनके द्वारा प्रदत्त उपहारों को सादर ग्रहण कर उन्हें भी यथायोग्य उपहार देते हुए एक-एक कर सबको विदा किया।

लंका के राजभवन में तीन दिनों तक श्रीराम जी ने अपने अनुजों तथा मित्र सुग्रीव सहित निवास किया और उन स्थलों का सादर भ्रमण किया, जिनका संबंध उनकी भार्या सीता जी के साथ क्षणिक भी रहा था। चौथे दिन लंका की राजमाता कैकसी ने अपने पुत्र लंकापति विभीषण को बुलाया और आग्रह किया, – ‘मैं भी अपनी बहुओं के साथ चलकर श्रीराम जी का सानुज दर्शन करना चाहती हूँ। तुम श्रीराम जी को सूचना देकर उनसे आज्ञा ले लो। तुम्हारा बड़ा भाई दसशीश रावण उनके वास्तविक श्रीविष्णु स्वरूप को नहीं पहचान पाया था और उसने उनसे जबरन ही बैर ठान लिया था। तुम्हारे पिता जी ने मुझे बहुत पहले ही अवगत करवा दिया था कि भगवान श्रीविष्णु रघुकुल में राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम के रूप में अवतार लेंगे और वे ही अहंकारी दशग्रीव रावण का विनाश करेंगे। और वैसा ही हुआ भी।’

विभीषण जी ने अपनी माता से सादर कहा – ‘माते ! तुम मेरे प्रभु श्रीराम जी का दर्शन अपनी बहुओं के साथ अवश्य ही करो। पर थोड़ी देर के लिए प्रतीक्षा करो। मैं आपकी आज्ञा के अनुरूप तुरंत ही अतिथि प्रभु श्रीराम जी को सूचित करता हूँ कि आप अपनी बहुओं के साथ उनके दर्शन की अभिलाषी हैं। मैं तुरंत ही उनकी आज्ञा ले कर आता हूँ।’

विभीषण जी अपने प्रभु श्रीराम जी के पास पहुँचे और शीश नवाँ कर बैठ गए। श्रीराम जी का दर्शन करने आए जब सभी लोग एक-एक कर सादर विदा हो गए। तब अवसर पाकर महाराज विभीषण जी ने अपने प्रभु श्रीराम जी के सम्मुख करबद्ध शीश झुका कर निवेदन किया, – ‘प्रभु ! आपसे एक सादर निवेदन करना चाहता हूँ। मेरे दिवंगत भ्राता रावण तथा कुंभकरण को और मुझको जन्म देने वाली माता कैकसी अपनी बहुओं सहित यहाँ आकर आपके दर्शन की अभिलाषा रखती है और आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही हैं। आप मेरी माता जी को एक बार दर्शन देने की आज्ञा प्रदान कीजिए।

विभीषण जी की इस विनती को सुनते ही श्रीराम व्यग्रता सहित कहे, – ‘मित्र लंकापति! तुम्हारी माता, मेरी भी माता ही हुई न। अतः मेरे दर्शन हेतु माताश्री का यहाँ आना पड़े, यह तो मर्याद के प्रतिकूल होगा। यह तो मेरी भूल है, कि अब तक मैं माता के दर्शन के लिए उद्धत न हुआ। मैं माता के दर्शन करने की इच्छा से स्वयं ही अविलम्ब उनके पास चलूँगा। लंकापति! आप शीघ्र ही मेरे आगे चलते हुए मुझे माताश्री के पास ले चलें।’

और श्रीराम जी अपने अनुजों समेत झट से चल पड़े। माता कैकसी के पास पहुँच कर उन्होंने घुटनों के बल बैठकर अपने दोनों हाथों को जोड़ लिये। राजमाता कैकसी को उन्होंने अपनी माता कौसल्या के रूप में देखा। उनके चरणों को अपने दोनों हाथों से सादर स्पर्श किया। फिर उन चरणों पर अपने शीश को रखते हुए उन्हें सादर प्रणाम किया और विनीत स्वर में कहा, – ‘माता! मैं कौशल्या नंदन श्रीराम आपको प्रणाम करता हूँ। मैं विलम्ब से आपके दर्शन के लिए उपस्थित हुआ हूँ, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। आप मेरे मित्र लंकापति विभीषण जी की माता होने के नाते धर्मतः मेरी भी माता ही हैं। जैसे कौसल्या मेरी माता हैं, उसी प्रकार आप भी मेरी माता हैं। एकमात्र माता ही है, जो इस पृथ्वी से भी भारी होती है।’

राजमाता कैकसी तो अपने मन में रावणारि श्रीराम जी से स्वयं के लिए ऐसे विशेष आदर-सम्मान की नहीं, बल्कि तिरस्कार की ही भावना रखी थी। आत्म प्रसन्नता से उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह कंपित स्वर में बोली, – ‘वत्स श्रीराम ! तुम धन्य हो। तुमने मुझ अभागिन को अपनी ‘माता’ कौसल्या के समकक्ष बता कर तार दिया। सर्वत्र तुम्हारी जय हो। तुम चिरकाल जीवित रहो। वत्स ! तुम्हें अमर यश की प्राप्त हो।’
तत्पश्चात श्रीरामनुजों ने भी अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम जी का अनुसरण करते हुए माता कैकसी के चरणों को स्पर्श कर उन्हें सादर प्रणाम किया।

इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी ने अपने प्रबल शत्रु दिवंगत रावण की माता कैकसी को ही नहीं, बल्कि ‘माता’ को सम्मान आदर देकर लोक व्यवहार हेतु एक आदर्श को ही स्थापित किया है। जिसका अनुकरण करना सर्वकालिक सब पुत्रों का कर्तव्य है। तभी हम सभी भी श्रीराम के अनुयायी कहलाने का गर्व महसूस कर सकते हैं।

माता का हृदय फूलों की पंखुड़ियों से भी अधिक कोमल, यज्ञ के पवित्र धूँए से भी अधिक पावन व कर्तव्यपरायणता में बज्र से भी अधिक कठोर हुआ करता है। माता का हृदय, शिशु का विराट आँगन होता है, जिसमें वह निरंतर अठखेलियाँ करते हुए निरंतर बड़ा होते रहता है। कहा भी गया है कि शिशु का भाग्य सदैव उसकी जननी द्वारा निर्मित होता है। वही उसकी प्रथम गुरु है। इसीलिए ‘सामवेद’ में एक मंत्र के द्वारा कहा गया है, जिसका अभिप्राय है, – ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, शुद्ध मन और शुद्ध कर्म से माता के आनन को हर्षित कर।’

तात्पर्य है कि माता के चरण स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। इस महा महिमामयी जननी की सेवा सभी को करनी चाहिए। यह दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान भौतिकता के सम्मुख हम सभी मातृ-पितृ सेवा जैसी अपनी पावन संस्कृति और मर्यादा को ही भूलते जा रहे हैं और अपनी कमी को छुपाने के लिए आधुनिकता को दोष दे रहे हैं। यही कारण है कि देश भर में वृद्धाश्रमों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। जबकि प्रभु श्रीराम जी ने तो अपने अनुचरों में मातृ-पितृ की नित्य सेवा के लिए प्रेरित किया है –
‘सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी।।’

‘हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है।’ हिन्दी खड़ी बोली के महान कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कैकयी जैसी ‘माता’ को भी श्रीराम के मुखारविंद से महिमामंडित करते हुए कहा है –
‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।’

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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