16 जनवरी 1941 की मध्य रात्रि में ही वर्तमान कोलकाता के अपने मकान 38/2, एल्गिन रोड से अपने महाप्रयाण मार्ग पर निकले थे।
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने अद्भुत प्रबल शौर्य, पराक्रम और बुद्धिमता का प्रदर्शन किया था, उसी के सम्मानित करते हुए भारत सरकार ने उनकी गौरवशाली 125 वीं जयंती वर्ष को “पराक्रम दिवस” के रूप में मना रही है। भारतीय इतिहास में सुभाष चन्द्र बोस के समान कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं हुआ, जिसमें एक महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेताओं के साथ बैठ कर कूटनीति तथा राजनीति प्रसंगों पर चर्चा करने वाला हो। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में महात्मा गाँधी के बाद अगर किसी व्यक्तित्व का नाम लिया जा सकता है, तो वह महान व्यक्तित्व का ही नाम है, ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’।
सन् 1940 में उधर जर्मन का हिटलर लंदन पर लगातार बम वर्षा कर रहा था और इधर भारत में ब्रिटिश सरकार ने अपनी आँखों की किरकिरी बने उनका सबसे बड़ा शत्रु सुभाष चंद्र बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में डाल दिया गया। लेकिन बेवजह अपनी गिरफ्तारी के विरोध में 29 नवंबर, 1940 को सुभाष चंद्र बोस ने जेल में ही भूख हड़ताल शुरू कर दी थी, जिससे उनका सेहत लगातार गिरने लगा। जिससे घबड़ाकर प्रेसिडेंसी जेल का गवर्नर जॉन हरबर्ट ने 5 दिसम्बर को एक एंबुलेंस में सुभाष चन्द्र बोस को उनके घर 38/2 एल्गिन रोड भिजवा दिया, ताकि सुभाष की अस्वाभाविक मौत का आरोप अंग्रेज़ सरकार पर न लगे।
उनके घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया था। यहाँ तक कि अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है? अर्थात एक तरह से उन्हें उनके घर पर ही नजरबंद कर दिया गया था। उसने सोचा था कि कि सुभाष की सेहत में सुधार होते ही उन्हें फिर से हिरासत में ले लेगा। फिर उनसे मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर नज़र रखी जाने लगी थी और सुभाष द्वारा भेजे जा रहे हर ख़त को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था।
एक दिन बढ़ी हुई दाढ़ी सहित अपनी तकिया पर अर्धलेटे हुए ही सुभाष चन्द्र ने अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर के हाथ को अपने हाथ में थामे उससे पूछा था, – ‘आमार एकटा काज कोरते पारबे?’ यानी ‘क्या तुम मेरा एक काम करोगे?’ शिशिर ने हांमी भर दी थी। बाद में पता चला कि सुभाष गुप्त रूप से भारत से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे। तय हुआ कि शिशिर अपने चाचा सुभाष को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर किसी एक रेलवे स्टेशन तक ले जाएँगे। सुभाष के पास दो गाड़ियाँ थीं, जर्मन वाँडरर कार और अमेरिकी स्टूडबेकर प्रेसिडेंट कार। अमेरिकी कार बड़ी ज़रूर थी, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता था, इसलिए इस यात्रा के लिए वाँडरर कार को ही चुना गया।
शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘हमने मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर में जा कर बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी, एक सूटकेस, एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीज़ें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा। मैं फ़ेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने सुभाष के लिए विज़िटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया। कार्ड पर लिखा था, मोहम्मद ज़ियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता, सिविल लाइंस, जबलपुर।’
घरेलू क्रिया-कलापों में एकरूपता रखी गई। सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों को, यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई थी। सुभाष चन्द्र ने अपने परिजन के साथ 16 जनवरी की रात को आख़िरी बार भोजन किया। सुभाष को घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि घर के बाकी सदस्य अभी जाग ही रहे थे। सुभाष बोस पर किताब ‘हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट’ लिखने वाले सौगत बोस के अनुसार, – ’16 जनवरी की रात एक बज कर 35 मिनट के आसपास सुभाष बोस ने मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष धारण किया। उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना, जिसको उन्होंने एक दशक पहले पहनना बंद कर दिया था। भतीजे शिशिर की लाई गई काबुली चप्पल उन्हें रास नहीं आई।
इसलिए उन्होंने लंबी यात्रा के लिए फ़ीतेदार चमड़े के जूते पहने। सुभाष कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गए। शिशिर ने वांडरर कार बीएलए 7169 का इंजन स्टार्ट किया और उसे घर के बाहर ले आए। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती पूर्व की भाँति अगले एक घंटे के लिए जलती छोड़ दी गई थी।’ जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, उस समय चाचा और भतीजे ने लोअर सरकुलर रोड, सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया। दोनों भोर होते-होते आसनसोल और सुबह क़रीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूरी पर सुभाष बाबू को कार से उतारा दिया।
शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, – ‘मैं अशोक को बता ही रहा था कि माजरा क्या है कि कुछ दूर पहले उतारे गए इंश्योरेंस एजेंट ज़ियाउद्दीन (दूसरे भेष में सुभाष) ने घर में प्रवेश किया और अशोक को बीमा पॉलिसी के बारे में बताने लगे। फिर मैंने कहा कि बातचीत हम शाम को करेंगे। नौकरों को आदेश दिए गए कि ज़ियाउद्दीन के आराम के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाए। नौकर की उपस्थिति में अशोक ने मेरा ज़ियाउद्दीन से अंग्रेज़ी में परिचय करवाया।’
शाम को बातचीत के बाद ज़ियाउद्दीन ने अपने मेज़बान अशोक को बताया कि वे गोमो स्टेशन से कालका मेल को पकड़ कर अपनी आगे की यात्रा करेंगे। कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी। गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक अज्ञात कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया। शिशिर बोस आगे लिखते हैं, – ‘मैंने अपने रांगाकाका बाबू (सुभाष चन्द्र) को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा। थोड़ी देर बाद वे चलते-चलते अँधेरे में गायब हो गए। कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहाँ पहुँच गई। मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था। दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी।’ सुभाष चंद्र बोस 18 जनवरी 1941 को जिस गोमो स्टेशन से नेताजी ट्रेन में सवार हुए थे, उसका नाम ‘नेताजी’ के सम्मान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन किया जा चुका है और जिस कालका मेल से गए थे उसका नाम भी सम्मानजनक नेताजी एक्सप्रेस किया जा चूका है।
इस बीच सुभाष चन्द्र के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में रोज खाना पहुँचाया जाता रहा। वह खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहें, ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष बाबू अभी भी अपने कमरे में ही हैं। सुभाष बाबू ने शिशिर से कहा था कि अगर वह चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की ख़बर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा। 27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। तय किया गया कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं हैं। क्रमशः
श्रीराम पुकार शर्मा
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