प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम” । जैसे कोई आधा भरा हुआ पानी का लौटा खंगालता है, ईश्वर ने कुछ इसी तरह धरती को खंगाला और पाया कि सातों समुद्र पहले की ही तरह भरे हुए थे। हड़बड़ाते हुए ईश्वर ने दुनिया की सारी नदियों के स्रोतों को जांचा, नल की टोटी को ठीक करने वाले प्लंबर की तरह उसने देखा कि सारी नदियां अपने पूरे शबाब पर बह रही थीं।
लेकिन ईश्वर अब भी परेशान था। सर्वशक्तिमान परमात्मा से उसकी परेशानी पूछने की हिमाकत किसी की नहीं हुई। सब लोग ईश्वर को, उस झल्लाए हुए इंसान की तरह देख रहे थे जो अपनी बनाई हुई चीज के एक गुम हो चुके हिस्से को बड़ी तरतीब से तलाशता है।
ईश्वर ने संसार के सारे जलस्रोतों की पड़ताल कर डाली। यहां तक कि ढूंढने के पागलपन में वह बांस की पर्वसंधियों तक को छेदकर देख आया, उसमें भी पानी मौजूद था। ढूंढने की कश्मकश और न मिल पाने के अवसाद में झल्लाया हुआ ईश्वर अंततः अपने घर लौटने लगा। घर लौटते समय भी उसने घड़ियाल की आंखों के किनोर पर छलका हुआ पानी भी जांच ही लिया।
अचरज के साथ ईश्वर ने खुद से पूछा कि दुनिया के सारे जलस्रोत लबालब भरे हैं, यहां तक की घड़ियालों की क्रूर आंखों में भी पानी है। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दुनिया के सारे इंसानों ने रोना बंद कर दिया है, उनकी आंखों का पानी सूख चुका है?
दरअसल ईश्वर को यही चिंता थी, उसकी हड़बड़ाहट का कारण यही था कि मनुष्य की आंखों के अश्रु-रंध्रों से वह पारदर्शी खारा द्रव्य क्यों नहीं बह रहा जिसे दुनिया के किसी पहले कवि ने ‘आंसू’ की संज्ञा दी थी।
ईश्वर ने मनुष्य से इसका कारण पूछने की जहमत नहीं उठाई। क्योंकि उसे पता था कि अपने विज्ञान जनित अहम और तर्कसम्मत लफ्फाजियों से इंसान, आंसू न आने के तमाम कारण बताकर बच निकलेगा।
ईश्वर को याद आया कि आंसू को पहले-पहल पारिभाषित करने वाले संसार के उस सबसे पहले कवि का कोई न कोई वंशज जरूर होगा, जिसे इसका कारण मालूम हो।
ब्रह्मा के बहिखातों से संसार के सारे कवियों की वंशावलियों को तलाशता हुआ ईश्वर बेतवा नदी के किनारे पर बैठे एक कवि के पास पहुंचा।
ईश्वर ने देखा कि उस मनुष्य जैसे दिखने वाले कवि की आंखों में ‘आंसू’ थे। हां! यह वही कसैली सी चीज थी जिसके गुम होने की चिंता में वह सुबह से इसे खोज रहा था। उस स्थिति में जब ईश्वर को संवेदना प्रकट करनी चाहिए थी अपनी जाहिलीयत को दिखाते हुए उसने कवि के सामने जिज्ञासा प्रकट की और पूछ लिया कि – तुम्हारी आंखों में यह जो आंसू है, वह संसार के बाकी मनुष्यों में क्यों नहीं?
कवि ने आंसुओं को न परखने पाने की ईश्वर की असमर्थता पर शोक प्रकट किया और प्रत्युत्तर दिया कि –
‘आंसू शब्दहीन कविता है’
‘और प्रेम अर्थहीन भावना है’
जैसे हम अर्थ खो देते हैं तो शब्द नहीं तलाश पाते, ठीक वैसे ही इस प्रेमहीन संसार में आप आंसू ढूंढ रहे हैं।
वास्तव में, अबतक ईश्वर दोलायमान समुद्रों और प्रवाहमान सरिताओं की गति और स्थैर्यता के भौतिक नियमों से, बांस की पर्वसंधियों और घड़ियाल के जैविक मापकों के पूर्वानुमानों से मानव की आंखों में आंसू तलाश रहा था।
कवि ने इशारा किया कि – आंसू कोई हर्मोनिकल इफेक्ट नहीं है, न ही यह कोई बायोलॉजिकल डिफेक्ट है।
यह तो ह्रदय की अंतर्संधी में भावनाओं के उद्दीपन का परिणाम है जो आंखों के अश्रु-रंध्रों पर जब झलकता है तो रोने वाले के ह्रदय के छायाचित्र को उसकी आंखों की पुतलियों पर उकेर देता है।
और तो और इसे देखने वाले के हृदय तक भी उन्हीं संवेदनाओं की तरंग पहुंच जाती है।
ईश्वर ने जाना कि –
भाव के बिना कविता
अर्थ के बिना शब्द
और प्रेम के बिना आंसू नहीं मिल सकते।
मनुष्य जैसे दिखने वाले उस कवि ने उस दिन ईश्वर को रोते हुए देखा।
ईश्वर की आंखों में आंसू छलक आए थे और उसकी पुतलियों पर उसके ह्रदय का छायाचित्र उभर आया था.. जिसपर लिखा था – प्रेम
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com