श्रीराम पुकार शर्मा हावड़ा। बंगला भाषा के साथ ही किसी भी भाषीय साहित्य-प्रेमी के लिए पश्चिम बंगाल के हुगली जिला के बंडेल स्टेशन से दक्षिण-पश्चिम 3-4 किमी. की दूरी पर सरस्वती नदी के उत्तरी तट पर स्थित देवानंदपुर और हावड़ा जिला के देउल्टी स्टेशन से 3-4 किमी. की दूरी पर उत्तर दिशा में रूपनारायण नदी के पूर्वी तट पर स्थित ‘समतावेड़’ ग्राम दोनों ही किसी विशेष तीर्थ-स्थल से कम नहीं है, बल्कि कुछ अर्थ में उनसे भी कुछ अधिक ही है। इन दोनों ग्रामों की ख्याति बंगला भाषा के अमरत्व को प्राप्त सुप्रसिद्ध कथा-शिल्पी और उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चटर्जी के जन्म और आवासीय-स्थल से सम्बद्ध होने के कारण है।हालाकि वर्तमान में देवानंदपुर ग्राम किसी उपनगर के रूप में विकसित हो गया है। परंतु आज भी ग्रामीण परिवेश से संबंधित अतुल प्राकृतिक सौन्दर्य इस ग्राम में चतुर्दिक मौजूद है। देवानंदपुर-गामी ग्रामीण पतली पक्की सड़क के दोनों किनारों पर छोटे-छोटे कई ताल-पोखरे तथा हरे-भरे बाग-बगीचे दिख जाते हैं। उन बगीचों में चहचहाते विहंग-वृंद, कहीं-कहीं पर हाथी के बड़े-बड़े कानों की भाँति अपने हरे-हरे पत्तों को फैलाए केले के पौधे, जहाँ-तहाँ उन्मुक्त घूमते और घास चरते मवेशी, आस-पास के मुक्त मैदानों में खेलते बच्चें आदि सब कुछ शरत बाबू के कथा और उपन्यास में वर्णित पात्र और उनकी विषय-वस्तु ही प्रतीत होते हैं।
इन सब के बीच ही दिख जाता है, पक्की चार दीवारी से घिरा टाली के छाजनयुक्त लाल रोड़ी-रंग में रंगा हुआ एक सुंदर मकान। चार दीवारी में प्रवेश द्वार के पास ही लिखा हुआ है, ‘बंगला कथा-शिल्पी और उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चटर्जी का जन्म-स्थल’। चार दीवारी में प्रवेश करते ही सामने महान साहित्यकार के आदमकद श्वेत विद्व मूर्ति का दिव्य दर्शन होता है। उस विद्व मूर्ति के सामने दायीं ओर ही सुंदर बैठक-खाना और उसके पीछे ही छोटे-छोटे कमरों वाला पक्का मकान है। भुवन मोहिनी देवी और मोती लाल चट्टोपाध्याय के इसी साधारण मकान में उनकी नौवीं संतान के रूप में 15 सितंबर, 1876 को शरतचंद्र चटर्जी का जन्म हुआ था। उनका शरारतपूर्ण बाल्यावस्था इसी देवानंदपुर ग्राम की विभिन्न गलियों, मैदानों, खेत-खलिहानों, बाग-बगीचों, पेड़ों के झुरमुठों में बीता और उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी इसी ग्राम की ‘प्यारी पंडित पाठशाला’ में ही प्रारंभ हुई थी।
दशक पूर्व तक शरत बाबू का वह पुराना मकान समय के आघातों से जर्जर रूप में था। पर सरकारी सहानुभूति को प्राप्त कर आज यह मकान हरीतिमा युक्त फूल-पौधों तथा अन्य कई वृक्षों से सुसज्जित एक छोटी-सी बगिया के मध्य निर्मित एक ‘बागान-बाड़ी’ है। आज यह बंग-भूमि में एक विशेष साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर और साहित्य-प्रेमियों के लिए एक साहित्यिक तीर्थ-स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। सिर्फ देवानंदपुर ही क्यों, बल्कि हुगली जिला और पश्चिम बंगाल का एक विशेष गौरव-स्थल है। बड़ा ही साफ-सुथरा और शांतमय ग्रामीण वातावरण।
शरतचंद्र चटर्जी के मकान के बाहर बहुत निकट में ही उनकी स्मृति में सरकार द्वारा बड़ा ही कलात्मक और सुविस्तृत ‘शरत स्मृति मंदिर’ निर्मित है, जिसमें एक पुस्तकालय, शरत बाबू से संबंधित पुस्तकें और अन्य कई विरस्टीय वस्तुएँ संग्रहित हैं। अपने शिल्पी, साहित्यकारों, कलाकारों आदि को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विभिन्नताओं से ऊपर उठकर विशेष सम्मान प्रदान करना और उनकी यादों को किसी विरासत स्वरूप सहेजने की बंगाली संस्कृति की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम ही होगा। इसके आधे किमी. की दूरी पर ही ‘शरतचंद्र सेमीनार हाल’ नाम से एक बड़ा प्रेक्षागृह भी निर्मित है, जिसमें अक्सर विभिन्न सांस्कृतिक समारोह हुआ करते हैं। इस प्रकार देवानंदपुर ग्राम अपने यशस्वी संतति शरतचंद्र चटर्जी को चिरअविस्मरणीय बनाए रख स्वयं में एक साहित्यिक तीर्थ-स्थल ही है।
तो अब चलते हैं, बंगला विख्यात कथा-शिल्पी और उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चटर्जी के ‘समतावेड़’ ग्राम में स्थित ‘शरत-स्मृति मंदिर’ के नयनाभिराम दर्शन करने के लिए…
देउल्टी स्टेशन से उत्तरगामी सड़क कुछ ही दूरी पर राष्ट्रीय सड़क मार्ग 16 को पार करती है। वहाँ से करीब चार किलोमीटर की दूरी पर समता बाजार है। वही से शरतचंद्र मोड़ से पश्चिम की ओर ग्रामीण पतली, परंतु पक्की सड़क महान साहित्यकार शरतचंद्र चटर्जी की पावन कुटीर के पार्श्व से होती हुई आगे तक जाती है। शरत बाबू बर्मा में नौकरी करने के पश्चात जब लौटे, तब वे पहले शिल्पनगरी हावड़ा शहर के ‘बाजे शिबपुर’ में 11 वर्षों तक रहें और साहित्य सृजन-साधना करते रहें। फिर वहाँ के औद्योगिक विषैले प्रदूषण से मुक्ति के उद्देश्य से ही उन्होंने 1923 में रूपनारायण नदी के किनारे के प्राकृतिक-सौन्दर्य से परिपूर्ण इस शस्य-श्यामल और प्रशांत ‘समतावेड़’ को अपने पारिवारिक आवासीय और अपना साहित्य सृजन-स्थल के रूप में अपनाया। यहीं पर उन्होंने अपने परिवार और स्वयं के अनुकूल ‘बर्मा गृह निर्माण शैली’ पर आधारित एक भव्य दुमंजिला मकान बनवाया, जिसके सम्मुख ही हरीतिमायुक्त सुविस्तृत सुंदर बगीचा है। इस मकान में ही उन्होंने एक गृहस्थ और उपन्यासकार दोनों के रूप में अपने जीवन के आखरी के बारह वर्ष बिताए थे। इसी मकान में शरत बाबू के बड़े भाई प्रभास चंद्र, जो बाद में ‘रामकृष्ण मिशन’ में चले गए और स्वामी वेदानंद कहलाये और उनका छोटा भाई प्रकाश चंद्र भी साथ ही रहा करते थे। आज यह उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चटर्जी संबंधित एक गृह-संग्रहालय है, जिसमें उनके द्वारा व्यवहृत साधारण मेज-कुर्सी, किताब-कलम, घड़ी, छड़ी, लालटेन, पुरस्कार-चिन्ह, सूत कातनी चरखा, बिछावन, बक्सा, हुक्का, पारिवारिक चित्र आदि सभी सुरक्षित हैं। फलतः उनके इस विशेष कुटीर को भी वर्तमान में ‘शरत-स्मृति मंदिर’ जैसे आदर सूचक संज्ञा से संबोधित किया जाता है।
इस दुमंजिला ‘शरत-स्मृति मंदिर’ भू-सतह पर महान साहित्यकार शरचन्द्र चटर्जी का बैठक-खाना, लेखन-कमरा और शयन-कमरा है। सामने कुछ कम चौड़ा पर, लंबा अलंकृत बरामदा और उसके सामने ही विविध फूलों और पेड़-पौधों से सुसजित हरीतिमायुक्त सुविस्तृत बगिया है। इसी बगिया में गर्मी के दिनों में किसी पेड़ के नीचे उसकी श्यामल छाँव में बैठे शरत बाबू की लेखनी किसी कथ्य को शब्द स्वरूप देने में तल्लीन रहा करती थी। स्वयं शरत बाबू द्वारा लगाए गए कुछेक बांस और अमरूद के पेड़ आज भी इस हरित बगिया में ही उनकी कालजयी रचनाओं की भाँति खड़े हैं। इस बगिया के मध्य में स्थापित महान साहित्यकार की आवक्ष मूर्ति सर्वदा उनकी उपस्थिति का एहसास करवाती है।
इस ‘शरत-स्मृति-मंदिर’ के ऊपर की मंजिला चतुर्दिक पूर्णतः हवादार रहा है, जहाँ से तत्कालीन खुले परिवेश में दूर-दूर तक के ग्रामीण लोगों की विविध क्रिया-कलापों को, रजतवर्णी रूपनारायण के कीचड़ युक्त किनारे के जल में ध्यान मग्न सफेद बगुलों के झुंड को, घुटनों और कमर भर पानी में अपने कंधों पर जाल लिये और कुछ नदी में जाल फैलाए इंतजार करते जेले (मछुवारे) के कर्तव्य विमूढ़ शारीरिक गतिशीलता को, नदी की चमचमाती रजत और स्वर्ण लहरों से अठखेलियाँ करती छोटी-छोटी नौकाएँ को, चपू से जलधारा को काटते सधे हाथों वाले गीत गाते माझी को, नदी के किनारे दूर-दूर तक फैले रेतीले मैदान से झिलमिलाती सूर्य की किरणें को, दूर श्यामल खेतों में चरती और रंभाती गायों के बीच बाँसुरी बजाता राखाल (चरवाहे) को, फिर नदी में स्नान कर बदन से चिपके भीगे कपड़ों में ही पतली पगडंडियों पर अपनी यौवना को छुपाती तेज कदमों से लौटती शर्मीली ग्रामीण स्त्रियाँ और बालाएँ को, कभी-कभार घुटनों तक के चमड़े के जूते पहने, शर्ट को जबरन पतलून में घुसेड़े, चमड़े के चौड़े बेल्ट से अपने कमर को जबरन दबाए घोड़ेगाड़ी से आए रोबदार शहरी बाबू लोग को, आदि का सुंदर अवलोकन संभव रहा होगा। ये सभी प्राकृतिक उपादान हमारे कथा शिल्पी और उपन्यास सम्राट शरत बाबू को न जाने कितनी साहित्यिक विषय-वस्तु प्रदान करते रहे थे, जो समयानुकूल उनकी कालजयी कलम के स्पर्श को प्राप्त कर विविध कथाओं और उपन्यासों के स्वरूप को धारण कर साहित्यिक अमरत्व को प्राप्त कर गए हैं।
शरत बाबू का उनका छोटा-सा बैठक खाना, अपने आप में बंगला साहित्य और बंगाल के स्वतंत्रता इतिहास के अनगिनत स्वर्णिम पृष्टों की मौन-मूक साक्षी है। इसी बैठक खाने में उनके कई उच्चकोटि के साहित्यकार मित्र और स्वतंत्रता संग्रामी मित्र अक्सर उनसे प्रसंगानुकूल विचार-विमर्श किया करते थे। उसके पार्श्व का वह छोटा-सा कमरा, जिसकी खिड़की रूपनारायण नदी की ओर खुलती है, उससे पछुवा हवा अपने साथ लाए अनगिनत कथ्यों के साथ प्रवेश कर शरत बाबू के साहित्यिक संपदा को श्रीवृद्धि करती रही थी। आज भी उनके लेखन-मेज और खिड़की की ओर उन्मुख उससे लगी कुर्सी पहले की भाँति ही अपने महान साहित्यकार की प्रतीक्षा करते प्रतीत होते हैं।
यह ‘कुटीर’ क्या है? हरीतिमा युक्त सुंदर बगिया में बना हुआ आधुनिक किसी बंगले से जरा भी कम नहीं है। भले ही अब उसके इर्द-गिर्द कई बड़े-बड़े मकान और इमारतें बन गए हैं पर यह ‘शरत-स्मृति-कुटीर’ के निर्माण कला के सम्मुख वे सभी हीन ही प्रतीत होते हैं। सौ वर्ष पहले अर्थात शरत बाबू के समय में यह भव्य कुटीर समतावेड़ गाँव का एक विशिष्ठ मकान रहा होगा। आज भी उनके कुटीर के परिसर में ही शरत बाबू, उनकी धर्मपत्नी हिरण्यमयी और उनके भाई स्वामी वेदानंद की समाधियाँ मौजूद हैं, जिनमें तीनों चीर निद्रित विश्राम कर रहे हैं। ऐसे महान साहित्यिक विभूति शरतचंद्र चटर्जी की सानिध्यता को प्राप्त करना हर साहित्य-प्रेमी बुद्धिजीवी के जीवन का परम लक्ष्य होना स्वाभाविक ही है। उनकी पावन ‘शरत-स्मृति-कुटीर’ का दर्शन पाकर किसी भी सहृदय का अन्तःकारण अभिभूत हो जाता है। तो क्या, ‘समतावेड़’ किसी पावन तीर्थ-स्थल से कम है?
यह कुटीर शरतचंद्र चटर्जी की सानिध्यता को प्राप्त कर साहित्य-जगत में अमरत्व को प्राप्त कर लिया है। प्रतीत होता है कि शरत बाबू अभी भी इस कुटीर के कमरे में बैठे या फिर इसकी छोटी-सी बगिया में किसी वृक्ष की छाँव में बैठे अपनी किसी रचना की सृजनशीलता में मौन-मूक लीन हैं। इसी बगिया में महान साहित्यकार ने स्वयं अपने हाथों कई वृक्ष और पौधे लगाए थे। जिनके समयानुकूल सरस फल में शरत बाबू की सरस रचनाओं की भाँति ही उनमें भी सौम्य मधुर-स्वाद छुपे रहता है। ये हरित-मूल शांत मन से अपने स्वामी के प्रकृति-प्रेमी हृदय का मौन-मूक बखान करते हैं और कभी-कभी लहर-लहरा कर अपने स्वामी की उपस्थिति का भी आभास करवाते ही रहते हैं। तभी तो निःशब्द सर्वत्र घोर शांति है। रूपनारायण नदी की प्रवाह की शीतल बयार भी इसकी शांति को खंडित करने से डरती है। फलतः सर्वत्र घोर शांति।
(‘शरत-स्मृति-कुटीर’ यात्रा, 11 फरवरी, रविवार, 2024)
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com
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Sarat Chandra Chatterjee is a outstanding writer popularly know as Katha Sahittik in his golden era. He wrote down a lot of stories, novel which draws the rural society of the bengali family’s & many more which touches our heart.
Sir Ram Pukar Sharma is too expert, who represents all about him so beautifully.
May God bless him, keeps him healthy & peace of mind.