यात्रा वृत्तांत : आपातकालीन सीट

मंजू चौधरी “मनीषा”

मेरी मुलाकात तुमसे रेलगाड़ी के सफ़र दौरान हुई। मेरी रिजर्व्ड सीट पर तुम बैठी थी। मैंने तुम्हें उठने को कहा तो तुम रेलगाड़ी के गेट के सामने नीचे जाकर बैठ गयी। वहाँ से खुली हवा आ रही थी जो तुम्हें अच्छी लग रही थी। तुम्हारी उम्र 16 -17 के करीब वर्ष रही होगी। तुम्हारे गले में मंगलसूत्र जैसा नेकलेस और नंगे पैरों में पायल, कुछ सवाल मेरे लिए उत्पन्न कर रहे थे। तुम डिब्बे में बेबाक तरीके से इधर से उधर घूम रही थी। तुम्हारी पायल की आवाज़ मुझे ना चाहते भी तुम्हारी तरफ आकर्षित कर रही थी।

तुम्हारी हरकतों से पहले पहल तुम मुझे मानसिक रूप से अस्वस्थ और एक दुख भरा अतीत लिए हुए लगी। जैसे तुम किसी से भाग रही हो। सामान के नाम पर तुम्हारे पास सफ़ेद कपड़े का झोला उसमें कुछ कपड़े और खाना था। तुम रेलगाड़ी के गेट के बाहर लटक कर बाहर देखने लगी। जो मुझे फिल्मी सीन- सा प्रतीत हो रहा था। खैर ऐसा करना खतरनाक था लेकिन तुम निडर थी।

मैं अब तुम्हें समझने की कोशिश करने लगी। अचानक से तुम्हारे कपड़ों पर पानी गिरने पर तुम असहज हो उठी और चिल्लाने लगी। तुमने अपने कपड़े बदल लिए थे जो दिखा रहा था की तुम सफाई पसंद हो।

रेलगाड़ी का सफ़र मेरी लिए सदा ही रोमांच भरा रहा है। उसकी लयात्मक आवाज़ में एक धुन- सी प्रतीत होती है। इस बार मुझे आपातकालीन सीट मिली, जिसमें खिड़की में रॉड्स नहीं होते वो मुझे और भी अच्छा लगा। तुम्हें अपना ध्यान कैसे रखा जाए यह भी बखूबी पता था। तुमने गेट बंद किया और खाना खाने लगी। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे तुम रेलगाड़ी की मालकीन हो।

भैया ने मुझे दूसरी सीट पर अपने पास बैठने को कहा। वो सीट खाली होने पर तुम उसपर वापस आकर बैठ गयी। तुम्हें भी आखिर में खुली खिड़की ही पसंद थी। अब तुम खिड़की से बाहर मुँह निकाल पानी पीने लगी। मुझे बचपन में ऐसा करने पर डाँट पड़ती थी। शायद तुम्हें इन खतरों से सावधान करने वाला कोई ना था लेकिन फिर भी तुम सतर्क थी। अब गाड़ी एक स्टेशन पर रूक गयी। तुम अपने झोले से कुछ पैसे निकाल गिनने लगी। उन कुछ पैसों को तुम बड़ी खुशी से गिन रही थी और खुद से ही बतिया रही थी। लेकिन तुमने कुछ खरीदा नहीं, गाड़ी चलने पर तुम गाना गुनगुनाने लगी।

अब टिकट चेकर आये उन्होंने तुमसे टिकट मांगी। तुम्हारा जवाब था, “साहब हमारे पास कपड़े हैं कुछ खाने पीने का सामान है और तो कुछ नहींl तुम खड़ी हुई और बड़े ही आत्मविश्वास से अपनी हालत को दिखाते हुए कहने लगी,”गरीब है हम हमारी औकात ही यही है उसे देखकर मुझे कोई कुछ दे देता है मैं ले लेती हूँ।” टिकट चेकर ने विनम्रता से कहा “अच्छा सबको अपना दोस्त बना लिया है तुमने” और चले गए।

तुम हाथ जोड़ते हुए मुस्कराते हुए बैठने लगी। इसी बीच तुमने मेरी तरफ देखा। मैं भी उत्तर में मुस्कारने ही वाली थी की मुझे इस व्यंगात्मक मुस्कान के पीछे की वेदना महसूस हुई। मुझे महसूस हुई तुम्हारी मजबूरी “तुम्हारी औकात गरीब है”, यह तुमने इस कदर स्वीकार कर लिया था की तुम संतुष्ट थी मानों इन हालातों से। मेरे लिए यह स्वीकार्य नहीं था।

तभी मेरे आसपास बैठे लोग भी चर्चा करने लगे। एक आंटी जी बोलीं, “ये बड़ी दूर से आयी है गरीब है बेचारी क्या कर सकते हैं”। तुमसे सहानुभूति थी उनकी, वे यह भी जान गयीं थी की तुम मानसिक रूप से स्वस्थ हो। किन्हीं ने तुम्हें बदमाश समझा, हाँ तुम चालाक थी क्योंकि तुम्हें पता था कैसे बचा जाए पैसे देने से।

मेरे अनुसार तुम निडर थी, आत्म निर्भर थी और अपने में ही मस्त थी। तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, तुम्हारे बारे में कोई क्या सोच रहा है। तुम अपने कदमों से लंबा सफ़र अकेले ही तय करने में सक्षम थी।

अब तुम्हारी मनोदशा मुझे बदलती नजर आ रही थी। अपने गले में पड़े नेकलेस में तुम्हारी रूचि खत्म हो गयी और तुमने उसे तोड़कर फैंक दिया। तुम्हें सुंदर दिखना पसंद था तो तुम अपनी पायल को सही करने लगी, तुमने अपने हाथों को सुजन आये हुए पैरों पर लगाया। मैं देख और महसूस कर पा रही थी तुम्हारे चेहरे पर बदलते हुए हाव भाव को जो उस पीड़ा के कारण थे।

अब मेरा गंतव्य भी आ गया था। मैंने तुमसे मुस्कराहट के साथ विदा लेने की सोची। लेकिन तुम्हारे असमंजस से भरे चेहरे को देख मैं समझ गयी अभी तुम मेरा मैत्री भाव स्वीकार कर पाने में असक्षम हो। तुम अपनी मंज़िल को लेकर असमंजस में दिखाई दे रही थी।

मेरे मन में तुम्हारी मदद करने का कोई ख्याल नहीं आया उस समय, अगर मैं तुम्हें कुछ पैसे दे देती तो तुम्हारी गरीबी का पोषण करती मैं। मैं तुम पर दया भी नहीं कर सकती थी क्योंकि यह तुम्हें तुम्हारी लाचारी का आभास करवाता और तुम कमज़ोर हो जाती। उस समय मैंने तुम्हें समझना और दुआएँ दे कर विदा लेना ही उचित समझा, बस इतना ही करने में समर्थ थी उस समय मैं।

मेरी लिए ये धरती तुम्हारा आंगन थी। तुम स्वतंत्र थी, एक चिड़िया की तरह। मेरे लिए तुम गरीब नहीं थी पता नहीं क्यों। बस शिक्षा और उचित परवरिश के अभाव के कारण तुम सभ्य समाज द्वारा स्वीकार नहीं थी।

मंजू चौधरी “मनीषा”

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