‘यह धन मेरे बहुत से बुजुर्गों को खा गया है, अब मैं इसको खा डालूँगा’ – भारतेन्दु

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । दान देने और किसी की सहायता करने के पीछे अपने परिजन द्वारा संचित धन को पानी की तरह बहाते देख कर ही एक बार काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ‘राय बहादुर’ ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र से कहा था, – ‘बबुआ! घर को देख कर काम किया करो।’ तब भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने उनसे सादरपूर्वक यह प्रतिशोधात्मक कथन कहा था और सचमुच अपने स्वर्गवास काल के पूर्व तक भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने अपने सारे धन को ही खा डाला था।

भारतीय संस्कृति के प्रति आजीवन निष्ठावान माँ भारती और भारतमाता के सेवक, अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही दृष्टि से साहित्यिक क्रांतिद्रष्टा और युग-प्रवर्तक तथा आधुनिक हिन्‍दी के ‘जनक’ हरिश्चंद्र जी ही हैं। ‘भारतेन्दु’ (‘भारत’ का ‘इंदु’) उनके साहित्यिक कर्म के अनुकूल ही उनकी प्राप्त उपाधि थी, जिसे उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर पं. रघुनाथ, पं. सुधाकर दिवेदी, पं. रामेश्वर दत्त ‘व्यास’ आदि के प्रस्तावानुसार काशी के तत्कालीन विद्वानों ने 1880 में उन्हें प्रदान की थी। अपने साहित्यिक युग की समस्त चेतनाओं के मूल धुरी होने के कारण तत्कालीन हिन्दी साहित्यिक नवजागरण काल को ही ‘भारतेन्‍दु काल’ के नाम से विभूषित किया गया है।

माँ ‘भारती के इंदु’ बाबू हरिश्‍चन्‍द्र जी का जन्‍म 9 सितम्‍बर 1850 ई. (भाद्र शुक्लपक्ष सप्तमी तिथि, वि० सं० 1907) को पौराणिक शिव नगरी काशी के साहित्यिक तथा वैभव सम्पन्न बाबू गोपालचन्‍द्र जी के घर-आँगन में हुआ था, जो स्वयं ‘गिरधरदास’ उपनाम से ब्रजभाषा में सुंदर कविता लिखा करते थे। बाबू हरिश्चंद्र को काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में प्राप्त हुई थी। ऐसे साहित्यिक वातावरण को प्राप्त कर बालक हरिश्चंद्र ने भी मात्र पाँच वर्ष की तुतलाती अवस्था में ही पद-रचना कर सभी को अचम्भित कर दिया था।
‘लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥’

पर बाल्‍यावस्‍था में ही इन्हें माता-पिता का वियोग भी सहना पड़ा था। इन्होंने घर पर और यात्रा-प्रवास काल की अवधि में ही स्‍वाध्‍याय की प्रवृति से ही बंगला, अँग्रेजी, संस्‍कृत, फारसी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का विशद अध्ययन किया था। इन्होंने भारत के विभिन्न प्रान्तों का व्यापक भ्रमण किया और साथ में ही उन प्रान्तों की भाषा, साहित्य और संस्कृति का भी अध्ययन किया, जो इनके प्रकृति-प्रेम, राजनीतिक चेतना, सामाजिक चेतन आदि संबंधित तृषित मन को तृप्त किया। अमीरी राजसी ठाट-बाट में रहते हुए भी भारतेंदु हरिश्चंद्र जी सर्वदा स्वदेश, मातृ-भाषा और भारतीय साहित्य में अत्यधिक रूचि रखते थे।

अपने इस अभिरूचि की पूर्णता के लिए उन्होंने समयानुसार अपने तन-मन-धन सब कुछ को अर्पित कर दिया। बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे और प्रसिद्ध लेखक – राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ थे, भारतेन्दु शिष्यत्व भाव से अक्सर उनके यहाँ जाया करते थे और उनकी सानिध्यता में ही उन्होंने पर्याप्त अंग्रेजी सीखी थी। 13 वर्ष की छोटी-सी अवस्था में भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी का विवाह काशी के रईस लाला गुलाब राय की पुत्री मन्ना देवी के साथ हुआ था। मन्ना देवी से इनके दो पुत्र एवं एक पुत्री हुई! किन्तु बाल्यावस्था में इनके पुत्रों की मृत्यु होती गयी। जबकि पुत्री विद्यावती सुशिक्षिता थी।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी साहित्य सेवा में स्वयं तो लगे ही रहे, इसके साथ ही हर प्रकार की सहायता करते हुए प्रतिभाशाली नव साहित्यकारों को भी साहित्य के लिए सदैव प्रोत्साहित किया करते थे । बाद में 1886 में बनारस में ही चौखम्भा स्थित ठठेरी बाजार में ‘चौखंभा स्कूल’ स्थापित किये, जहाँ निःशुल्क शिक्षा के साथ ही निर्धन विद्यार्थियों को पुस्तकें, भोजन, वस्त्र आदि सब कुछ निःशुल्क ही दिए जाते थे। बाद में इसे ‘सुड़िया’ में स्थानतरित किया गया और उसके बाद भी 1895 में ‘मैदागिन’ में विद्यालय बना, जो आज भी ‘हरिश्चंद्र पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज’, ‘हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज’ और ‘हरिश्चंद्र बालिका इंटर कॉलेज’ के नाम से चल रहा है।

1850 के आसपास भारतीय समाज में भ्रष्टाचार, प्रांतवाद, अलगाववाद, जातिवाद और छुआछूत जैसी समस्याएँ अपने चरम पर थीं, जो हरिश्चंद्र बाबू को कचोटती ही रहती थीं। अतः उन्होंने इन समस्याओं को ही अपने नाटकों, प्रहसनों और निबंधों का विषय बनाया। उन्होंने अपनी ‘भारतेन्दु मंडली’ के साहित्यकारों को पारलौकिक या काल्पनिक नहीं, बल्कि अपने समक्ष की लौकिक दुनियादारी पर लिखने के लिए प्रेरित किया। देखा जाए तो उन्होंने पुरानी प्रवृत्तियों के स्थान पर नवीनता का समावेश करने की कोशिश की।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने नवागत साहित्यकारों के मार्ग दर्शन करने के लिए 15 अगस्त 1867 को बनारस से ‘कवि वचन सुधा’ नामक कविता-केंद्रित मासिक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया । इसमें साहित्य के अलावा समाचार, यात्रा, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, राजनीति और समाज नीति विषयक लेख भी प्रकाशित हुआ करते थे। इस पत्रिका की जनप्रियता इतनी बढ़ी कि प्रकाशन के दूसरे वर्ष ही इसे पाक्षिक और फिर अगले वर्ष ही इसे साप्ताहिक कर दिया गया था। अगले सात वर्षों तक ‘कवि वचन सुधा’ का संपादक-प्रकाशन करने के बाद भारतेन्दु जी ने उसे अपने मित्र चिंतामणि धड़फले को सौंप दिया।

तत्पश्चात भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने स्वयं 15 अक्टूबर, 1873 को बनारस से ही ‘हरिश्चंद्र मैग्जीन’ का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके मुख-पृष्ठ पर उल्लेख रहता था कि यह ‘कविवचनसुधा’ से संबद्ध है। इस पत्रिका में पुरातत्त्व, उपन्यास, कविता, आलोचना, ऐतिहासिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा दार्शनिक लेख, कहानियाँ और व्यंग्य आदि प्रकाशित हुआ करते थे। पत्रिका में देशभक्ति से परिपूर्ण लेख आदि प्रकाशित होने के कारण इसे अंग्रेजी सरकार का कोप भाजन बनाना पड़ा और इसे बन्द करा दिया गया। तब भारतेन्दु जी ने 1 जनवरी, 1874 को स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से महिलाओं के लिए बनारस से ही मासिक पत्रिका ‘बाला-बोधिनी पत्रिका’ का प्रकाशन आरंभ किया, जो अगले चार वर्षों तक प्रकाशित होती रही थी।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी स्वभाव से अति उदार व्यक्ति थे। दीन-दुखियों की सहायता, देश-सेवा और साहित्‍य-सेवा में उन्‍होंने अपने धन का खूब सदुपयोग किया या कहा जाए तो दूसरों के विचार में उसे खूब लुटाया। उन्होंने समाज-सुधार की भावना से प्रेरित होकर 1874 में ‘वैश्य हितैषी सभा’ नामक संस्था की स्थापना की। भारतेंदु हरिश्चन्द्र का सम्बन्ध उस समय के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ रहा है। सामाजिक कार्यों के लिए इनके लिए धन का कोई विशेष महत्व नहीं था।

उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य और हिन्दू जाति के उत्थान के लिए अपने युग-प्रवर्तक व्यक्तित्व से नई दिशा, नये परिप्रेक्ष्य और नये आयाम अनवरत कई वर्षों तक प्रदान करते रहे। कार्य की तत्परता और कम से कम समय में उसे पूर्णता प्रदान कर लेने की लालसा के साथ ही अति उदार प्रवृति के कारण अग्रीम जीवन में उनकी आर्थिक दशा बहुत ही शोचनीय हो गयी तथा वे ऋणग्रस्‍त भी हो गये थे, जो उनके शरीर को भी असमय क्षीण करने लगा था और फिर 1884 में उन्हें क्षय रोग ने धर दबोचा।

भारतीय साहित्य गगन पर उदित दिव्य भास्कर भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने संचित दिव्य साहित्यिक किरणों से हिन्दी साहित्य को जगमग कर लगभग मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में ही संवत 1941 (6 जनवरी, सन् 1885) में इस असार भौतिक संसार को त्याग कर माँ भारती के स्वर्गीय अंक में चिर निद्रा में लीन हो गए।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का स्वभाव बहुत विनोद प्रिय था। लोगों से हँसी-मजाक करने के लिए वह बहुत ही प्रसिद्द्ध थे। होली के दिन उनका सारा दिन ऐसे ही हास्य-विनोद में बिताता था। अपने इसी हास्य-विनोद और सरल स्वभाव के कारण लोग इनकी प्रिय वस्तुओं को भी उनसे ठग कर ले जाया करते थे। पर वे हँसकर टाल दिया करते थे। उन्होंने अपने बारे में लिखा है –
‘सीधन सों सीधे, महाँ बाँके हम बाँकेन सों,
‘हरीचंद’ नगद दामाद अभिमानी के।’

भारतेन्दु हरिश्चंद्र किसी भ्रान्तिवश राजभक्ति और देशभक्ति दोनों को कुछ समय तक एक ही मानते रहे थे, पर बाद में उनमें विशुद्ध देशभक्ति की भावना परिपक्व होकर राजभक्ति से बिल्कुल ही विमुख होकर अनवरत बह चली। तभी तो एक विस्मय-विमुधता का विचार उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में परिलक्षित होते हैं –
‘अंग्रेज-राज सुख-साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चली जात, यहै अति ख्वारी।।’

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने देश के सर्वांगीन विकास और देशवासियों के ‘हिय के सूल’ को मिटाने के लिए अपनी मातृभाषा की उन्नति और विकास के लिए तन, मन और धन से उनसे जो कुछ भी सम्भव था, उन्होंने उसे किया। अपनी भाषा में ही साहित्य की रचना आवश्यक है, यही उनका स्पष्ट विचार था। उनका कहना है-
‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटात न हिय के सूल।।’

भारतेन्‍दु हरिश्चन्द्र जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्‍यकार थे। इन्होंने मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही अनेक विधाओं में शताधिक साहित्य की रचना कर हिन्दी साहित्यकोश को समृद्ध किया। काव्‍य-सृजन में भारतेन्‍दु जी ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया, तो गद्य-लेखन में उन्होंने खड़ी बोली भाषा को व्‍यवस्थित, परिष्‍कृत और परिमार्जित कर उसे अपनाया। इनके मित्र बाबू रामदीन सिंह ने इनकी सभी रचनाओं को प्रकाशित करते रहे थे।

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

आज सरस्वती पुत्र भारतेन्दु हरिश्चंद्र की 172 वीं जयंती पर हम उन्हें स्मरण करते हुए सादर नमन करते हैं।
(भारतेंदु जयंती, 9 सितम्बर, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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